सम्पादकीय

बिखरते शिक्षा प्रांगण

Rani Sahu
6 Jun 2023 7:05 PM GMT
बिखरते शिक्षा प्रांगण
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By: divyahimachal
जिन आशाओं से हिमाचल में शिक्षा का कारवां आगे बढ़ा, उनकी गर्दन आज अगर झुक रही है, तो यह शिक्षा के विमर्श को अति संवेदनशील बनाता है। चबूतरे पर रखे हिमाचल के कई विश्वविद्यालय खास तौर पर शिमला यूनिवर्सिटी का लुढक़ना न ताज्जुब पैदा कर रहा है और न ही हुक्मरान हैरान हैं। राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) का वार्षिक मूल्यांकन हिमाचल में शिक्षा की पद्धति पर बुलडोजर चला देता है। हैरानी यह कि शिमला विश्वविद्यालय देश के टॉप 200 संस्थानों में स्थान पाने से महरूम है, तो मंडी, केंद्रीय तथा तकनीकी विश्वविद्यालय तो मुंह दिखाने के भी काबिल नहीं। हम कृषि व बागबानी विश्वविद्यालयों की वजह से भले ही नाक बचा लें या आईआईटी मंडी को आशा भरी निगाहों से देख लें, लेकिन एनआईटी हमीरपुर का उजड़ता इतिहास अब हमें उलाहना देने लगा है। निजी विश्वविद्यालयों में शूलिनी का टॉप सौ में बने रहना अपने आप में सुखद है, वरना जिस तरह हिमाचल को शिक्षा का हब बनाने का शोर मचा था, वह सियासी मंचन की खुशफहमी में ढह गया। शिक्षा में पाने के बजाय प्रदेश वह आधार भी खो चुका है, जिसकी बदौलत हिमाचल ने आरंभिक सफलताओं के झंडे गाड़े थे। मसला शिमला विश्वविद्यालय के पतन से शुरू होकर तमाम कालेजों के प्रांगण में बिखर चुका है। क्या शिमला के मुकाबले केंद्रीय विश्वविद्यालय या तकनीकी विश्वविद्यालय नया कुछ कर पाए या इन संस्थानों की जरूरत पूरी हो गई। पिछली सरकार का कमाल यह भी कि मंडी विश्वविद्यालय की रूपरेखा में राजनीतिक तिजोरी में एक और नगीना सजा दिया गया। दरअसल सरकारी शिक्षण संस्थान सियासी प्रयोगशाला के रूप में अपना अस्तित्व भांज रहे हैं। शिमला विश्वविद्यालय के अध्यायों में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और बदलती सत्ताओं के अंतर्विरोधों ने इतने पन्ने काले कर दिए हैं कि लौटकर शिक्षा की पुरानी राहों पर चलना मुश्किल हो चुका है।
शिमला विश्वविद्यालय जब गर्त में डूब रहा था, तब भी किसी का सूर्य क्षितिज पर चढ़ रहा था। हम यह मूल्यांकन तो कतई नहीं कर सकते कि पूर्व कुलपतियों को किस तरह याद किया जाए। क्या प्रो. सिकंदर कुमार बतौर कुलपति ज्यादा बेहतर रहे या अब बतौर सांसद उनका मुकाम रास आ रहा है। कभी एडीएन वाजपेयी एक बड़ा विजन लेकर आए और दो बार बतौर कुलपति चल गए। क्या उनके दौर में विश्वविद्यालय भी चला। शिक्षा का सच भी यही है कि नए संस्थान खुलते हैं तो राजनीति चल जाती है। विश्वविद्यालय खुलते हैं तो कुलपति और प्रोफेसर चल जाते हैं। विडंबना यह है कि इतनी तादाद और हिमाचल की क्षमता से कहीं अधिक शिक्षण संस्थान खोलकर भी शिक्षा की क्वालिटी के लिए बच्चों को आज भी प्रदेश से बाहर चलना पड़ता है। यही वजह है कि हिमाचल के अति योग्य छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध कालेजों को अपने भविष्य से जोड़ रहे हैं। पड़ोस के पंजाब, गुरु नानक व कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालयों के साथ-साथ देश-विदेश के नामी निजी विश्वविद्यालयों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। किसी भी शिक्षण संस्थान के रैंकिंग में नीचे गिरने के दोषी छात्र नहीं हो सकते, बल्कि फैकल्टी, शैक्षणिक वातावरण तथा प्रवेश की सार्थकता से दूर होने की वजह ऐसी स्थिति पैदा कर रही है। जिस प्रदेश में शिक्षा को सरकारी नौकरी का जरिया बना दिया हो, वहां सोच नहीं, नौकरी के उत्पाद ही तो तैयार होंगे और यह एक अलग तरह का कॉकस बना चुका है, जो सरकारी भर्तियों में पेपर लीक करने को उपलब्धि मानता है।
जिस प्रदेश में सरकारी नौकरी की दुकानदारी में शिक्षा केवल औपचारिक डिग्री बन चुकी हो, वहां क्या काबिलीयत और क्या प्रतिस्पर्धा। जिस राज्य में उच्च शिक्षा अपने शोध, अध्ययन व नवाचार से पारंगत न होती हो, उसके शैक्षणिक संस्थानों में कैसे जागृति आएगी। जहां हर मुख्यमंत्री अपने-अपने इलाके में एक अदद विश्वविद्यालय की बुर्जी लगाना चाहता हो, वहां राज्य के प्रतिष्ठित संस्थान कैसे बनेंगे। प्रदेश मेडिकल यूनिवर्सिटी बनाकर भी अगर मरीजों का इलाज नहीं कर पा रहा है, तो राष्ट्रीय रैंकिंग तो छोडि़ए, राज्य की रैंकिंग में भी कबाड़ ही साबित होंगे। तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद या तो नाकाबिल इंजीनियर बढ़ गए या इंजीनियरिंग कालेज ही बंद हो गए। अगर हर कालेज को पोस्ट ग्रैजुएट ही होना है, तो विश्वविद्यालयों की जरूरत क्यों। दरअसल बिना किसी मानदंड, सर्वेक्षण और जरूरत के शैक्षणिक संस्थानों के आबंटन में सियासी चौधराहट रहेगी, तो पतन की हर राह पर कोई न कोई कालेज या विश्वविद्यालय तो मिलेगा ही।
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