सम्पादकीय

आत्म-चिंतन

Rani Sahu
24 March 2022 7:08 PM GMT
आत्म-चिंतन
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हाईकमान का आदेश था कि यह आत्म-मंथन का समय है

हम लोग इन दिनों आत्म-मंथन कर रहे हैं। हाईकमान का आदेश था कि यह आत्म-मंथन का समय है, सो चल रहा था आत्म-मंथन। मैंने भी आत्म-मंथन किया-खूब किया, लेकिन पार्टी के हारने का सूत्र हाथ नहीं लगा। बस, मोटी बात यही समझ में आई कि मैं कहीं गलती पर नहीं था अथवा यह बात सामने आई कि गठबंधन वाले दल हार जाते तो मेरी पार्टी आसानी से चुनाव में जीत सकती थी। वैसे मैं तो चुनाव जीत गया था, इसलिए मुझे आत्म-चिंतन की आवश्यकता भी नहीं थी, लेकिन पार्टी की हार को हमने सामूहिक जिम्मेवारी के रूप में स्वीकार किया था, इसलिए लाजमी तौर पर आत्म-चिंतन करना पड़ रहा था। जिन दिनों मैं आत्म-चिंतन में डूबा हुआ था, उन्हीं दिनों नई सरकार बन रही थी। हमने कोई टिप्पणी नहीं की और सरकार को बन जाने दिया। चाहते तो हम बोल सकते थे कुछ भी। लेकिन यह सोचकर कि पार्टी की ताजा-ताजा हार हुई है, इसलिए कुछ भी नहीं बोला तथा सभी लोग आत्म-चिंतन करते रहे।

सभी लोगों में हमारी पार्टी का प्रवक्ता भी सम्मिलित था, जिसने पार्टी की छवि को बड़बोलेपन से सीधी क्षति पहुंचाई थी। मंत्रिमंडल भी अच्छा खासा बन गया, हम कुछ नहीं बोले। यहां तक कि संसद चलने लगी और हम लोग आंखें मूंद कर आत्ममंथन, चिंतन, निरीक्षण तथा अवलोकन करते रहे। सरकार बहुत खुश थी कि विपक्षी दल पस्त हैं और वह अपना मनमाना राज चला रही है। इधर पार्टी हाईकमान ने भी मौन नहीं तोड़ा था। मुझे बार-बार लग भी रहा था कि यह मौन अभी और लंबा चलने वाला है। हमारे ऋषि-मुनि वर्षोंं तपस्या करने के बाद ही किसी तत्त्व को प्राप्त करते रहे हैं, उसी तर्ज पर चल रहा था हमारा आत्म-मंथन। आत्म-मंथन की पीड़ा बड़ी गहरी थी। न हम सरकार बना सके और न ही मंत्री बन सके, इसका रंज कम नहीं था। प्रधानमंत्री भी हमीं में से बनाना था। एक तरह से आत्म-मंथन पूरी तरह रोग, बन गया था।
रोग भी नया नहीं पूरी तरह 'क्रॉनिक डिजीज' का रूप ले चुका था। एक दिन मुझे लगा इस तरह तो जीवन यों ही बीत जाएगा। बहती गंगा में हस्त प्रक्षालन नहीं हो पाएगा। पंचवर्षीय योजनाओं का धन वे ही लोग डकार जाएंगे। चुनाव में जो एक करोड़ खर्च किए हैं-उसकी भरपाई कैसे होगी? हाथ पर हाथ धरे रहने से पार नहीं पड़ेगी। कुछ करना चाहिए। मैंने अपने मित्रों से बात की या तो सरकार गिराने की चालें चलो अथवा दल बदलो, मेरा तो इस दलदल में अब दम घुटने लगा है। पूरी तरह सूखा मरूस्थल है। कंठ सूखे जा रहे हैं। दबे स्वर में सभी मित्रों-सहयोगियों ने स्वीकार किया कि स्थिति बड़ी विकट है। उनकी हालत भी बड़ी खराब थी, वे भी आत्म-मंथन में यही कैवल्य प्राप्त कर सके थे। सभी सत्ता के लिए लालायित थे और गलत भी नहीं था। लंबे समय तक निर्विघ्न सरकार चलती रहे, यह हमारे मिजाज के प्रतिकूल था। एक दिन मैंने हिम्मत करके हाईकमान से ही कहा-'आत्म-मंथन के इस लंबे दौर से तो पार्टी के संगठन पर कुप्रभाव पड़ सकता है और पार्टी टूट सकती है। इसलिए हमें आत्म-मंथन के कीचड़ से बाहर निकालिए।' वे बोले-'घबराओ नहीं, कीचड़ में कमल खिलता है।' मैंने कहा-'वह तो खिला हुआ है। गठबंधन के लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और हम मरूस्थल में पानी की चाहना में भटक रहे हैं।' पार्टी हाईकमान ने मुझसे कहा-'यह अनुशासनहीनता है। तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। अपनी जबान को लगाम दो और चुपचाप आत्म-मंथन में तल्लीन हो जाओ।'
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक


Rani Sahu

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