सम्पादकीय

शंभूनाथ आजाद : जिन्होंने दक्षिण में क्रांति फैलाई, जेल में भूख हड़ताल और बैरक के नारकीय दमन के खिलाफ

Rounak Dey
12 Aug 2022 1:48 AM GMT
शंभूनाथ आजाद : जिन्होंने दक्षिण में क्रांति फैलाई, जेल में भूख हड़ताल और बैरक के नारकीय दमन के खिलाफ
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1985 की तारीख बार-बार मेरे भीतर कौंधती रही, जब आगरा के सरोजिनी नायडू अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली थी।

कचौरा घाट (बाह), आगरा की गंवई बस्ती अपने अजेय क्रांतिकारी शंभूनाथ आजाद को अब भूल चुकी है, जिन्होंने 1931 में लाहौर की बोर्स्टल जेल में अपने कुछ साथियों के साथ सिविल ऐंड मिलिटरी गजट में मद्रास प्रांत के अंग्रेज गवर्नर का दंभपूर्ण भाषण प्रकाशित होने पर दक्षिण भारत में क्रांति करने का फैसला किया था। वहां क्रांतिकारियों का पहला जत्था नवंबर, 1932 में, दूसरा फरवरी, 1933 में तथा तीसरा अप्रैल, 1933 में पहुंचा।




25 अप्रैल, 1933 की दोपहरी में मद्रास के उटकमंड बैंक में पुलिस के वेश में बन्ता सिंह, नित्यानंद वात्स्यायन, बच्चूलाल, खुशीराम मेहता और रत्नम् के साथ उन्होंने धन की लूट की। नित्यानंद ने पुलिस सब-इंसपेक्टर पर गोलियां चलाईं, जिससे वह घायल हो गया। फिर भी वह पकड़ लिए गए। उसके बाद मेहता भी गिरफ्त में आ गए, पर बन्ता सिंह और बच्चूलाल पुलिस पर फायर करते हुए बच निकले। बावजूद इसके तीसरे दिन पुलिस ने उन्हें धर-दबोच लिया।


बन्ता सिंह को 38 साल की सजा देकर बिल्लारी केंद्रीय कारागार में डाल दिया गया, जहां से वह आगे चलकर 'मद्रास सिटी बम केस' के क्रांतिकारी इंद्र सिंह गढ़वाली उर्फ प्रेमप्रकाश मुनि को लेकर भाग निकले, पर चौथे रोज हैदराबाद के निकट उन्हें पकड़ लिया गया। इसके बाद दोनों को बच्चूलाल के साथ अंडमान की सेल्यूलर जेल में भेज दिया गया। बच्चूलाल को 38 साल की काले पानी की सजा दी गई, जहां रहते हुए वह विक्षिप्त हो गए।

साथी रोशनलाल मेहरा रायपुरम क्षेत्र के निकट समुद्र तट पर बम परीक्षण करते हुए शहीद हुए। गिरफ्तारी से बचे शंभूनाथ आजाद, इंद्र सिंह गढ़वाली, हीरालाल कपूर और गोविंदराम बहल किसी तरह मद्रास शहर से बाहर निकलना चाहते थे। इसी कोशिश में चार मई, 1933 की दोपहर तंबू चैट्टी स्ट्रीट के एक घर में पुलिस से उनका जबर्दस्त मुकाबला हुआ। क्रांतिकारियों के पास बचा एक बम शंभूनाथ आजाद के हाथ में था।

हीरालाल कपूर से कहा गया कि ज्यों ही पुलिस दल मकान के नीचे आ जाए, वे संकेत करेंगे, पर अंधाधुंध पुलिस फायरिंग से विचलित हो वह समय से पूर्व ही इशारा कर बैठे, जिससे चार-छह सिपाही ही घायल हुए। 20 साल के गोविंदराम बहल पुलिस की गोलियों से वहीं शहीद हो गए। ऊटी बैंक डकैती तथा मद्रास सिटी बम केस के सभी क्रांतिकारी अंडमान भेज दिए गए। शंभूनाथ आजाद को 25 साल की काला पानी की सजा दी गई।

