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शम्भू मल्लाह : एक मस्तमौला गंगापुत्र की कहानी, जिसकी गायकी से 'फिरंगन' भी मंत्रमुग्ध होती थीं
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| मेरा भी पाला अजब ग़ज़ब लोगों से पड़ा है. जीवन के ये वे मोती हैं जो मानवीय रिश्तों के गहरे सागर में गोता लगाकर पाए जाते हैं. गोता शब्द के प्रयोग से ही मेरी स्मृति की मंजूषा फड़फड़ाने लगी. शिव की नगरी में शम्भू, शम्भू मल्लाह यानि अव्वल किस्म के गोताखोर. धारा के खिलाफ नाव खेने के उस्ताद. सुबह से ही देसी लगाकर गंगा की चिंता करने वाले गंगापुत्र. अपनी धुन के उतने ही पक्के जितना भगवान राम को नदी पार कराने वाले निषादराज. निषादों के आत्मगौरव से लबालब शम्भू अक्सर यह ऐलान करता कि 'कोलंबस' और 'वास्कोडिगामा' भी मल्लाह थे, क्योंकि वे भी नाविक थे. शम्भू संगीत रसिक थे. विदेशी महिला पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय. नाव चलाने के साथ ही वह कजरी और सोहर भी सुनाते थे. बहुत जीवट के केवट थे शम्भू. वैसे तो वह नाव चलाते थे, पर घाट के किनारे होने वाले सारे कारोबार में उनकी दखल थी. अस्सी घाट पर उनकी नाव बंधी रहती थी. शम्भू सरकारी रिकॉर्ड में बतौर अव्वल दर्जे के गोताखोर दर्ज थे. जैसे बिना गंगा के बनारस के घाटों की कल्पना नहीं की जा सकती. वैसे ही घाटों के किनारे बंधी नाव के बिना आप गंगा की कल्पना नहीं कर सकते हैं. काशी के घाटों पर पंडे और मल्लाह समान अधिकार रखते हैं. हालांकि श्मशान घाट पर पूरा अधिकार डोम का होता है. (डोम पर कभी अलग से)
शम्भू मल्लाह की अपनी ही दुनिया थी. वे बिंदास और मुंहफट बनारसी थे. अपने को गंगापुत्र कहते. बनारस में मल्लाह खुद को गंगापुत्र ही कहते हैं. आए दिन शम्भू को पुलिस ढूंढती. इसलिए नहीं कि उन्होंने कोई अपराध किया होता था. वरन इस कारण की पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहीं कोई जल दुर्घटना होती, कोई पानी में डूबता या कुएं में गिरता तो पुलिस को गोताखोरी के लिए शम्भू की ही तलाश रहती. शम्भू घंटों पानी में गोता लगा सकते थे. इस कला में उनके सामने बड़े-बड़े योगाचार्य फेल थे. एक डुबकी लगाते तो घंटा भर पानी के भीतर रह सकते थे. कौन सी साधना उन्होंने की थी, यह किसी को नहीं पता? शम्भू सुबह से ही देसी से तर बतर रहते. उसी देसी तरन्नुम में वे शहर को अपने अंगूठे पर रखते. अपना काम निकलवाने के लिए पुलिसवाले भी काम के वक्त उन्हें 'देसी' उपलब्ध करवाते थे. फिर शम्भू फौरन डुबकी लगाते और पानी के भीतर से लाश या सामान बड़ी आसानी से ढूंढ कर बाहर निकाल लाते.
