सम्पादकीय

शाहजहांपुर : यहां सत्तावनी क्रांति के शहीद का सिर दफन है

Gulabi
28 Jan 2022 3:16 PM GMT
शाहजहांपुर : यहां सत्तावनी क्रांति के शहीद का सिर दफन है
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शाहजहांपुर के पूरब में खन्नौत नदी की सूखती और गंदली हो चुकी जलधार के दूसरी तरफ लोधीपुर गांव अब शहर का हिस्सा हो चुका
शाहजहांपुर के पूरब में खन्नौत नदी की सूखती और गंदली हो चुकी जलधार के दूसरी तरफ लोधीपुर गांव अब शहर का हिस्सा हो चुका है। यहां की सघन बसावट के एक किनारे बनी कब्रगाह में सत्तावनी क्रांति के शहीद मौलवी अहमदउल्ला शाह गहरी नींद में सोए पड़े हैं, जिसमें उनका पूरा शरीर नहीं, सिर्फ सिर दफन है।
'गदर' के इस अनोखे क्रांतिकारी का यह स्मारक अब दीवारों और छत से ढका है, पर मुख्य मार्ग पर खड़े होकर यहां तक पहुंचने के लिए संकेत खोजना कठिन कवायद है। भीतर मजार-स्थल को जिस तरह संवारा गया है, वह मौलवी की बगावती शख्सीयत से मेल नहीं खाता। एकबारगी हमें लगता है कि किसी पीर या औलिया की मजहबी यादगार के सामने खड़े हैं।
सत्तावनी संग्राम में कानपुर, लखनऊ और बरेली के पतन के बाद मौलवी इस इलाके में मोहम्मदी जिला खीरी की तरफ चले आए थे, पर उस मुश्किल दौर में भी वह खामोश नहीं बैठे। एक रोज शाहजहांपुर की पुवायां रियासत के राजा की गढ़ी पर वह हाथी पर सवार होकर पहुंचे और वहां छिपे अंग्रेजों को सौंपने की जिद करने लगे।
राजा के मना करने पर मौलवी ने महावत को हुक्म दिया कि वह हाथी को हूल कर गढ़ी का फाटक तोड़ दे। मौलवी के साथ उनके हमराही थे, पर अचानक गढ़ी के झरोखे से गोली चली और मौलवी वहीं शहीद हो गए। राजा के आदेश से उनके आदमियों ने उसी वक्त मौलवी का सिर धड़ से जुदा कर दिया।
बाद में राजा ने मौलवी का वह सिर जिला मजिस्ट्रेट को सुपुर्द किया, जिसे शाहजहांपुर में कोतवाली के सामने पेड़ पर लटका दिया गया। कई दिन बाद लोधीपुर के कुछ जांबाज नौजवानों ने उसे उतार कर खन्नौत किनारे अपनी जमीन में दफना दिया, जहां उनका मजार बना। मौलवी के नाम पर एक उपेक्षित-सा पार्क है, जिसके चारों तरफ नेताओं और छुटभैयों की तस्वीरों की भरमार है।
लाल इमली चौराहे के थोड़ा भीतर मौलवी अहमदउल्ला शाह जूनियर हाई स्कूल भी है। शहर में मौलवी की कोई प्रतिमा या स्मारक नहीं है। पुवायां में भी नहीं। राजा पुवायां के वंशजों के पास मौलवी की पगड़ी होने का पता लगा था, पर उसे हम हासिल नहीं कर पाए। मौलवी की शहादत का दिन 15 जून, 1858 है।
मौलवी के महत्व का अनुमान 17 जून, 1858 को रुहेलखंड कमिश्नर के नाम जिला मजिस्ट्रेट, शाहजहांपुर के इस पत्र से लगाया जा सकता है, 'मेरे नीम सरकारी खत 15 और 16 जून से आपको खबर मिल चुकी होगी कि मौलवी अहमदउल्ला शाह का पुवायां में कत्ल कर दिया गया है। आज मैं आपको मजीद रिपोर्ट देने की सआदत हासिल कर रहा हूं कि पुवायां का राजा पिछली रात यहां आया और अपने साथ मौलवी का सिर और जिस्म लाया था, जिसका मैं दिन भर इंतजार करता रहा।
