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- शरीफों वाली बोगी
अश्विनी भटनागर: मुझे देहरादून से लखनऊ फौरन लौटना था और जनता एक्सप्रेस में सिर्फ सेकंड क्लास स्लीपर में एक बैठने वाली सीट उपलब्ध थी। यात्रा करना आवश्यक था, इसलिए जो मिला, उसी को ले लिया। ट्रेन में अच्छी-खासी भीड़ थी। जिनका रिजर्वेशन था वे तो चढ़ ही रहे थे, पर उनके मुकाबले बिना रिजर्वेशन वाले ज्यादा थे। टिकट कलेक्टर ने कुछ देर लोगों को चढ़ने से रोकने की कोशिश की, पर उनकी जिरह से झल्ला कर फर्स्ट क्लास की बोगी की तरफ चला गया।
मेरे सामने वाली नीचे की सीट पर ऊंचा पैजामा और कमीज पहने एक व्यक्ति आकर बैठ गया। उसके साथ बुर्के में महिला थी, जो एक तौलिए का बंडल अपने हाथों में सहेजे हुए थी। उन्होंने सामने वाली नीचे की बर्थ पर सोने के लिए चादर, तकिए लगा लिए। महिला ने लेटते वक्त अपने ऊपर एक और चादर डाल ली।
ट्रेन के चलने से कुछ मिनट पहले चार आदमी हड़बड़ाते हुए डिब्बे में घुसे। उनके पास कई बड़े-बड़े गट्ठर थे, जिन्हें उन्होंने डिब्बे के गलियारे में डाल दिया। एक गठरी उन्होंने मेरे सामने वाली बर्थ के बीच में भी रख दी और फिर वे चारों उन पर बैठ गए। मैंने गलियारे के अतिक्रमण पर थोड़ा एतराज जताया, पर उनमें से एक ने हाथ जोड़ कर विनती की, भाई साहेब, तकलीफ के लिए माफी, पर थोड़ा एडजस्ट कर लीजिए प्लीज… हम बिजनौर में उतर जाएंगे… व्यापारी हैं, खरीदारी करने देहरादून आए थे…। उसका कातर आवेदन सुन कर मैंने अपने पैर और सिकोड़ लिए। उसने एक विजयी मुस्कान अपने साथियों की तरफ फेंकी और वे चारों गांठों पर चौकड़ी मार कर बैठ गए।
मेरे सबसे नजदीक जो व्यक्ति बैठा था, वह लगभग चालीस बरस का था और उन चारों में सबसे उम्रदार था। वक्त के सहज हाथों ने उसके सिर को ऐसा सहलाया था कि उसके बाल उड़ गए थे। उसका पूरा गंजा सिर ट्रेन की हल्की पीली रोशनी में दमक रहा था। उसके सामने एक नौजवान बैठा था, जिसकी मूछें राणा प्रताप जैसी थीं। गांठ पर बैठते ही उसने अपनी मूंछों को बड़े ताव से कई बार उमेठा था। मूंछें अभी इतनी नोकदार नहीं हुई थीं कि उन पर नींबू टिकाया जा सके, पर वह उन्हें नुकीला बनाने के जतन में पूरे उत्साह से लगा हुआ था। मूंछें तो उसने उगा ली थी, पर उसकी आखों में रौब नहीं था। वे थकी, मरी हुई-सी थीं।
तीसरा आदमी मर्दवाली निचली बर्थ से टिका हुआ था। उसकी भरपूर तोंद की वजह से उसको सहारे की बेहद जरूरत थी। चौथा व्यक्ति बर्थों के बीच में पड़े सामान पर बैठा हुआ था। वह शायद पचीस-तीस साल का होगा और इतना गोरा था कि उसको देख कर छिले हुए अंडे का खयाल जबरन मन में उठ गया था।
कुछ अजीब-सी खुसफुसाहट ने मुझे जगा दिया। तोंदू ने पत्तों से अपने होंठ ढक रखे थे। वह फुसफुसा रहा था- देख देख… उसकी उत्साहित आंखें बर्थों की तरफ इशारा कर रही थीं। गंजा उसके इशारे की डोर पकड़ कर दूसरी तरफ मुखातिब हो गया। मुच्छड़ की आंखें चमक रही थीं। बेचारा अंडा परेशान था, क्योंकि जिस तरफ इशारा किया जा रहा था, वह जगह ठीक पीठ पीछे थी।
