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बड़प्पन दिखाएं किसान संगठन
प्रणय कुमार। लोकतंत्र में हठधर्मिता के लिए कोई स्थान नहीं होता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। जड़ता एवं टकराव लोकतंत्र की प्रकृति-प्रवृत्ति नहीं। संवाद से सहमति और सहमति से समाधान की दिशा में सतत सक्रिय एवं सचेष्ट रहना ही लोकतंत्र की मूल भावना है। गुरु पर्व के पवित्र अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए इसका अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उदारता दिखाते हुए उन्होंने देशवासियों से इसके लिए क्षमा भी मांगी कि सरकार नए कृषि कानूनों की उपयोगिता को समझाने में विफल रही। साथ ही किसानों और खेती के हित में निरंतर कल्याणकारी निर्णय करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता भी जताई।सरकार और प्रधानमंत्री की यह पहल स्वागतयोग्य है कि उन्होंने कृषि कानूनों को अहम का मुद्दा नहीं बनाया। इस फैसले को किसी पक्ष की हार-जीत के रूप में देखा जाना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं परंपराओं के विरुद्ध होगा। जनता के हितों एवं सरोकारों के प्रति सजग, सतर्क एवं संवेदनशील सरकार किसी भी वर्ग की भावनाओं को लेकर लंबे समय तक उदासीन नहीं रह सकती। भले ही ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित ही क्यों न हो। बड़े हितों को साधने के लिए कभी-कभी दो कदम पीछे हटना भी व्यावहारिक नीति मानी जाती है। वह बड़ा हित राष्ट्रीय एकता-अखंडता और सामाजिक सौहार्द को हर हाल में बनाए रखना है।
कृषि कानूनों की आड़ में जिस प्रकार देश विरोधी ताकतें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को चोट पहुंचाने की फिराक में थीं, उसे देखते हुए सरकार द्वारा इन कानूनों को वापस लेना समझ में आता है। केवल खुफिया सूत्र ही नहीं, अपितु टूलकिट प्रकरण, खालिस्तानियों की नए सिरे से सक्रियता और बिगड़ैल पड़ोसी मुल्कों चीन-पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों के नेताओं एवं तमाम नामचीन हस्तियों की प्रतिक्रियाएं किसी बड़ी साजिश का ही संकेत कर रही थीं। सरकार ने अपने इस फैसले से ऐसी सभी देश-विरोधी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। वैसे भी ये कानून सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन थे। सरकार ने भी उन्हें कुछ वर्षों के लिए स्थगित कर रखा था। यानी ये कानून वैधानिक रूप से भी प्रभावी नहीं थे।
जहां तक खेती-किसानी के हितों का प्रश्न है तो केंद्र सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में निरंतर वृद्धि की है। दलहन और तिलहन उत्पादों पर तो लगभग दोगुनी मूल्य वृद्धि की गई है। लाभकारी मूल्यों पर किसानों से उत्पादों की खरीद बढ़ाई है। सरकार ने अपने नीति-निर्णय-नीयत में पहले भी किसानों के हितों एवं सरोकारों को प्राथमिकता दी है और आगे भी सर्वोच्च प्राथमिकता देने का आश्वासन दिया है। सरकार के ऐसे रुख-रवैये को देखते हुए आंदोलनरत किसानों को भी समझदारी एवं उदारता का परिचय देकर अपना धरना-प्रदर्शन समाप्त करना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि इस देश ने कभी अराजकता के व्याकरण को नहीं सीखा। हिंसा के पाठों को कभी नहीं दोहराया। सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करने और राष्ट्रीय राजधानी को बंधक बनाने की प्रवृत्ति अंतत: लोकतंत्र को अराजक-तंत्र में तब्दील करती है।
जब सरकार ने उनकी प्रमुख मांग मान ली है तो लगातार नई-नई और अव्यावहारिक मांगों को सामने रखना लोकतंत्र को कमजोर करने का ही काम करेगा। इससे सरकार की सरोकारधर्मिता क्षीण होगी। पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होगी। इसलिए दिल्ली के सीमांत इलाकों में महीनों से डेरा डाले किसानों को अविलंब अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान करना चाहिए। उन्हें अन्यान्य मांगों के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति त्यागनी चाहिए। साथ ही किसान आंदोलन की आड़ में सक्रिय शरारती एवं देश-विरोधी तत्वों को चिन्हित कर उन्हें स्वयं से दूर रखें। उन्हें 26 जनवरी को लालकिले पर अराजकता करने वालों की भर्त्सना करनी चाहिए। तब नहीं तो अब ही सही उन्हें किसान मानने से इन्कार करना चाहिए। इससे उनकी साख और विश्वसनीयता बहाल होगी। इससे 'किसान' की पहचान और पवित्रता पुन:प्रतिष्ठित होगी।
यह निर्विवाद सत्य है कि असली अन्नदाता कभी राष्ट्रीय ध्वज का अपमान नहीं कर सकते। किसानों की आड़ में छिपे कतिपय अराजक तत्वों को देश ख़ूब पहचानता है। यदि सरकार ने तीनों कानून वापस लेकर और देशवासियों से क्षमा मांगने की बड़ी उदारता दिखाई है तो किसान संगठनों और नेताओं को भी बड़ा मन रखना होगा। बड़प्पन दिखाना होगा। आगे आकर कुछ जिम्मेदारी लेनी होगी। यह भारत की महान लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप एवं अनुकूल ही होगा। लोकतंत्र में वही बड़ा होता है जो अपनी गलती मानने में संकोच न करे, हठधर्मिता छोड़े, जड़ता को त्यागकर आगे बढ़े। किसान नेताओं को भी यह मानना होगा कि उनके आंदोलन की दिशा भी कई बार भटकी। उनकी मुहिम ने कई बार देशवासियों के समक्ष संकट पैदा किए। दिल्ली में लोगों की आवाजाही दूभर हो गई। प्रभावित इलाकों में रोजगार-व्यापार पर आघात हुए।
अपने लिए राजनीतिक अवसर देख रहे विपक्षी दलों और नेताओं को भी इस आंदोलन की आग में घी डालने के बजाय परिपक्वता का परिचय देना चाहिए। अभी भी कई राज्यों में उनकी सरकारें हैं। भविष्य में भी उनकी सरकारें बन सकती हैं। फिर क्या होगा यदि उन्हें भी ऐसी स्थितियों से दो-चार होना पड़े। आंदोलन का विरोध कर रही कांग्रेस ईमानदारी से आकलन करे कि उसके इतने लंबे शासन के बावजूद अन्नदाता की ऐसी स्थिति क्यों बनी रही? किसान क्यों कर्ज के जाल में फंसे रहे? क्यों आत्महत्या करते रहे? राजनीतिक बिरादरी की स्मरणशक्ति भले कमजोर हो, पर जनता सबका लेखाजोखा रखती है। वह जानती है कि कौन उसके असली हितैषी हैं और कौन नकली! लोकतंत्र में जनता को मूड समझने की मूर्खता सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सब पर समान रूप से भारी पड़ती है।
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