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यह मत कहना कि खाल तो भेडि़ए की होती है। याद रखना भेडिय़ा, भेडिय़ा होता है
पूस की भरी ठंड में, मैं रजाई में ऐसे दुबका बैठा था मानो किसी सरकारी बाबू की जेब में इन्कम टैक्स से बचे नोट महंगाई के डर से एक-दूसरे के पीछे छिपने की कोशिश कर रहे हों। ऐसी भीषण ठंड के बावजूद हाजी $कौल पौ फटते ही मेरे घर आ धमके। भीतर घुसते ही बोले, "अमाँ यार! भेड़ और भाड़ में क्या फर्क होता है? मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, "भीड़ और भाड़ होता है, भेड़ और भाड़ नहीं। वह हँसते हुए बोले, "एक तो तुम भारतीय बिना कुछ सोचे बकने लगते हो और समझते हो कि दुनिया में तुमसे समझदार कोई नहीं। तुम लोग कभी लंका की चढ़ाई के लिए विभीषण से पुल बँधवाने लगते हो तो कभी नालों से कुकिंग गैस निकालने लगते हो। सोचता हूँ जो मुना$फा$खोर कमाने के चक्कर में इन्सानियत की हड्डियाँ तक निकालने पर उतारू हो जाते हैं; उन्होंने अभी तक देश को बड़े नाले में तबदील क्यों नहीं किया। रही बात भेड़ों की, वही बेचारी तो भाड़ में जाती है। मौज तो सियार और भेडिय़े ही उड़ाते हैं। मैं खिसियाहट समेटते हुए बोला, "तो भीड़ कहाँ जाती है? हाजी $कौल अब गंभीर हो चले थे, "अमाँ! कभी तो भेड़ की खाल से बाहर निकलो।
यह मत कहना कि खाल तो भेडि़ए की होती है। याद रखना भेडिय़ा, भेडिय़ा होता है। वह सत्ता में रहे या सत्ता से बाहर। गुलामी में जिए या आज़ादी में। भेडिय़ा जानता है, भेड़ों का शिकार कैसे करना है। कहावतों में भले भेड़ें काली और स$फेद हों। कटती भेड़ें ही हैं। भेडि़ए, भेड़ों में ही पैदा होते हैं। तुम्हें कितने सिर याद हैं, जिन्होंने गुरबत से ऊपर उठने के बाद भेड़ों का शिकार न किया हो। आदमी की फतरत ही ऐसी है कि नई ज़मात में शामिल होने के बाद पुरानी भूल जाता है। भेड़ों की कस्मत में भीड़ होने के बाद भाड़ में जाना तय है। ऊन निकालते व$क्त भेडि़ए चाहे उनकी खाल में छेद क्यों न कर दें; लेकिन घास मिलते ही फिर मस्ती में चरने लगती हैं। तेल, रसोई गैस और किराने की कीमतें आसमान छू रही हैं। लेकिन तेल पर दस रुपए कम होते ही, भेड़ें फिर भीड़ हो गईं। कई बार लगता है, 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता कहावत, 'अकेली भेड़ भीड़ नहीं हो सकती होनी चाहिए थी। बेचारी अकेली हो या दुकेली या सैंकड़ों में, भाड़ में जरूर जाती हैं।
अगर एक भेड़ गड्ढे में गिरे तो बाकी बिना सोचे-समझे एक-दूसरे पर गिरने लगती हैं। गणेश के दूध पीने की घटना तुम्हें अवश्य याद होगी। ताली-थाली और दीये तो तुमने दो साल पहले ही बजाए और जलाए हैं। लाखों लोग कोरोना काल में अपने घरों के लिए हिजरत कर सकते हैं। लेकिन कोई सवाल नहीं कर सकता। यह तो देशद्रोह हो जाएगा या अवतारी बाबा की शान में $गुस्ता$खी माना जाएगा। सबकी नज़र बस अपने घास के ग_र पर ही होती है। सियार कहीं बाहर से नहीं आते। जो भेड़ें कोशिशों के बावजूद भेडिय़ा नहीं बन पातीं, वे बीच की हो जाती हैं। मौके के अनुसार जब तबीयत हुई, रंग बदल लिया। सियारों ने अब 'हुआ-हू, हुआ-हू करना छोड़ दिया है। इसकी जगह अब वे 'जय हो, जय हो हूकने लगे हैं। बोली एक ही रहने से भले दरबार बदलते रहें, उनकी पाँचों सदा घी में और सिर कड़ाही में रहता है। लेकिन भेडिय़ों में गला काट स्पर्धा है। वहाँ सदा अस्तित्व की लड़ाई चलती रहती है। कुछ चार पीढिय़ों से भेड़ों की सेवा कर रहे हैं और कुछ बाड़े अर्थात् देश की रक्षा के लिए सालों तक सत्ता में बने रहना चाहते हैं। लेकिन भेड़ें अब भी मिमिया रही हैं। इतना सुनने के बाद मुझे लगा कि मैं भी भेड़ हो गया हूँ, और सालों से सरकारी (बाड़े) सेवा में अपने आपको सुरक्षित मान कर, मिमियाता घूम रहा हूँ।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Gulabi
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