सम्पादकीय

कश्मीर रट छोड़ें शहबाज शरीफ

Subhi
13 April 2022 3:46 AM GMT
कश्मीर रट छोड़ें शहबाज शरीफ
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पाकिस्तान में जिस संसदीय तरीके से संविधान का सम्मान करते हुए सत्ता परिवर्तन हुआ है और ‘आइन शिकन’ इमरान खान को बाहर का रास्ता दिखाया गया है उससे लोकतान्त्रिक देशों में इस मुल्क की इज्जत में बेहतरी तो आयी है

आदित्य चोपड़ा: पाकिस्तान में जिस संसदीय तरीके से संविधान का सम्मान करते हुए सत्ता परिवर्तन हुआ है और 'आइन शिकन' इमरान खान को बाहर का रास्ता दिखाया गया है उससे लोकतान्त्रिक देशों में इस मुल्क की इज्जत में बेहतरी तो आयी है मगर इसके साथ यह भी साबित हो गया है कि पाकिस्तान में जम्हूरी रवायतों की इज्जत को खुद इसके सियासत दां ही पैरों तले रौंदने में अपनी शान समझते हैं। पाकिस्तानी राष्ट्रीय एसेम्बली के इजलास में जिस तरह इसके अध्यक्ष जनाब कैसर और उपाध्यक्ष कासिम खां सूरी ने सभापति के आसन पर विराज कर संसदीय संविधान और अपने पद की गरिमा की धज्जियां उड़ाई वह सिर्फ पाकिस्तान जैसे 'इस्लामी लोकतान्त्रिक देश' में ही हो सकता था। मगर इससे भी ऊपर जिस तरह अपनी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने पर नये प्रधानमन्त्री मुस्लिम लीग (नून) के मियां शहबाज शरीफ की नई हैसियत को पामाल करने की कोशिश अपने औहदे से हटाये गये इमरान खान ने की उससे दुनिया में यही पैगाम गया कि इस मुल्क को लोकतन्त्र की रवायतों का एहतराम करने के काबिल बनने में अभी बहुत वक्त लगेगा। इससे पूरी दुनिया में एक बेहद गंभीर सन्देश यह भी गया कि ऐसी अराजकता के साये में जीने वाले पाकिस्तान के पास परमाणु बम जैसा विनाशक अस्त्र भी है। जिस देश में बाजाब्ता तौर पर कायदे-कानून के तहत हटाये गये वजीरेआजम को ही अपने मुल्क के संविधान का 'पास'नहीं है और उसके आगे अपने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक की भी कोई अहमियत नहीं है तो वह जमीन दहशत गर्दों की जन्नत क्यों न बने?बहरहाल पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन हकीकत है और भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने मियां शहबाज शरीफ को बधाई सन्देश भेज कर साफ कर दिया है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आपसी प्रेम व भाईचारे के साथ रह कर ही इस क्षेत्र की तमाम जनता की दिक्कतें दूर की जा सकती हैं। श्री मोदी ने अपने पैगाम में आतंकवाद को समाप्त कर आपसी भाईचारा कायम करने की ताकीद भी की है। श्री शहबाज शरीफ पूर्व प्रधानमन्त्री श्री नवाज शरीफ के छोटे भाई हैं और तीन बार पाकिस्तानी पंजाब के मुख्यमन्त्री भी रह चुके हैं। उनकी छवि एक योग्य प्रशासक की है जिससे उम्मीद बंधती है कि इमरान खान पाकिस्तान को जिस लावारिस और मुफलिस हालत में छोड़ कर गये हैं उसमें कुछ तब्दीली आयेगी मगर श्री शरीफ ने राष्ट्रीय एसेम्बली में अपने प्रधानमन्त्री चुने जाने के तुरन्त बाद जो बयान दिया उस पर गौर करने की जरूरत है। श्री शरीफ ने इस बयान में कश्मीर का जिक्र किया और कहा कि 'भारत से हम अच्छे ताल्लुकात चाहते हैं मगर वे तब तक ठीक नहीं हो सकते जब तक कि कश्मीर की समस्या का हल न हो जाये' । इस बारे में शरीफ साहब को समझना होगा कि पाकिस्तान चाह कर भी जम्मू-कश्मीर में अपने आक्रमणकारी होने की स्थिति को