सम्पादकीय

क्या एक राष्ट्रीय नीति नहीं बननी चाहिए ताकि यह तय किया जा सके कि सरकार कितना फ्री या सब्सिडी दे सकती है?

Gulabi Jagat
9 April 2022 8:42 AM GMT
क्या एक राष्ट्रीय नीति नहीं बननी चाहिए ताकि यह तय किया जा सके कि सरकार कितना फ्री या सब्सिडी दे सकती है?
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आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अनगिनत मुफ्त योजनाएं शुरू करने का वादा किया था
अरूप घोष.
कोई भी राज्य या राजनेता कभी नहीं सीखता है. हमारे पास इसकी कई मिसालें हैं: आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) ने पंजाब (Punjab) में अनगिनत मुफ्त योजनाएं शुरू करने का वादा किया था. चुनाव जीतने के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान (Bhagwant Mann) ने केंद्र से 1 लाख करोड़ रुपये के विशेष वित्तीय पैकेज की मांग की. DMK के संस्थापक सीएन अन्नादुरई ने राज्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से 1 रुपये में "तीन उपाय" जैसे (लगभग 4.5 किलोग्राम) चावल का वादा किया था और मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद वे मुकर गए थे.
जब चुनाव का दबाव होता है तो मुफ्त के उपहार (फ्रीबीज) का वादा करने में हर पार्टी दूसरी पार्टी के साथ होड़ लगा लेती है. आम आदमी पार्टी ने महिलाओं के लिए 1,000 रुपये प्रति माह (सिर्फ पंजाब में ही नहीं बल्कि गोवा और उत्तराखंड में भी) और हर घर के लिए 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया था. भला पंजाब कांग्रेस के प्रमुख नवजोत सिंह सिद्धू कब पीछे रहने वाले थे. उन्होंने उस राशि को बढाकर 2,000 रुपये प्रति माह कर दिया. अन्य वादों में कक्षा 5 से 12 तक की लड़कियों के लिए 5,000 से 20,000 रुपये की वित्तीय सहायता और पंजाब में छात्राओं के लिए मुफ्त ई-स्कूटर शामिल था.
AAP अपने मुफ्त बिजली के वादे की वजह से दिल्ली के सत्ता में आई
उत्तर प्रदेश में असाधारण दबाव का सामना करते हुए, बीजेपी ने प्राथमिक विद्यालय के छात्रों के लिए 1,100 रुपये और एक लाख छात्राओं के लिए 2,000 रुपये का वादा किया. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सत्ता में आने पर छात्राओं को स्मार्टफोन और ई-स्कूटी देने का वादा किया था. बिजली वितरण कंपनियां लगभग हमेशा संकट में रहती हैं क्योंकि मुफ्त बिजली को शराब के बाद सबसे आम रिश्वत में से एक माना जाता है.
AAP अपने मुफ्त बिजली के वादे की वजह से दिल्ली के सत्ता में आई. बहरहाल, इस वादे की वजह से 2019-20 में बिजली वितरण कंपनियों के राजस्व में लगभग 3,000 करोड़ रुपये की कमी आई. दिल्ली के डिप्टी सीएम ने 2021-22 में ऊर्जा क्षेत्र के लिए 3,227 करोड़ रुपये के बजट अनुमान का प्रस्ताव रखा था. इसमें से कुल 3,090 करोड़ रुपये केवल बिजली सब्सिडी के लिए है जो इस क्षेत्र के लिए कुल आवंटन का 96 प्रतिशत और कुल आवंटन का 4.4 प्रतिशत पूरे बजट के लिए.
ईंधन की कीमतों का इस्तेमाल भी एक छूट के रूप में किया जाता है लेकिन इसमें केन्द्र और राज्य दोनों ही शामिल होते हैं. जहां एक केंद्रीय उत्पाद शुल्क को नियंत्रित करता है वहीं दूसरा वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) और सरचार्ज लगाता है. पेट्रोल और डीजल की कीमत कई बातों पर निर्भर करती है. अंतिम खुदरा मूल्य कच्चे तेल की कीमत (कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत), रिफाइनरी शुल्क, परिवहन शुल्क, डीलरों का कमीशन, केंद्रीय उत्पाद शुल्क (केंद्र सरकार द्वारा लगाया गया) और वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) और सरचार्ज (राज्य सरकार द्वारा लगाया गया) को मिला-जुला कर तय होता है.