नित्यानंद वात्स्यायन तथा हीरालाल कपूर को मद्रास की जेल में रखा गया। दक्षिण में जो क्रांतिकारी जान की बाजी लगाकर मुक्ति का सशस्त्र संग्राम छेड़ने गए थे, उनमें से मेरी भेंट दादा शंभूनाथ आजाद से ही हुई। वर्ष 1973 या 74 से ही मैं उनके निकट संपर्क में आ गया था। उन दिनों वह अस्वस्थ भी थे। फिर भी मेरे अनुरोध पर उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन के संस्मरण विस्तार से लिपिबद्ध किए। 26 जनवरी, 1906 को आगरा के कचौरा घाट में एक गरीब किसान परिवार में जन्मे शंभूनाथ अभी किशोर भी नहीं हो पाए थे कि मां-पिता चल बसे।

किसी तरह पले-बढ़े, तो देश की आजादी के संग्राम से जुड़ाव हो गया। सबसे पहले अमृतसर में जो आम हड़ताल हुई थी, उसमें हिस्सेदारी करते हुए वह लाहौर की बोर्स्टल जेल पहुंच गए। उन्होंने 1928 में अमृतसर की नौजवान सभा में और 1929 में अनुशीलन पार्टी में भी कार्य किया। उसी समय क्रांति का जो ताना-बाना बुना, उसके चलते ही वह सात दिसंबर, 1930 को दिल्ली स्टेशन पर पुलिस के हाथ आ गए और आर्म्स ऐक्ट की धारा 20 के अंतर्गत नौ जनवरी को उन्हें लाहौर की बोर्स्टल जेल में डाल दिया गया।

वहीं पर बंदी क्रांतिकारियों के बीच योजना बनी कि छूटते ही दक्षिण में पार्टी का काम किया जाएगा। वह अंडमान से लौटे, तो नैनी जेल में रहे, जहां से 1938 के अंत में रिहा हो सके। अक्तूबर, 1939 में फिर साढ़े चार माह के लिए कैद की सजा। उनसे ही यह जानने को मिला कि बरेली जेल में राजबंदियों पर हो रहे अत्याचारों का विरोध करने पर उन्हें 20 बेंत और छह माह के कठोर कारावास की सजा भुगतनी पड़ी और 1944 में जब रिहा होने का समय आया, तो बरेली जेल के दरवाजे पर ही शासन ने नजरबंद कर उन्हें फतेहगढ़ कारागार भेज दिया।

जेलों में भूख हड़ताल का तो उनके पास जैसे रिकॉर्ड था। मद्रास सेंट्रल जेल और अंडमान की प्रसिद्ध आम भूख हड़ताल में भी वह हिस्सेदार थे। बरेली जेल की गड्ढा बैरक के नारकीय दमन के खिलाफ भी उन्होंने दो-दो माह की अनेक भूख हड़तालें कीं। 1945 में फतेहगढ़ जेल से रिहा हुए, तब भी अपने जर्जर शरीर के साथ वह राजनीतिक कार्यों में संलग्न रहे। वर्ष 1947 के बाद वह साम्यवादी दल के सदस्य बने तथा आगरा-इटावा परिक्षेत्र में सामंतवाद-विरोधी किसान संघर्ष की अगुआई की।

आजादी के बाद देश में वामपंथी रुझान के जितने भी उग्र आंदोलन हुए, उन सबसे उनकी पूरी सहमति थी। पर धीरे-धीरे गिरते स्वास्थ्य, अभाव और कदम-कदम पर संघर्ष ने उनकी जिंदगी को कठिन बना दिया था। फिर क्षय रोग ने घेरा। वर्ष 1961 में उन्हें राजनीति से संन्यास लेना पड़ा। राजनीतिक स्थितियां तब उनके अनुकूल नहीं रह गई थीं। वर्ष 1972 में उन्होंने अपने ग्राम कचौरा में अपने धन से क्रांतिकारी साथियों की याद में 'शहीद स्मारक' बनवाया, जिसमें स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के साथ प्रगतिशील साहित्य की पुस्तकें भी हैं। उस दिन आगरा के कचौरा से लौटते हुए 12 अगस्त, 1985 की तारीख बार-बार मेरे भीतर कौंधती रही, जब आगरा के सरोजिनी नायडू अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली थी।

सोर्स: अमर उजाला

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