सम्पादकीय

शिवसेना की 'संस्कारी' राजनीति

Subhi
26 Aug 2021 12:45 AM GMT
शिवसेना की संस्कारी राजनीति
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महाराष्ट्र में केन्द्रीय मन्त्री नारायण राणे और इस राज्य के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे के बीच जो कुछ भी चल रहा है

आदित्य चोपड़ा: महाराष्ट्र में केन्द्रीय मन्त्री नारायण राणे और इस राज्य के मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे के बीच जो कुछ भी चल रहा है वह वास्तव में शिवसेना के राजनीतिक संस्कारों के बीच का ही अन्तर्द्वन्द है क्योंकि मुंहफट और रुआब गालिब करने वाले राजनीतिज्ञों को पैदा करना इस पार्टी की परंपरा रही है। नारायण राणे भी मुख्य रूप से शिवसेना के ही सैनिक रहे हैं और हाल ही में बारास्ता कांग्रेस के भाजपा में पहुंचे हैं तो उनसे अभी अपने पुराने संस्कार छूटे नहीं हैं जबकि शिवसेना तो है ही 'तुफैली नवाब'। मगर सबसे गंभीर तथ्य यह है कि श्री राणे की पार्टी भाजपा व शिवसेना दोनों ही सत्तारूढ़ पार्टियां हैं और दोनों ही एक-दूसरे पर तीखे कटाक्ष कस रही हैं। निश्चित रूप से यह कसम उठा कर कहा जा सकता है कि वर्तमान राजनीति में जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग होने लगा है वह किसी चौराहे की चख-चख के बराहर ही कही जा सकती है। यही वजह है कि मुख्यमन्त्री उद्धव ठाकरे द्वारा स्वतन्त्रता दिवस की सही गणना करने में चूक करने पर श्री नारायण राणे ने यह कह दिया कि अगर वह वहां मौजूद होते तो ठाकरे के चपत मार देते लेकिन उनकी इस टिप्पणी पर जिस तरह महाराष्ट्र सरकार ने प्रतिक्रिया व्यक्त की वह भी लोकतन्त्र की भावना के प्रतिकूल थी। श्री राणे एक केन्द्रीय मन्त्री हैं और उनके खिलाफ विभिन्न धाराएं लगा कर उन्हें जिस तरह गिरफ्तार किया गया उससे अन्त में लोकतन्त्र ही शर्मसार हुआ। बेशक कानून के सामने भारत में एक मन्त्री और सन्तरी में फर्क नहीं होता मगर अपराध की गंभीरता का कानून संज्ञान तो लेता है। यही वजह है कि श्री राणे को न्यायालय से तुरन्त जमानत मिल गई। इस मुद्दे पर शिवसेना और भाजपा के कार्यकर्ताओं का आपस में भिड़ना और भी ज्यादा संजीदा मामला है क्योंकि जब राज्य सरकार कानून की शरण में चली गई थी तो शिवसेना के कार्यकर्ताओं को उत्तेजित नहीं होना चाहिए था और दोनों ही पक्षों को शान्ति बनाये रखने के रास्ते पर चलना चाहिए था। मगर सवाल पैदा होता है जब समूची राजनीति ही असंयमित हो रही हो तो कार्यकर्ताओं से क्या अपेक्षा की जा सकती है? जिस देश में समस्याओं का अम्बार महंगाई से लेकर रोजगार और बन्द होते कारखानों से लेकर सामाजिक समरसता के बिगड़ने तक लगा हो, वहां अगर राजनीतिक दल मात्र किसी एक नेता के बारे में की गई अवांछित टिप्पणी को लेकर हिंसा पर उतर आयें तो राजनीति के गिरते स्तर का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। शिवसेना कल तक भाजपा की ही सहयोगी पार्टी हुआ करती थी। जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है तो दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे के कन्धे पर बैठ कर अपनी ताकत को बढ़ाने में सफलता प्राप्त की है। मगर आज की राजनीतिक परिस्थितियां दूसरी हैं और शिवसेना कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिल कर महाराष्ट्र का शासन चला रही है जिसकी वजह से भाजपा और शिवसेना आमने-सामने आ गई हैं। नारायण राणे को केन्द्र की सरकार में हाल में हुए मन्त्रिमंडल विस्तार में मन्त्री बनाया गया है और उन्हें महाराष्ट्र में अपना जलवा दिखाना है। खास कर अगले साल फरवरी महीने में होने वाले राज्य के स्थानीय निकायों के चुनावों में जिनमें वृहन्मुम्बई महापालिका भी आती है। मुम्बई महापालिका पर शिवसेना का अधिकार है। हकीकत यह है कि श्री राणे मूलतः कोंकण इलाके और मुम्बई के ही नेता हैं । संपादकीय :अफगान-भारत और रूस'सबके मना करने पर स्वीकारा चैलेंज'बाजार हुए गुलजार ले​किन...लावारिस अफगानिस्तान!कश्मीर में हुर्रियत का चेहरासरकार का मिशन पाॅम ऑयल1999 में उन्हें शिवसेना के प्रमुख स्व. बालठाकरे ने ही राज्य का मुख्यमन्त्री बनाया था। हालांकि वह केवल 258 दिन ही इस पद पर रह सके थे और इस समय हुए चुनावों में भाजपा-शिवसेना चुनाव हार गये थे जिससे राज्य में स्व. विलासराव देशमुख के नेतृत्व में कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस की मिलीजुली सरकार गठित हुई थी जो 2014 तक कई मुख्यमन्त्रियों के बदलने के बावजूद चलती रही और चुनावी विजय प्राप्त करती रही। कहने का मतलब यह है कि इसके बावजूद 2014 के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा और शिवसेना ने मिलकर श्री देवेन्द्र फड़नवीस के नेतृत्व में सरकार बनाई। 2019 में भाजपा व शिवसेना ने गठबन्धन बना कर चुनाव लड़ा और विजय प्राप्त की मगर मुख्यमन्त्री पद के सवाल पर शिवसेना ने भाजपा से गठबन्धन तोड़ डाला और कांग्रेस का दामन थामन कर मुख्यमन्त्री पद पर कब्जा किया। नारायण राणे इस दौर में कांग्रेस में पहुंच गये थे। उन्होंने बाद में भाजपा में प्रवेश किया। भाजपा महाराष्ट्र में उनका दम-खम देखना चाहती है अतः उन्हें शिवसेना को सबक सिखाने के लिए उसी के पैंतरें चलने पड़ रहे हैं। देखना केवल यह होगा कि इस राजनीति का पटाक्षेप किस तरह होता है क्योंकि फरवरी महीने में तो स्थानीय निकाय चुनाव होने हैं

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