दोपहर बाद उसके न आने से मुझे बेकरारी शुरू हुई और मैंने जनरल से मुल्तानी कैवरली का एक दस्ता पुवायां भेजने की दरख्वास्त की, ताकि राजा अगर बागियों की तरफ से सिर छीन लेने की कोशिश से किसी मुसीबत में गिरफ्तार हो गया हो, तो उसकी मदद की जाए। सिर की पुवायां और शाहजहांपुर के कई आदमियों से शिनाख्त करा ली गई कि मौलवी अहमदउल्ला शाह का है और अब शको-सुबह की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
सिर को पब्लिक के सामने कोतवाली पर रखा गया और जिस्म को सुबह जलाकर राख दरिया में बहा दी गई।' सिफारिश है कि हुकूमत की तरफ से पचास हजार रुपये का इनाम बागी मौलवी की गिरफ्तारी पर मुकर्रर किया गया था, उसमें यह शर्त थी कि इसे किसी अंग्रेजी कैंप या फौजी पोस्ट पर जिंदा सुपुर्द किया जाए।
जिला मजिस्ट्रेट ने कहा कि उसका ख्याल है कि मौजूदा सूरत में पूरा इनाम राजा को मिलना चाहिए, जिसकी बदौलत इंतहाई मुस्तकिल-मिजाज और बेहद बाअसर बागी सरदारों में एक से छुटकारा मिला है। वह खुश है कि एक ऐसा लीडर, जो अपने हैरतअंगेज असर की बिना पर इंतिहाई परेशानकुन दुश्मन साबित हुआ, नजरों से ओझल हो चुका है।
मौलवी की कब्रगाह के निकट जो सबसे बड़ा और आबाद हो चुका हथौड़ा चौराहा है, वहां भी मौलवी का कोई निशान नहीं। सत्तावनी क्रांति के सौ साल पूरे होने पर 'गदर के फूल' इकट्ठा करने के लिए अमृतलाल नागर ने अवध की यात्रा की थी, पर तब शाहजहांपुर और आसपास का इलाका छूट जाने के चलते मौलवी उनके लिए मक्फी ही बने रहे।
मौलवी की शहादत के समय शायर वेनीमाधव 'रुस्वा' शाहजहांपुर के निकट रोजा में मुकीम थे। मौलवी की शहादत के अगले रोज वह पुवायां की गढ़ी देखने गए। उन्होंने लिखा कि वहां सन्नाटा था और कुछ मुस्लिम औरतें स्यापा कर रही थीं। सत्तावनी क्रांति में मौलवी अनोखे नायक थे, जिन्होंने जनता को संगठित कर संग्राम किया। वह टीपू सुल्तान के कोई संबंधी और ग्वालियर के महराब शाह कलंदर के अनुयायी थे। उनका मूल स्थान चिंगल पट्टम, मद्रास और कहीं अराकाट मिलता है।
कहा जाता है कि वह घूमते-घामते फैजाबाद आ गए थे। गदर के इतिहास में उनका जिक्र 'डंकाशाह' के नाम से मिलता है। पुरानी पीढ़ियों में यह बात प्रचलित रही कि उनकी सवारी के आगे डंका बजता चलता था। मौलवी की फकीरी जिंदगी बाद में बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ लड़ने में बीती। उन्होंने गांवों-गांवों में ऐसा जोश फैलाया कि 'गदर' में बड़ी गिनती में लोग शामिल हुए। अंग्रेज इतिहासकार मॉल्सन ने लिखा है कि अंग्रेज सेनापति को दो बार मात देने का साहस मौलवी ही कर सकते थे।
अमर उजाला
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