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By: divyahimachal
चुनाव अब राजनीति का असली कांड है, जहां विचारधारा आंतरिक अनुशासन और वचनबद्धता का लगभग विलोम हो चुका है। हिमाचल में राजनीतिक टिकटों के आबंटन में सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी अपनी विवशताओं के मर्ज से वाकिफ हो गया है। कमोबेश हर पार्टी के टिकटों से निकला बदबूदार मसाला अपनी औकात के पैबंद हटा चुका है और सामने आ रहा है घिनौना मंतव्य। आश्चर्य यह कि कल की पार्टी या जिसके लिए चुनाव का अभिप्राय चारित्रिक बदलाव था, वह 'आम' आदमी पार्टी भी अपनी भ्रूण हत्या करवाने लगी। हिमाचल के राजनीतिक चरित्र को समझने के लिए आम आदमी पार्टी का प्रादेशिक संगठन जिस तरह या जिस हद तक टूटा और बिखरा, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि चुनावी मंडी में बिकवाली और खरीददारी का मोलभाव क्या है। खैर 'आप' तो अभी प्रयोगशाला में है, लेकिन पांच साल तक सरकार चला चुकी भाजपा के लिए भी कुनबे को संभालना अगर मुश्किल हो रहा है, तो कहीं संगठन की खामियां और सत्ता की काबिलीयत पर संदेह उभरता है। पार्टी ने जातीय व वर्गों के गठबंधन तराशते-तराशते, समुदाय बनाम समुदाय की विचित्र परिस्थितियां खड़ी कर लीं हैं।
दरअसल पिछले दशकों में राजनीति का स्तर और सत्ता का आचरण जिस ढर्रे पर चला है, उसके परिप्रेक्ष्य में ऐसी महत्त्वाकांक्षा का सामने आना निश्चित था। राजनीतिक संगठनों व सरकार के चरित्र पर कुछ जुंडलियों का प्रभाव, दबाव और स्वार्थ जिस तरह सिर चढक़र बोल रहा है, उसका खामियाजा तो चुकाना ही पडऩा था। भाजपा का जिक्र इसलिए कि सारी बिसात इसी पार्टी की रही है, लेकिन अब अपने ही मोहरे वार कर रहे हैं। धर्मशाला और शाहपुर में भाजपा की उम्मीदवारी को चुनौती देता जनजातीय समुदाय अगर सामने आया है, तो समझना यह होगा कि इस तस्वीर के भीतर राजनीतिक वैमनस्य किस हद तक समाज को खंडित कर सकता है। हिमाचल में आरक्षण की सौगात अब सिर चढक़र बोलने लगी है। धर्मशाला व शाहपुर विधानसभा क्षेत्र अनारक्षित हैं और भौगोलिक दृष्टि से भी ट्राइबल नहीं हैं, फिर भी एकाधिकार जमाते अनुसूचित जनजातीय समाज के नेताओं ने जिस हद तक असंतोष व्यक्त किया है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया जा सकता है। हैरानी यह कि आज की राजनीति संवेदनाओं से खेलने को अपना विशेषाधिकार मानती है।
धर्मशाला और पालमपुर नगर निगमों के तीन वार्ड अगर अनुसूचित जनजाति के नाम पर आरक्षित कर दिए जाते हैं, तो हम शहरी आवाम को भी संप्रदाय में बांटना चाहते हंै। कुछ दिन पहले हाटी समुदाय को मिले जनजातीय दर्जे के गूढ़ अर्थों में असमानता का प्रश्र तो हल नहीं होता, लेकिन सियासी सहूलियत की बुनियाद पर समाज में एक श्रृंखला खड़ी कर दी जाती है। अगर हिमाचल में ट्राइबल दर्जे से खुशहाली का आकलन करना है, तो इसे मापने के लिए गैर जनजातीय क्षेत्रों में तीव्रता से हुए ट्राइबल पुनर्वास को आधार मानना होगा। किन्नौर कहीं नीचे उतर कर सोलन में बस गया या लाहुल-स्पीति के बाशिंदों ने कुल्लू-मनाली को अपना पहला घर बना लिया, तो आरक्षण का अर्थ अब हिमाचली समाज से उसके आर्थिक व सामाजिक हक छीनने लगा है। पूरा भरमौर चंबा के बजाय कांगड़ा के सबसे संपन्न वर्ग की परिभाषा में समाहित हो गया है, तो हाटी समुदाय के भीतर भी हिमाचल की संपन्नता का आलम मौजूद है। कहने का अर्थ यह है कि अगर गैर जनजातीय पालमपुर विधानसभा में कोई गद्दी नेता भाजपा का उम्मीदवार बनता है या धर्मशाला-शाहपुर से चौधरी उम्मीदवार होते हैं, तो इन्हें समुदाय की आंख से नहीं देखना चाहिए। विडंबना यह है कि स्थानीय निकाय चुनावों के कारण भी हिमाचली समुदायों के बीच सियासी बंटवारे की स्थिति में आपसी भाईचारे को चोट पहुंच रही है। ऐसे में टिकट आबंटन अगर समदाय के बीच आपसी वैमनस्य बढ़ाने लगे हैं, तो राजनीतिक दलों को इससे खबरदार होना पड़ेगा। अगर भाजपा ने महाराष्ट्र को फडऩवीस जैसा ब्राह्मण मुख्यमंत्री दिया या हरियाणा में एक खत्री को दारोमदार दे दिया, तो हिमाचल में सत्ता की चाबी केवल राजपूत उम्मीदवार को ही क्यों। राजनीति के वर्तमान में सत्ता का चरित्र भी बिक रहा है, क्योंकि सरकारों के गठन में अधिकारों की बंदरबांट ने मुख्यमंत्री पद को सर्वश्रेष्ठ और अति शक्तिमान मान लिया है और इसके चलते चुनाव जीतने के बजाय नेताओं का वर्चस्व जीतना चाहता है। कांग्रेस में टिकटों के आबंटन में देरी की सबसे बड़ी वजह यही रही कि पार्टी के भीतर कुछ धड़े इस बहाने अपने-अपने संभावित मुख्यमंत्री की जेब भर रहे थे।
Rani Sahu
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