अर्थव्यवस्था का टैंक पहले से ही लीक हो रहा है
ईंधनों की कीमत इसलिए ज्यादा होती है क्योंकि केंद्र और राज्य सरकार दोनों काफी टैक्स (केंद्रीय उत्पाद शुल्क+वैट और सरचार्ज) लगाती हैं. मार्च 2022 तक उपभोक्ताओं द्वारा पेट्रोल के लिए भुगतान की गई कीमत का लगभग आधा हिस्सा टैक्स के रूप में केंद्र और राज्य सरकारों को जाता है. भारत दुनिया में सबसे अधिक ईंधन-कर देने वाले देशों में से एक है. सरकार ने बताया है कि इस राजस्व की जरूरत कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करने के लिए होती है.
और यही वो चीज है जिसे नहीं करना चाहिए. क्योंकि कल्याणकारी योजनाएं कुछ और नहीं बल्कि मुफ्त उपहार देकर मतदाताओं को रिझाने की एक कवायद मात्र है. हां, समाज के कुछ वर्गों को अनुदान या सब्सिडी की जरूरत है लेकिन इसके लिए एक मजबूत समझ होनी चाहिए. मौजूदा वक्त में जो हो रहा है वो ये कि मुफ्त की घोषणा के लिए एक अंध आसक्ति है, जबकि अर्थव्यवस्था का टैंक पहले से ही लीक हो रहा है. आखिरकार किसी न किसी को कहीं न कहीं इन लुभावने और सस्ते माल की कीमत चुकानी पड़ती है. यह आज नहीं हो सकता है; यह कल नहीं हो सकता है, लेकिन कभी न कभी और कहीं न कहीं इस गणित को जोड़ना होगा. और इससे भी बुरी बात यह है कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ अभिजात्य वर्ग ही इन टैक्सों का भुगतान करता है क्योंकि सरकारें लगभग हर चीज पर कर लगाती हैं.
वर्षों से अदालतों ने केंद्र और राज्य सरकारों को चेतावनी और निर्देष दिया है कि चुनाव और खर्च को नियंत्रित करने के लिए तर्कसंगत नीतियां और कानून बनाए. चुनाव आयोग को भी बार-बार चुनावी घोषणापत्र की विषयवस्तु को रेगुलेट करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए कहा गया है. सर्वोच्च न्यायालय भी इस मुद्दे पर अलग कानून बनाने की मांग करती रही है. लेकिन मौजूदा समय में अदालतें बहुत कुछ कर नहीं पाती हैं क्योंकि पार्टी के घोषणापत्र में मुफ्त उपहार का वादा भ्रष्ट आचरण नहीं है.
भारत को एक ऐसी राष्ट्रीय नीति बनाने की जरूरत है जो व्यावहारिक और दूरदर्शी हो. इस नीति से जहां एक तरफ लोगों पर कर लगाने के नुकसान से बचा जा सकता है, वहीं दूसरी तरफ मुफ्त के उपहार पर भी रोक लगाई जा सकती है. निस्संदेह ही ये एक ऐसी नीति होगी जिसके नतीजे बुरे नहीं हो सकते हैं. परेशानी यह है कि ये रिश्वत लगभग हमेशा काम करती है. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी द्वारा आपके बैंक खातों में 15 लाख रुपये के वादे को न भूलें. पैसा कभी नहीं आया लेकिन इस तरह का आकर्षण उन वजहों में से एक था जिसने बीजेपी को सत्ता के गलियारों में पहुंचा दिया. बीजेपी के एक नेता ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर किया है. इस याचिका के मुताबिक चुनाव आयोग को उन राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्हों को जब्त करने और उन्हें अपंजीकृत करने का निर्देश देने की मांग की गई है जो सार्वजनिक धन से तर्कहीन मुफ्त उपहार बांटने का वादा करते हैं. उनको इस याचिका के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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