दुबले, पतले, चीमड़ शरीर वाले शम्भू का रंग चमकता हुआ काला था, लगभग बैंगनी. धूप में तो उनके शरीर पर आंख नहीं टिकती थी. ऊपर से वह अपने पूरे शरीर पर तेल मले रहते. दिन भर पानी और धूप में रहने के कारण उसका रंग उम्र के साथ गाढ़ा होता जा रहा था. शम्भू के इस व्यक्तित्व पर विदेशी महिला पर्यटक लट्टू रहती थीं. शम्भू उन्हें अपनी नाव पर घुमाते. अपना गायन सुनाते और अक्सर उन्हीं के साथ रात में बजड़े पर रुक जाते. बनारस में जो बड़ी नाव होती है उन्हें 'बजड़ा' कहते हैं. इसमें नीचे बैठने की जगह और ऊपर छत होती है. लगभग 'हाउसबोट' की तरह. पर हाउसबोट से यह छोटा होता है. छत पर ही रईस और पर्यटक गद्दा, चांदनी और मसनद लगा नौका विहार करते हैं. बुढ़वा मंगल और गुलाब बाड़ी ऐसे ही कई बजड़े को मिला कर होती थी.
अस्सी और भदैनी के बीच में ही शम्भू का घर था. भदैनी अस्सी के बगल का मुहल्ला है जहां संस्कृत के प्रकांड विद्वान आज भी रहते हैं. जब तुलसीदास अस्सी घाट पर बैठ 'रामचरितमानस मानस' लिख रहे थे तो ये संस्कृत पंडित लोकभाषा में रामचरित लिखने के कारण उनसे इतने नाराज थे कि तुलसीदास का लिखा अक्सर गंगा में फेंक दिया करते. जब तुलसीदास उधर से गुजरते तो उनपर ढेला, पत्थर भी फेंकते. तुलसीदास उस तरफ जाने से डरते, इसलिए तुलसीदास ने उस इलाके को कहा 'भयदायिनी' जो बाद में बिगड़कर कर 'भदैनी' बन गया. शम्भू उसी 'भदैनी' में रहते थे.
कवि केदारनाथ सिंह कहते थे की भदैनी में 'सरवाईव' करना ही सरवाईव करने वाले व्यक्तित्व के असाधारण होने की मिसाल है. बनारस में अस्सी से लेकर राजा घाट तक गंगा के किनारे निषादों की घनी बस्ती है. यहां रहने वाले कोई पचास हजार से ज्यादा निषाद गंगा पर ही आश्रित हैं. उनकी रोजी-रोटी गंगा और घाट के किनारे होने वाली गतिविधियां होती हैं.
शम्भू बनारसी निषादों के प्रतिनिधि चरित्र थे. मस्ती में गाते हुए बिंदास चलते थे. उन्हें किसी की परवाह नहीं थी. काम भी अपनी मर्जी से करते. जब भदैनी से अस्सी घाट की ओर आते तो रास्ते में तुलसी घाट पर महंत वीरभद्र जी का आवास पड़ता. महंत जी सुबह बाहर चबूतरे पर ही बैठते. वीरभद्र जी बीएचयू में 'हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग' विभाग में प्रोफेसर थे. वे संकट मोचन मंदिर के मंहत भी थे. महंत जी तुलसीदास के बनाए अखाड़े में पहलवानी भी करते थे. वे विलक्षण गंगा प्रेमी और बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के वैश्विक हीरो थे. महंत जी संगीत प्रेमी भी थे. गंगा के प्रदूषण को जांचने की उनकी एक प्रयोगशाला भी घाट पर ही थी. शम्भू जब भी उधर से गाते हुए अपनी मस्ती में निकलते तो वह वीरभद्र जी को देखते ही संस्कृत बोलने लगते. "अहं जानामि लक्षणम्, बीरभद्रम् प्रदूषणम्." फिर कहते "बंदर की कमाई खाते हैं, वीरभद्रम् प्रदूषणम्." महंत जी उन्हें बुलाते, कुछ पैसा देते और वह महंत जी के पैर छू आगे बढ़ जाते. यह लगभग रोज का कर्मकाण्ड था. महंत जी उनके कहे का बुरा नहीं मानते थे. महंत जी के प्रति आदर प्रकट करने और उनसे कुछ पाने की उनकी यह नायाब शैली थी.
