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- शहरों की आत्मनिर्भरता

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प्रगति की कवायद में अंतर यही कि आगे भागते इनसान भी अब मुफ्त का पीछा नहीं छोड़ते। हिमाचल की करवटों में कसूर भी यही है कि यहां सरकारी सेवाओं के दायित्व में नागरिक केवल मुफ्त की रेवड़ी को तोलता है। इसी आधार पर कर प्रणाली भी किंतु-परंतुओं में फंस कर असहाय व असमर्थ हो गई है। शहरीकरण की दौड़ में हिमाचल की हस्ती यूं तो आधुनिक बस्तियों, कामर्शियल कांप्लेक्सों तथा नगर निकायों से बढ़ती अपेक्षाओं में दर्ज हो रही है, लेकिन शहरी मानसिकता में पलती जनता सुविधाओं का वित्तीय बोझ उठाना नहीं चाहती। पहले मुर्गी या अंडे जैसी स्थिति में नए नगर निगमों का गठन भी इसी उधेड़बुन में है कि प्रॉपर्टी टैक्स का दायरा किस तरह बढ़ाया जाए। यानी नगर निगमों के दायरे में आए शहरी गांवों के आचरण में कर्ज अदायगी का फंडा कैसे अपनाया जाए। शिमला के बाद 2015 में बना धर्मशाला नगर निगम अपने सात साल के अस्तित्व के बावजूद नए क्षेत्रों में प्रॉपटी टैक्स नहीं वसूल पाया, तो इसके कई मायने हो सकते हैं।
या तो शामिल किए गए गांवों में नगर निगम सरीखा कुछ नहीं हुआ या जन भागीदारी में इस तरह के संस्कार ही पैदा नहीं हुए कि शहर को आत्मनिर्भर बनाया जाए। दरअसल शहरी विकास मंत्रालय के पास न तो शहरी निकायों के आय-व्यय के बीच संतुलन बनाने का कोई विकल्प है, न फंडिंग का कोई जरिया और न ही आत्मनिर्भरता के लिए कोई खाका बना। नतीजतन 61 नगर निकायों तथा 35 अधिसूचित विशेष क्षेत्र विकास एजेंसी (साडा) के आर्थिक विकास के लिए कोई भी दिशा तय नहीं। बिना किसी सर्वेक्षण और मॉनिटरिंग के नगर निकाय तो बढ़ गए, लेकिन उनका हुलिया नहीं बदला। आय के साधन बढ़ाने के लिए शहरों का वर्गीकरण जरूरी है ताकि विकास योजना बनाते हुए ही यह तय हो जाए कि नगर की प्रवृत्ति में पर्यटन, धार्मिक पर्यटन, शिक्षा हब, व्यापारिक केंद्र, औद्योगिक केंद्र, स्वास्थ्य या मनोरंजन केंद्र बनाने की किस तरह की संभावना व क्षमता है। हिमाचल के कुछ शहर अलग-अलग संभावनाओं, शिक्षा-चिकित्सा के कारण ग्रामीण व ट्राइबल पलायनकर्ताओं के आश्रय स्थल बनते-बनते आज व्यापक दृष्टि की मांग करते हैं। मनाली, धर्मशाला, सोलन व पालमपुर में लाहुल-स्पीति, किन्नौर, भरमौर व पांगी क्षेत्रों में पलायन करके आए लोगों का नया ठिकाना बने तो यहां आवासीय बस्तियों के माध्यम से नगर निकाय अपनी आर्थिक संभावनाओं को पूरा कर सकते थे।
देखते ही देखते कई शहर व्यापारिक प्रतिष्ठानों के कारण प्रमुख केंद्र बन गए, लेकिन शहरी विकास में यह दर्ज होता तो नगर निकाय आधुनिक बाजारों के निर्माण से आय के स्रोत पैदा कर लेते। इसी तरह धार्मिक नगरियां अगर शहरी आय की स्रोत बनतीं, तो ज्वालाजी, दियोटसिद्ध, कांगड़ा, चामुंडा, चिंतपूर्णी त्रिलोकपुर (बालासुंदरी) जैसे आस्था केंद्र अपने साथ आर्थिक विकास का मानचित्र भी विकसित कर सकते हैं। प्रदेश के 61 नगर निकाय नई तरह की आर्थिकी का संचार करते हुए रोजगार के अलावा ऐसे शहरों को जन्म दे सकते हैं, जो आत्मनिर्भर ढांचे के तहत हिमाचल को एक मुकाम तक ले जाने में सक्षम होंगे। इसके लिए शहरी विकास की नई परिभाषा में विभागीय रणनीति को संगठित तथा सक्रिय करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तारीकरण से गगल जैसा एक व्यापारिक कस्बा पूरी तरह उजड़ेगा, लेकिन इसके साथ नई संभावनाओं का अक्स जोड़ते हुए योजना बने तो एक नया बाइव्रेंट शहर का उदय हो सकता है।
गगल को पुनस्र्थापित करते हुए एक ट्रांसपोर्ट नगर, एक व्यापारिक या निवेश केंद्र विकसित किया जा सकता है। इतना ही नहीं एयरपोर्ट विस्तार के साथ एयरपोर्ट नगर विकसित किया जाए, तो यह पर्यटन का अनूठा प्रयोग होगा। कहना न होगा कि आज शहरी सरहदों में हिमाचल अपनी कंगाली को छुपा रहा है, जबकि योजनाओं और रणनीति के तहत शहरों को आत्मनिर्भर ढांचे से सुसज्जित किया जाए, तो शहरीकरण अपने साथ राज्य की आर्थिकी के संबल बनेंगे। स्थानीय निकायों को अगर आर्थिक प्रबंधन की छोटी इकाइयों के रूप में सशक्त किया जाए, तो हर गांव से शहर तक भविष्य की कल्पना में कई समाधान, विकल्प और आर्थिक संरचना के आधार मिलेंगे।
By: divyahimachal

Rani Sahu
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