सम्पादकीय

अपने पन्नों के भीतर शांता कुमार

Rani Sahu
25 Sep 2021 6:44 PM GMT
अपने पन्नों के भीतर शांता कुमार
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शांता कुमार को पढऩे के लिए उनके सृजन संसार में डूबना कितना जरूरी रहा होगा

शांता कुमार को पढऩे के लिए उनके सृजन संसार में डूबना कितना जरूरी रहा होगा, यह डा. हेमराज कौशिक की ताजा पुस्तक 'साहित्य सेवी शांता कुमार के पन्नों पर बिखरा उनका कृतज्ञ अनुराग बताता है। किताब एक तरह से लेखक की अपनी कसौटियों में साहित्यिक परिमार्जन भी है, जहां शोधार्थी या समीक्षक अपनी विधाओं में इजाफा कर सकते हैं। लेखन की भाव-भंगिमाओं के विश्लेषण को पूरा करने के प्रयास में कौशिक अपने निजी आग्रह को भले ही दूर न कर पाए, लेकिन यह किताब एक पुष्पगुच्छ की तरह शांता कुमार के जीवन वृत्तांत को महका देती है। उपन्यास के जन्म को समझना, विषय वस्तु में उतरना और लेखक की निगाहों को पढऩा, डा. कौशिक जैसे व्यक्ति की साधना का अति गहरा पक्ष है। यह उस यज्ञ की आहुति सरीखा प्रयास है, जो पूर्णता के फलक पर औचित्यपूर्ण, सटीक और संतृप्त दिखाई देता है।

शांता कुमार पर लेखक का अध्ययन असाधारण शोध के ऐसे पन्ने लिख पाया है, जिससे कई उपन्यासों के भीतरी पात्र चलते-फिरते व्यक्तित्व गढ़ लेते हैं। वह उपन्यास 'मन के मीत और 'कैदी की भीतरी तहों में शांता कुमार के यथार्थवादी दृष्टिकोण की समीक्षा करते हुए, उनके पात्रों की रचना में ईमानदार पक्ष देखते हैं। कैद की चीखों से उपजे मनोवेग और कहीं घात लगाकर बैठी मानवीय संवेदना की चौकस पलकें, जैसे घूंघट उठाकर खुद को ही पढ़ रही हों। उपन्यास 'लाजो में विधवा पुनर्विवाह की वकालत में संजोए पक्षों में झांकती लेखनी के ग्राम्य और जातीय संदर्भ मानो आजादी की टहनियों पर टहल रहे हों। लेखक 'लाजो के साथ अपनी संवेदना जोड़कर भले ही अतिरंजना कर देते हैं, लेकिन इस बहाने उनकी समीक्षा से कोई न कोई 'लाजो पाठक के समीप आकर खड़ी हो जाती है।
पुस्तक एक तरह से शांता की लेखनी के प्रति आस्था प्रकट करती है, इसलिए यहां लेखन का आदर्शवाद पैदा होता है और जिसे हम 'मृगतृष्णा, 'वृंदा या कई कहानियों में भी खोज सकते हैं। किताब अपने वादे के मुताबिक इसके शीर्षक को सार्थक करती और राष्ट्रीय फलक की कई मृगतृष्णाओं को तोड़ती हुई बताती है कि शांता का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं की ईमानदार कोशिश में छुपा है और इस तरह हर उपन्यास एक तरह से राष्ट्रीय सच का सामना है।
जीवन की निराशा, अवसाद और सामाजिक विडंबनाओं से खंडित होता इनसान किस तरह व्यवस्था के चौखट पर बिलखता है या आजाद भारत की महत्त्वाकांक्षाओं के भीतर कितनी 'मृगतृष्णा है, इसके जख्म लिए कोई कहानी अगर वास्तविकता को ओढ़ लेती है, तो सामाजिक व राजनीतिक चेतना के शब्द मुगालते में नहीं रहते। हिमाचली परिवेश का कथानक जितनी सरलता से पर्यावरण और प्रकृति से रूबरू होता है, उससे 'वृंदा जैसा उपन्यास जन्म लेता है। पुस्तक के भीतर लेखकीय सरोकार इतने तरल व सरल हैं कि कई पंक्तियां यह आभास करा देती हैं, जैसे स्वयं शांता कुमार ही अपने उपन्यासों का विवरण दे रहे हों। पुस्तक एक तरह से शांता के सृजन का महासागर और उनकी संवेदना का बांध समेट कर आग्रह करती है कि आइए इसमें डूब जाइए। 'ज्योतिर्मय संग्रह की सत्रह कहानियों की रूह पकड़ते डा. कौशिक, शांता कुमार को जयशंकर प्रसाद की परंपरा से जोड़ देते हैं। वह उनके कवि हृदय को टटोलते हुए 'ओ प्रवासी मीत मेरे संग्रह के बीच से उछलती-कूदती और फांदती कविताओं का स्पर्श करते हैं, तो अतीत खुद चलकर आज में कुछ यूं समाहित हो जाता है, 'हर मंच पर कसम खाने वालो, पहरेदारो! गरीब की आंख का पानी पूछ रहा है, तुम कहां हो? राजनीति के घटिया खिलाडिय़ो! अब संभल जाओ, यह खेल बहुत हो गया। शांता कुमार के समग्र लेखन पर डा. हेमराज कौशिक एक छात्र, एक पाठक, एक समीक्षक और एक शोधार्थी तो हैं ही, लेकिन वह अपने लेखन से शांता कुमार का राजनीतिक इतिहास समेट कर उन्हें पूरी तरह साहित्य की श्रेष्ठता का दूत बना देते हैं। किताब पढऩे के बाद पाठक यह याद नहीं कर पाएगा कि शांता कुमार सियासत से लिपट कर भी कितने अकेले और कितने गहरे तक साहित्यकार हैं।
– निर्मल असो
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