शम्भू के इस अलबेले व्यक्तित्व से विदेशी पर्यटकों की उनमें बहुत रुचि थी. दुनिया शीतयुद्ध से जूझ रही थी पर शम्भू गुटनिरपेक्षता की नीति पर ही चलते थे. यानि वैश्विक संतुलन बनाते हुए उनके अंतरंग संगी साथी रूसी पर्यटक भी होते और यूरोपीय/अमेरिकी भी. गंगा की लहरों पर उनकी गायकी से 'फिरंगन' मंत्रमुग्ध होती थीं. शम्भू ने सरगम का 'स' नहीं सीखा. पर बड़े-बड़े उप-शास्त्रीय गायक उनसे पनाह मांग लेते. शम्भू भाषा से परे थे. उनकी अभिव्यक्ति भाषाओं की मोहताज नहीं थी. वह कभी स्कूल नहीं गए पर अंग्रेजी, स्पेनिश, इटालवी, फ्रेंच, जापानी और थाई लोगों से आराम से संवाद कर लेते. शरीर के लोच, आंखों की भंगिमा और हाथ के इशारे से शम्भू ने अभिव्यक्ति की जो भाषा गढ़ी थी, उसका आंकलन होते तो भाषा वैज्ञानिक जॉर्ज ग्रियर्सन भी नहीं कर पाते. शम्भू अपनी पूरी बात इसी भाषा से सम्प्रेषित कर लेते "नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं, रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं॥" यानि कुछ आंखों से, कुछ इशारों से और बाक़ी बची हिचकियों से.
बनारस में देशी-विदेशी पर्यटकों को डील करने की मल्लाहों की अलग भाषा होती है. घाट पर पर्यटक देखते ही इन्तज़ार कर रहे नाविक लाल, पीला, हरा, नीला उनके कपड़े का रंग बोलते हैं. जो पहले बोलता है. उसी का हक़ उस पर्यटक पर होता है. फिर उसे घुमाने का जिम्मा उसका. इनकी भाषा भी कूट होती है. मालदार पर्यटक है तो साथी बोलते है 'धौंक दा' पैसा वाला नहीं है तो नाविक बात कर साथियों को बताता है. 'लिंगड या झन्डू.'
शम्भू जितने देशी मूल के प्रति भावुक थे, उससे कहीं अधिक विदेशी मूल के प्रति. राजनीति में विदेशी मूल का मुद्दा तो अब आया मगर बनारस के मल्लाह बिरादरी के बीच कभी ये मुद्दा नहीं रहा. लगभग हर घाट पर आपको दो-चार नाविक मिल जाएंगे जिनकी ससुराल फ्रांस, इटली, स्पेन और जापान में है. यहां बनारसी नाविक नाव खेत-खेते कब विदेशी महिलाओं की जिंदगी की नाव खेने लगते हैं, यह पता ही नहीं चलता. मालूम तभी चलता है जब उनकी शादी हो जाती है. फिर वह 6 महीना उस देश में रहता है, जहां की युवती से विवाह करता है और 6 महीना स्वदेश में.
'वसुधैव कुटुम्बकम' में आस्था रखने वाले ऐसे दर्जनों केवट मेरे परिचित हैं. कई तो विदेश में बस गए. यहां कभी-कभार आते हैं. राजा घाट के 6-7 निषाद ऐसे हैं जो जापानी से शादी कर वहीं बस गए. दरअसल ये विदेशी महिलाएं अपने देश के सामाजिक रिश्तों के खोखलेपन से इतनी ऊबी हुई होती हैं कि उन्हें यहां रिश्तों का स्थायित्व रास आता है. इसलिए ये आकर्षण कायम है. यहां यह भी जानना जरूरी है कि कभी किसी विदेशी महिला के साथ निषादों की छेड़छाड़ या ठगने की खबर नहीं आई. पंडों की बदसलूकी की खबरें तो आपको अक्सर मिलेंगी पर निषादों की नहीं.
