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अफगान महिलाओं पर अखरती चुप्पी: महिलाओं के मुद्दों पर हंगामा करने वाले लोग तालिबान द्वारा महिलाओं के दमन पर खामोश
भूपेंद्र सिंह | जिस दिन तालिबान ने काबुल की ओर कूच किया उसी शाम को अफगान शिक्षा मंत्री का एक इंटरव्यू चैनल पर सुना। उन्होंने कहा था कि अभी मैं अपनी बेटी के साथ घर पर हूं, मगर कल सुबह क्या होगा, उसका नहीं पता। तालिबान के कब्जे से आशंकित अफगान महिला नेटवर्क की संस्थापक महबूबा सिराज ने बेहद दुखी स्वर में कहा, 'दुनिया के नेताओं को शर्म नहीं आती। उन्होंने हमें मरने के लिए छोड़ दिया। हमारा देश दो सौ साल पीछे चला जाएगा। अमेरिका, रूस, नार्दर्न अलायंस, किसी पर भी भरोसा नहीं रहा। आखिर हमने क्या गलत किया है।' संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान की भूतपूर्व प्रतिनिधि आएशा खुर्रम ने कहा-जो लड़कियां स्नातक अंतिम वर्ष में थीं, पता नहीं अब वे पढ़ाई पूरी कर पाएंगी कि नहीं। अफगान फिल्मकार सहारा करीम ने भी एक दिल दहलाने वाला पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने दुनिया से अपील की थी कि उनकी तरफ से मुंह न मोड़ा जाए।
अफगानिस्तान के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय इन महिलाओं की तालिबान को लेकर आशंकाएं और आक्रोश निर्मूल नहीं है। असल में तालिबान का अतीत से लेकर वर्तमान तक अत्यंत भयावह है। इसीलिए वे दुनिया से अपना दर्द साझा कर रही हैं। तालिबान अभी भी बच्चों को मार रहे हैं। लड़कियों को बालिका वधू की तरह बेचा जा रहा है। हास्य कलाकार, कवि को भी मार डाला। भयानक मानवीय संकट पर दुनिया चुप है। वे सभी कलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगे। जब पहले वे सत्ता में थे तो कोई लड़की स्कूल नहीं जाती थी। अभी नब्बे लाख लड़कियां स्कूल जाती हैं। हेरात विश्वविद्यालय में पचास प्रतिशत महिलाएं थीं। बीते कुछ हफ्तों में ही तालिबान ने बीस लाख लड़कियों को स्कूल से निकाल दिया है। याद रहे कि तालिबान के पहले शासन के दौरान दस साल की उम्र के बाद लड़कियों के पढ़ने पर पाबंदी लगा दी गई थी। अफगानिस्तान छोड़कर आई हरिंदर कौर ने एक चैनल पर कहा था कि घर से निकलते ही वे गला काट देते हैं। एक दूसरी महिला बोली कि लड़कियों को उठा ले जाते हैं, करें भी तो क्या?