मैंने बर्थ की तरफ निगाह दौड़ाई। औरत अपने बच्चे को स्तनपान कराते-कराते सो गई थी और नींद में करवट लेने की वजह से उसका एक स्तन उघड़ गया था। भरा-पूरा, झक सफेद स्तन काले बुर्के के बीच में सिर उठाए पहाड़-सा खड़ा था। उसको देखते ही मेरे मन में सनसनी दौड़ गई, पर तुरंत साहनुभूति जाग गई। कच्ची उम्र की अल्हड़-सी लड़की थी, हालात का तकाजा था कि उसको फिर से ढंक दिया जाए।
मैं अपनी सीट से उठने लगा, पर गंजे ने मुझे वापस धकेल दिया और मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया।
बवाल हो जाएगा अगर आप उसके पास गए… वह फुसफुसाया, अगर वह आदमी जाग गया, तो समझेगा कि आप गलत हरकत कर रहे थे। बैठे रहिये…
बाप रे बाप, तोंदू दबी जुबान में बोला, क्या माल है। मक्खन मलाई का पहाड़ है। आंखें तृप्त हो गई हैं…
मुच्छड़ अपनी मूंछें ऐंठने लगा। हर बल पर उसकी आंखें चौड़ी होती जा रही थीं। मन कर रहा है, नोंच लू। बस, अब नहीं रहा जा रहा है…
अंडा मुड़ने की कोशिश कर रहा था, पर उसकी नजर ठीक से निशाने पर पहुंच नहीं पा रही थीं। तुम साले मौज ले रहे हो, उसने झल्ला कर कहा, और मैं यहां फंसा हुआ हूं। हे भगवन, तुम मेरे साथ ही क्यों नाइंसाफी करते हो।
चारों हाथ में पकड़ी ताश को भूल कर, जड़ हुए बैठे थे, पर उनकी आंखें चपल हो गई थीं। वे बार-बार दौड़ कर वक्ष पर जाती थीं और अपने को सान कर इशारेबाजी में उड़ेल देती थीं।
यह गलत है, मैंने उनसे कहा। आप लोग उधर मत देखिए। ताश खेलिए।
चारों की हंसी फूट पड़ी। गंजा मेरी तरफ हाथ जोड़ कर बोला, आप महान हैं। सब मुंह पर हाथ रख कर फिर हंसने लगे।
अबे देख, तोंदू घबरा कर बोला, ये साली मक्खी कहां से आ गई। सत्यानाश हो इसका।
एक मोटी मक्खी स्तन के ऊपर लहरा रही थी। चारों लोग सांस रोके हुए थे। अगर वह स्तन पर बैठ गई तो जाग जाएगी। खेल खत्म हो जाएगा।
हुश्श हुश्श… मुच्छड़ ने हाथ हिला कर मक्खी भागने की कोशिश की। अचानक हवा का एक झोंका आया और मक्खी को उड़ा ले गया। सबने राहत की सांस ली ही थी कि मक्खी फिर से स्तन पर मंड़राने लगी। चारों का तनाव लौट आया। अंडा बेचैन होकर खड़ा हो गया था और पूरी तरह मुड़ कर खुले वक्ष को घूरने लगा। वह बार-बार अपनी मुठ्ठी बंद-खोल रहा था। उसका तनाव साफ जाहिर था।
मैं फौरन अपनी सीट से लपका और मर्दवाली बर्थ पर पहुंच गया। मैंने उसको घुटने से पकड़ कर हिला दिया। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। मैंने सामने वाली बर्थ की तरफ इशारा किया। उसने जल्दी से औरत को ढक दिया।
शुक्रिया भाई साहेब, उसने हम पांचों से कहा, बड़ा एहसान आपका। आप जैसे शरीफ लोग आजकल कहां मिलते हैं। ऊपर वाला आप लोगों को ताउम्र सलामती बख्शे। चारों के खुले पत्ते गांठ पर पड़े हुए थे। मैंने उनको समेट कर डिब्बे में बंद कर दिया।