सम्पादकीय

कांपती धरती और भूस्खलन का खतरा : हिमालय को पहुंचे नुकसान और नदियों के रास्ते अवरुद्ध करने के नतीजे

Neha Dani
23 Nov 2022 1:53 AM GMT
कांपती धरती और भूस्खलन का खतरा : हिमालय को पहुंचे नुकसान और नदियों के रास्ते अवरुद्ध करने के नतीजे
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उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
नवंबर, 2022 के दूसरे सप्ताह में उत्तराखंड, दिल्ली एनसीआर, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, नेपाल और उत्तर पूर्व के राज्यों में आठ छोटे-बड़े भूकंप आए हैं। वैसे तो भूकंप इस क्षेत्र में आते रहते हैं और पिछले 30 वर्षों में तीन दर्जन से अधिक बार भूकंप के झटके महसूस किए गए हैं। लेकिन पिछले एक दशक में 12 ऐसे भूकंप आए हैं, जिनकी रिक्टर स्केल पर तीव्रता 4.5 से अधिक मापी गई है। वैज्ञानिक बताते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में इंडियन प्लेट हर साल पांच सेंटीमीटर यूरेशियन प्लेट की ओर खिसक रही है। इसकी वजह से बार-बार भूगर्भिक हलचल जारी रहेगी, जिसके चलते नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर जैसे हिमालयी क्षेत्रों में भूकंप के झटके आते रहेंगे।
भारत के अन्य राज्यों में भी भूकंप से बहुत तबाही हुई है, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में बार-बार आ रहे भूकंप के झटकों को समझना बहुत जरूरी है। यहां के संवेदनशील ढालदार ऊंचे पर्वतों, ग्लेशियरों, नदियों को बहुत नुकसान पहुंचने वाला है, क्योंकि भूकंप के झटकों से हिमालय क्षेत्र में जगह-जगह दरारें आ गई हैं। भू-वैज्ञानिकों ने पूरे हिमालय क्षेत्र को बाढ़, भूकंप और भूस्खलन के लिए संवेदनशील बताकर इसको जोन 4-5 में रखा है। लेकिन फिर भी कोई सावधानी नहीं है।
1991 के भूकंप के बाद बंदरपूंछ से लेकर गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पिथौरागढ़ से नेपाल की पर्वत शृंखलाओं में दरारें आई हैं। हिमालय पर पड़ रही इस दोहरी मार को बढ़ाने वाले ऐसे कई विनाशकारी कारण हैं, जिससे इस क्षेत्र के लोग ही नहीं, बल्कि मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले करीब 40 करोड़ से अधिक लोग हर वर्ष प्रभावित हो रहे हैं। इसका कारण है कि हिमालय की छोटी व संकरी भौगोलिक संरचना को नजर अंदाज करके बहुमंजिला इमारतों का निर्माण, सड़कों का अंधाधुंध चौड़ीकरण, वनों का कटान, विस्फोटों का इस्तेमाल करके सुरंग आधारित परियोजनाओं के निर्माण से हिमालय में बाढ़ एवं भूस्खलन को न्योता दिया जा रहा है। क्योंकि ऐसे भारी निर्माण कार्य ज्यादातर भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में हो रहे हैं।
पहले लोग भूकंप रोधी घर बनाने के लिए दीवारों पर चारों ओर लकड़ी के सिलपरों को जोड़कर लगाते थे। लेकिन अब सीमेंट कंकरीट के प्रयोग के कारण ऐसी पुश्तैनी भवन निर्माण कला को नुकसान पहुंचा है। ऐसी स्थिति में हिमालयी राज्यों की सरकारों को तत्परता से अपने-अपने क्षेत्र के विकास के स्थिर मॉडल तैयार करने पड़ेंगे। भारत के हिमालयी राज्य ऐसी अल्पाइन पट्टी में पड़ते हैं, जिसमें भूकंप आते रहते हैं।
पिछले चार दशकों में वैज्ञानिकों ने दिल्ली समेत देश के हिमालयी राज्यों के भवनों की ऊंचाई को कम करने, अनियंत्रित खनन रोकने, पर्यटकों की आवाजाही नियंत्रित करने, घनी आबादी के बीच जल निकासी आदि पर कई रिपोर्ट जारी की है, लेकिन काफी लापरवाही बरती जा रही है। प्राकृतिक आपदा के समय तात्कालिक चिंता ही सामने रहती है। उसके बाद बचाव के सारे दृष्टिकोण भुला दिए जाते हैं। बार-बार कहा रहा है कि पिछली बार की तरह नेपाल में 7.9 रिक्टर स्केल का भूकंप फिर आ सकता है। इस कारण हिमालय शृंखला में हर 100 किलोमीटर के क्षेत्र में उच्च क्षमता के भूकंप आते रहेंगे।
लगातार भूकंप के कारण सवाल खड़ा हो रहा है कि हिमालयी संवेदनशीलता के चलते इससे बचने के लिए उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं। दुनिया में जहां ब्रिक्स, सार्क और जी-20 के नाम पर कई देश मिलकर हर बार कुछ नई बातें सामने लाते हैं, क्यों नहीं नेपाल, भारत, चीन, अफगानिस्तान, भूटान, जापान आदि देश मिलकर हिमालय को अनियंत्रित छेड़छाड़ से बचाने की सोच विकसित करते हैं। छेड़छाड़ रोककर बहुत-सी जिंदगियों को बचाया जा सकता है। जिस तरह से हिमालय की प्रकृति को मौजूदा विकास ने नुकसान पहुंचाया है, नदियों के रास्ते अवरुद्ध कर दिए, उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

सोर्स: अमर उजाला



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