शम्भू मेरा दोस्त था. अज़ीज़ था. इसकी वजह थी कि बनारस के मेरे घर में भी एक कुआं था. मैं बचपन में ढेर सारा सामान इसी कुएं में फेंक देता था. शायद पानी में सामान गिरने से जो 'झम्म' की ध्वनि होती थी वह मेरे लिए बहुत आकर्षक होती थी. मां बताती थीं कि बचपन में, मैं उनकी नजरें छुपा कर जो कुछ मिलता कुएं में फेंक देता. मेरी इस आदत से परेशान होकर कुएं पर दरवाजा लगवा दिया गया. संयोग देखिए की बहुत बाद में जब मैं बड़ा हुआ तो कुएं की सफाई का जिम्मा मेरे पास ही आया और मुझे ही शम्भू को बुलाना पड़ा. शम्भू हमारे कुएं की सफाई करते रहे क्योंकि शहर में कुएं की सफाई में तब शम्भू अकेला नाम था. शम्भू के दो बेटियां थीं और एक बेटा मोहन जो आज भी शायद नाव चलाने के अपने पुश्तैनी पेशे में है.
शम्भू उस महान परंपरा के प्रतिनिधि थे. जिसने भगवान राम को पार लगाया था. शास्त्रों में निषाद, मल्लाह, माझी और केवट एक ही जाति है. सब का काम नाव चलाना था. निषाद एक प्राचीन अनार्य वंश है. निषाद (नि: यानि जल और षाद मायने शासन) का अर्थ है जल पर शासन करने वाला. प्राचीन काल में जल, जंगल खनिज के यही मालिक थे. आर्यों के आने से पहले इन्हीं का शासन था. निषादों के बहुत सारे दुर्ग और किले थे, जिन्हें आमा, आयसी, उर्वा, शतभुजी, शारदीय आदि नामों से जाना जाता था. इलाहाबाद से 40 किलोमीटर दूर गंगा किनारे 'श्रृंगवेरपुर' में निषादराज राजा गुह का किला आज भी मौजूद है.
गंगा के इस पार 'सिंगरौर' है. भगवान राम को जब वनवास हुआ तो वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है. इसे पार कर उन्होंने गोमती नदी पार की और तब इलाहाबाद से कोई 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे जो निषादराज गुह का राज्य था. यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था. कहते हैं अपने पिछले जन्म से ही वह प्रभु श्रीराम का भक्त था. वाल्मीकि रामायण और तुलसी के रामचरितमानस दोनों में केवट का बड़ा प्यारा प्रसंग है. पहले तो केवट राम को पांव पखारे बिना नाव पर चढ़ाने को राजी नहीं होता. जब चढ़ा कर पार करा देता है, तो फिर राम से मेहनताना लेने को राजी नहीं होता. उसकी दलील होती कि हे प्रभु मैंने आपको नाव से इस पार उतारा है, अब आप मुझे इस भवसागर से उस पार उतारें. यही मेरा दाम है क्योंकि कहीं नाई-नाई से और धोबी-धोबी से पैसा नहीं लेता. समानधर्मी लोगों के बीच क्या लेना देना? राम ने वनवास की पहली रात निषादराज के यहां ही बिताई थी .
अपना शम्भू उन्हीं निषादराज की कहानी से प्रभावित था. वह अपने को भगवान राम का समानधर्मा मानते थे. उनकी दलील थी भगवान लोगों को भवसागर पार कराते हैं, वह नदी पार कराता है. दोनों का काम एक ही है. दोनों सहकर्मी हैं. यानि वह वही काम कर रहा है जो भगवान करते हैं. अक्सर वह स्वर में गाने लगता.
जात पात न्यारी हमारी ना तिहारी नाथ, कहबे को केवट हरि निश्चय विचारिहौं,
तूं तो उतारो भवसागर परमारथ कौ, मैं तो उतारूं घाट सुरसरि किनारिहौं,
नाई से न नाई लेत, धोबी न धुलाई लेत, तो सौं उतराई ले कुटुम्ब से निकारिहौं,
जैसे प्रभु दिनबंधु तुमको मैं उतारयों नाथ, तेरे घाट जहियों नाथ मौकूं कूं भी उतारिहौं!