हालिया तख्तापलट के बाद तालिबान ने कहा था कि वे महिला अधिकारों का सम्मान करते हैं और उन्हें महिलाओं के नौकरी करने पर कोई आपत्ति नहीं। सरकारी चैनल पर एक महिला एंकर खदीजा अमीन को दिखाया भी गया था, लेकिन चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे कि उस महिला एंकर को हटा दिया गया। तालिबान का कहना है कि वे महिलाओं को शरीयत के अनुसार अधिकार देंगे। पश्चिमी तौर-तरीके उन्हें स्वीकार्य नहीं। महिलाओं का सजना-संवरना भी उन्हें पसंद नहीं, इसलिए होर्डिंग्स में महिलाओं के चेहरों पर कालिख पोत दी गई।
पिछले दिनों भारत में आम की टोकरी जैसी एक साधारण कविता, जिसमें लड़कियों के लिए छोकरी शब्द का प्रयोग किया गया था, उसे लेकर बड़ा हंगामा हुआ। छोकरी को अपमानजनक बताया गया। वह भी तब जबकि ब्रज क्षेत्र और हरियाणा आदि में घर वाले अपनी लड़कियों को छोरी कहकर ही बुलाते हैं। दंगल फिल्म में भी इस शब्द का प्रयोग खूब किया गया है। दिलचस्प यह है कि भारत में मामूली बातों पर भी महिला अधिकारों के हनन का बहाना बनाकर शोर मचाने वाले, तालिबान राज में महिला दमन को अफगानिस्तान का निजी मामला बता रहे हैं। यह भी कह रहे हैं कि यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है। यह तो दोहरे मापदंड वाली बात हुई। एक ओर मामूली बातों पर हंगामा और दूसरी ओर इतनी बड़ी त्रासदी पर चुप्पी। सच यही है कि सवाल सिर्फ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ही पूछे जा सकते हैं। अन्यथा तालिबान का नाम आते ही मुंह क्यों छिपाना। महिला अधिकारों पर इतने बड़े आघात के बावजूद इतनी लंबी खामोशी। देश के इतने महिला संगठन, इतने स्वयं सहायता समूह, महिला हितों का राग अलापने वाले इतने दल, सब चुप। क्या सिर्फ इन बातों से इसलिए आंखें मूंदी जा सकती हैं कि ये विदेश का मामला है। तब तो जार्ज फ्लायड की मृत्यु पर ब्लैक लाइफ मैटर्स कहकर हल्ला मचाना भी हिंदुस्तान का नहीं, बल्कि अमेरिका का ही मामला था।
तालिबान सारे अधिकार पुरुषों को देते हैं। महिलाएं सिर्फ वही कर सकती हैं, जो पुरुष चाहते हैं। वे घर से बाहर जाएं कि न जाएं, जाएं तो किसी पुरुष के साथ, क्योंकि सारी पुरुष सत्ताएं मानती हैं कि अकेली बाहर निकलती महिला बिगड़ जाती है। उस पर नियंत्रण इसी तरह रखा जा सकता है कि हरदम कोई पुरुष उनके साथ हो। यही नहीं महिलाओं की नौकरी पर भी पाबंदी है, क्योंकि आत्मनिर्भर महिलाएं पुरुषों के नियंत्रण में नहीं रहतीं। तालिबान ने स्थानीय लोगों से बारह साल की बच्चियों से लेकर पैंतालीस साल तक की महिलाओं की लिस्ट मांगी है ताकि उनका विवाह तालिबान के समर्थकों से किया जा सके और वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा कर सकें। यानी तालिबान की नजर में महिलाओं की हैसियत सिर्फ संतान पैदा करने वाली मशीन के जैसी है।
अमेरिका की पहली महिला उपराष्ट्रपति कमला हैरिस बहुत गर्व से कहती हैं कि उनका तो जीवन ही महिलाओं के लिए काम करते बीता है। अफसोस है कि अफगान महिलाओं पर उनका कोई बयान सामने नहीं आया। हिलेरी क्लिंटन भी खामोश हैं। सिर्फ इसलिए कि जो बाइडन उसी डेमोक्रेटिक दल के नेता हैं, जिस दल से इन दोनों का वास्ता है। अपनी ताकत पर इतराने वाले, बात-बात पर दुनिया पर धौंस दिखाने वाले पश्चिमी देश जिस तरह से दुम दबाकर भागे हैं, वह वाकई शर्मनाक है। अफसोस चीन की कारगुजारियों को देखकर भी होता है। खुद को वामपंथी कहने वाला देश, महिला उत्पीड़न पर इस तरह आंखें मूंदे है। वहीं रूस जिसके नेता लेनिन ने कहा था कि महिलाओं को चौके से बाहर निकालो, वह उन तालिबानों के गुण गा रहा है, जो महिलाओं को गर्त में धकेल रहे हैं।