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- मराठा आरक्षण को झटका
अंततः महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया है। अदालत ने अपने फैसले में साफ कर दिया है कि मराठा समुदाय के लोगों को शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय के रूप में घोषित श्रेणी में नहीं लाया जा सकता और यह 50 फीसदी आरक्षण सीमा का उल्लंघन है। अदालत ने यह भी कहा है कि यह 2018 का अधिनियम समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन वाला है।
पिछले कुछ वर्षों से समृद्ध और प्रभावशाली समुदायों ने अपने लिए आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन किए और आरक्षण राजनीतिक दलों के लिए एक सियासी जुमला बन गया, उससे सामाजिक समानता और समरसता की बजाय विषमता ही बढ़ी है। जिन तबकों को इसका लाभ मिलना चाहिए था उन्हें तो मिल नहीं सका जिससे असमानता की खाई बढ़ी। ऊंची जातियों में यह डर बैठने लगा कि वे पिछड़ रहे हैं। पढ़ने-लिखने के बाद भी उनके बच्चों को सरकारी नौकरी नहीं मिल रही। देश में आज भी सरकारी नौकरियां प्रतिष्ठा का प्रतीक और आरामदेह मानी जाती हैं। सच्चाई यह भी है कि आजकल नौकरियां हैं ही कहां लेकिन आरक्षण के कारण अब यह मुश्किल होती जा रही है। इसी कारण अगड़ी जातियां आरक्षण की मांग करने लगी हैं। देश ने जाट, गुर्जर, पटेल आैर मराठा आरक्षण आंदोलन देखे हैं और हिंसक प्रदर्शनों में लोगों की जानें जाती देखी हैं। आजादी से पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की शुरूआत हुई थी।
महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहू जी महाराज ने 1901 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने के लिए राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी के लिए आरक्षण की शुरूआत की थी। आजादी के बाद भी बाबा साहेब अम्बेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने की पुरजोर वकालत की थी और इसे लागू भी किया गया। यद्यपि यह व्यवस्था अस्थाई तौर पर लागू की गई थी लेकिन आज आरक्षण को एक बुनियादी अधिकार मान लिया गया न कि इस रूप में सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न ऐसे तबकों को मुख्यधारा में लाने की व्यवस्था है जो जाति विशेष का होने के कारण शोषण और उपेक्षा का शिकार हुए। आरक्षण की मांग बढ़ती चली गई लेकिन नौकरियां घटती चली गईं। सन् 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने देश में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया तो लेकिन सामान्य जातियों में काफी कड़ी प्रतिक्रिया हुई। देशभर में छात्रों ने सड़कों पर आकर हिंसक आंदोलन शुरू कर दिया। कई छात्रों ने आत्मदाह भी किया। इसी दौरान आरक्षण राजनीतिक झुनझुना बन गया। राजनीतिक दलों की ओर से पिछड़ी और दलित जातियों को आरक्षण की आड़ से लामबंद कर सत्ता की बागडोर सम्भाली गई लेकिन बाद में इसका गलत इस्तेमाल किया जाने लगा। जिन जातियों के लिए आरक्षण लागू है उनमें से सामाजिक रूप से कमजोर लोगों को इसका लाभ नहीं मिल रहा। उस जाति का मलाईदार तबका ही उसका लाभ ले रहा है। इसके परिणामस्वरूप सामान्य जातियां भी इसकी हिमायत करने लगीं। राजनीतिक दल भी सवर्गों के लिए आरक्षण का समर्थन करने लगे।