नहीं बदल सकता इशलिए मांझी ( अतीत) में जो गल्तियां पाकिस्तान करता रहा है उसमें सुधार और संशोधन की जरूरत वक्त का तकाजा है जिससे पाकिस्तान की नई नस्लें बदलते समय की तरक्की के साथ हम कदम हो सकें। पिछले 74 सालों से कश्मीर राग अलापते हुए पाकिस्तान ने भारत से चार युद्ध लड़े और हर युद्ध में ही जबर्दस्त मुंह की खाई। यहां तक कि इसी रंजिश के चलते वह 1971 में अपने दो टुकड़े भी करा बैठा और पूर्वी पाकिस्तान 'बांग्लादेश' बन गया। मगर पाकिस्तान इतना सब होने के बावजूद कश्मीर पर यदि आज भी अटका रहता है तो इसे सिवाय 'खब्त' के दूसरा नाम नहीं दिया जा सकता। 15 अगस्त 1947 को जो पाकिस्तान तामीर में आया था उसमें जम्मू कश्मीर शामिल नहीं था और इस साल के अक्टूबर महीने में उसकी फौजों ने कबायलियों के भेष में कश्मीर पर हमला किया था तब इस रजवाड़े के महाराजा हरिसिंह ने अपनी पूरी रियासत का भारतीय संघ में उसी तरह विलय किया था जिस तरह भारत की अन्य रियासतों ने। मगर तब एेतिहासिक गलती यह हो गई थी कि उस समय के भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू पाकिस्तानी आक्रमण का मसला राष्ट्रसंघ में लेकर चले गये थे और कश्मीर मुक्ति अभियान में लगी भारतीय सेनाओं को युद्ध विराम करना पड़ा था। यह एेसी हकीकत है जिसे कोई भी इतिहासकार झुठला नहीं सकता है। मगर इसके बाद खुद पाकिस्तान ने ही मार्च 1948 में बलूचिस्तान में अपनी सेना भेज कर पाकिस्तान का हिस्सा बनाया था और रियासत 'कलात' के खान साहब से पाकिस्तान ने विलय पत्र पर जबर्दस्ती दस्तखत कराये थे और यह मामला राष्ट्रसंघ में नहीं गया था जबकि 15 अगस्त 1947 से पहले खुद मुहम्मद अली जिन्ना ने बलूचिस्तान को एक स्वतन्त्र देश माना था और कराची में इसका राजदूत भी था। चुंकि बलूचिस्तान में कुछ अन्य रियासतें भी थी अतः 1956 तक इस इलाके को अमेरिका की तरह ही 'संयुक्त राज्य बलूचिस्तान' (युनाइटेड स्टेट्स आफ बलूचिस्तान) कहा जाता था और इसका अलग झंडा भी था।संपादकीय :केसरी क्लब में मौजां ही मौजां'अंकल सैम' का बदला रुखमौत के सीवररामनवमी पर साम्प्रदायिक हिंसापाक में कानून का इकबाल !तोहफों की राजनीतिअब वक्त बहुत आगे निकल चुका है और सिन्धु व रावी में बहुत पानी बह चुका है इसलिए नये वजीरेआजम शहबाज शरीफ को भारत-पाक सम्बन्धों की समीक्षा नयी रोशनी में करनी चाहिए उनके मुल्क को जिस कंगाली में इमरान छोड़ कर गये हैं उस पर गौर करना चाहिए। क्या कयामत है कि इमरान खान ने अपनी दौरे हुकूमत में पूरी दुनिया से इतना कर्ज उठा लिया जितना इसके इतिहास के पिछले 89 सालों में उठाया गया था। मरहूम लियाकत अली खां से लेकर इमरान खान के सत्तानशीं होने तक पाकिस्तान ने कुल कर्जा 25 हजार अरब रुपए का लिया था जबकि हुजूरेवाला खान साहब ने साढ़े तीन साल में ही 20 हजार अरब रुपए का कर्ज लेकर आम पाकिस्तानी का सिर कर्जे में दबा दिया। क्या 'रियासतें मदीना' का ख्वाब था कि पहले 48 रुपए किलो के हिसाब से चीनी पाकिस्तान से बाहर निर्यात की गई और बाद में उसी चीनी की 100 रुपए किलो के हिसाब से मुल्क में आमद (आयात) की गई। इसी तरह गेहूं का भी कारोबार किया गया। शहबाज शरीफ साहब को कश्मीर की रट छोड़ कर पाकिस्तान की आम अवाम की खैरियत देखनी चाहिए और पूरी कौम को जहालत से बाहर निकालना चाहिए।

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