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- केवल शिमला दोषी नहीं
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By: divyahimachal
हिमाचल में मौसम की विकरालता ने अस्तित्व के मुहावरे बदल दिए, लेकिन इस आफत में जिंदगी को आजमाने के लिए निगहबानी जरूरी है। हिमाचल आज जहां खड़ा है, वहां पहुंचने का साहस, सामथ्र्य और जज्बा अपने आप में एक बेहतरीन उदाहरण है। हम पर्वतीय राज्यों के अग्रणी बने तो इसलिए कि पहाड़ अपनी वर्जना, पीड़ा और क्षमता के दूसरी ओर आगे बढऩे का इंकलाब पैदा करता रहा, लेकिन विकास के नाम पर पैदा हुई क्रूर इच्छाएं अब असहाय बनाने लगी हैं। इस दौरान हम सिर्फ मौसम, मौसम के दुष्परिणाम, दरकते पहाड़ और चूर-चूर होते विकास को नहीं देख रहे, बल्कि अवसरवादी सियासत और पूर्वाग्रह से ग्रसित विमर्श भी देख रहे हैं। हिमाचल की तस्वीर का समग्रता से अवलोकन करें, तो कोई भी हिस्सा खुद को निर्दोष साबित नहीं कर सकता, फिर भी बदनामी का ठीकरा सबसे अधिक शिमला के सिर पर फूट रहा है। आबादी और मानवीय गतिविधियों के दबाव में शिमला कहीं तो अपनी अमानत खो रहा है, लेकिन सोचना यह है कि हम इस शहर में किस अहमियत का संरक्षण करें। विडंबना यह है कि न तो हमने शिमला को स्टेट कैपिटल रिजन की तरह से विकसित किया और न ही इसके धरोहर स्वरूप का संरक्षण कर सके। चेतावनियां वक्त ने दीं या एनजीटी ने हिदायतें दीं, लेकिन हम न कोर क्षेत्र, न ग्रीन क्षेत्र और न ही फोरेस्ट क्षेत्र के आधार पर शहर की परिधि को सीमांकित कर पाए। आश्चर्य यह कि जाठिया देवा या वाकनाघाट में शिमला के विस्तार को कोई प्रारूप नहीं मिला और न ही राजधानी की कैंरिंग कैपस्टी बढ़ाने के लिए इसका दायरा बढ़ा। दरअसल हिमाचल की सियासत भाईचारे के सौहार्द में कायदे कानूनों की बलि ले रही है।
हमने तीन दशक तक शहरीकरण के बढ़ते दबाव की अनदेखी केवल शिमला में नहीं की, बल्कि हर शहर तथा धार्मिक-पर्यटक कस्बों तक की है। नयना देवी या दियोटसिद्ध में झूलती इमारतों के नीचे जमीन की परिस्थिति खतरे माप रही है। डलहौजी, मनाली व मकलोडगंज को औकात से ज्यादा बर्बाद करने की प्रतिस्पर्धा से रू-ब-रू होना पड़ रहा है। हमें यह जान लेना चाहिए कि हिमाचल का एक निश्चित आकार है, जिसे वर्ष में सबसे अधिक मौसम के बदलते आधार से गुजरना पड़ता है। हिमाचल को अपनी पूरी जमीन के मात्र तीस फीसदी हिस्से में तन ढांपना है और आत्मनिर्भरता के विकल्प तराशने हैं। ऐसे में इसकी क्या गारंटी कि गैर वन भूमि ठीक से रहने लायक, बसने के अनुरूप या नागरिक उपयोगिता के मुताबिक है। सही और सुरक्षित जमीनें अगर हमीरपुर, कांगड़ा, ऊना, बिलासपुर या अन्य जिलों में घोषित वन संपदा है, तो मानवीय गतिविधियां हर उपलब्ध गैर वन भूमि पर चलेंगी। हिमाचल अपने जीने की लालसा में दोषी है, क्योंकि इसे वन संरक्षण अधिनियम ने हाशिए से बाहर लाकर खड़ा कर दिया है। आश्चर्य यह कि करीब दो दर्जन बाधों में समाई हिमाचल की जमीन के एवज में भी हमारा विस्थापन, वन भूमि पर पुनर्वास का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाया। ऐसे में बढ़ते विस्थापन ने मजबूरीवश शहरीकरण का अव्यवस्थित रूप से दबाव बढ़ा दिया है।
प्रदेश को बचाने के लिए कम से कम छह सेटेलाइट टाउनशिप अलग-अलग दिशाओं में बसाने होंगे और इनके लिए वन भूमि का इस्तेमाल लाजिमी है। इसके अलावा प्रशासनिक शहरों के मध्य कर्मचारी नगर बसाने पड़ेंगे। पूरे हिमाचल को टीसीपी कानून के आदर्शों में बांधने की जरूरत है और इसके लिए नागरिक समाज को नव निर्माण की आचार संहिता का पालन करना पड़ेगा। शिमला से राजधानी बदलने का विमर्श खड़ा करके हम मसले की गंभीरता को हल्का ही करेंगे, जबकि प्रदेश को बनते-बिगड़ते मौसम की चपेट से बचाने के लिए आचार संहिता, आत्मानुशासन, नए संकल्प और विकल्पों को अंगीकार करना होगा।
Rani Sahu
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