बाद में यह पद पं. छन्नू लाल मिश्र भी गाने लगे. पर बनारसियों ने इसे शम्भू के मुंह से ही सुना है यह पद गाते-गाते शम्भू टेढ़ा हो जाता. कहता, "हमार भगवान से सीधा सम्बन्ध हौउ, तू का उखाड़ लेबा." ताव में आता तो कहता "चार वेदों की रचना करने वाले वेद व्यास निषाद थे. कश्यप वंश के ही राजा बलि, विलोचन और प्रहलाद निषाद थे. 'माउंटेन मैन' दशरथ मांझी निषाद थे. दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर एकलव्य निषाद था. मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की खुदाई करने वाले दयाराम साहनी निषाद थे." वह लक्ष्मीबाई को भी निषाद बताता. विदेशियों से कहता, कोलंबस और वास्कोडिगामा भी निषाद थे. नाथ पंथ का प्रचार करने वाले गुरू मच्छेंद्र नाथ निषाद थे. यह कह वह जोर से जयकारा लगाता 'अलख निरंजन'.
शम्भू के इन दावों के पीछे शास्त्रों का संसार है. ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण में निषादों का जिक्र विस्तार से है. भारत में निषादों की 578 उपजातियां मिलती हैं. वाल्मीकि ने तो अपने पहले ही श्लोक में 'निषाद' का इस्तेमाल किया है. महाभारत के रचनाकार वेदव्यास की मां निषाद कन्या थीं. 1891 के समुदायिक जनगणना के आधार पर आर.बी.रसेल व हीरालाल ने 1916 में "दि ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ सेन्ट्रल प्रोविन्सेज" किताब लिखी. किताब के भाग-1 के अंतिम हिस्से में छपी ग्लोसरी में जो जातियों का शब्दकोश है, उसके पेज-388 पर मांझी को केवट का पर्यायवाची व मझवार को केवट तथा बोटमैन में सम्मिलित कहा गया है.
इतने मस्तमौला, काबिल व जिंदादिल शम्भू का जीवन दुखान्त था. नियति की चालबाजी देखिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश का यह सर्वश्रेष्ठ गोताखोर एक रोज़ डूब कर मर गया. बनारस में कमच्छा से रेवड़ी तालाब जाने वाली सड़क पर जो कुआं था, वही उसकी मौत का सबब बना. एक चोर उस कुएं में चोरी का सामान फेंक भाग खड़ा हुआ. पुलिस ने सामान की बरामदगी के लिए शम्भू को कुएं में उतारा. कुएं में जहरीली गैस थी. शम्भू के जीवन का यह आखिरी गोता था. शम्भू कुएं से दोबारा नहीं निकला. तालाब और नदी में तैरने वाला शम्भू कुएं में डूब गया. गलती पुलिस की थी. बिना कुएं में गैस जांचें, शम्भू को कुएं में उतार दिया था. जनता में गुस्सा था. कमच्छा की सड़क जाम हुई. प्रशासन ने शम्भू के परिवार को दस हजार रुपए की मदद की. बनारस के इस इतिहास पुरुष के जान की कीमत महज दस हजार रुपए आंकी गयी.
शम्भू के इस अंतिम गोते को जानने के बावजूद मेरी स्मृतियों में वह अब भी तैर रहा है. मुंह भी मुस्करा रहा है. उनके जीने का अंदाज़ अनोखा था. आनंद फ़िल्म में राजेश खन्ना की तरह- 'बाबू मोशाय… जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं.' मेरी नज़र में शम्भू मल्लाह इस संवाद का जीता जागता प्रयोगधर्मी था. उसने ज़िंदगी को जीकर दिखाया और साबित किया कि ज़िंदगी को बड़ी करना खुद इंसान के ही हाथ में है.