सम्पादकीय

स्वाभिमानी देश के लिए जरूरी है स्वभाषा, तभी मिलेगी औपनिवेशिक दासता की मानसिकता से मुक्ति

Rani Sahu
13 Sep 2022 5:46 PM GMT
स्वाभिमानी देश के लिए जरूरी है स्वभाषा, तभी मिलेगी औपनिवेशिक दासता की मानसिकता से मुक्ति
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सोर्स- जागरण
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल : भारत ने जब 14 सितंबर, 1949 के दिन हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति प्रदान की थी तो किन्हीं तत्कालीन मजबूरियों के कारण अंग्रेजी को दस वर्षों के लिए संपर्क भाषा भी स्वीकार किया था। हालांकि यह अल्पकालिक अवधि और उसके लिए किए गए अल्पकालिक उपचार विधि और मानस दोनों में स्थायी हो गए। धीरे-धीरे यह माना जाने लगा कि हिंदी बहुसंख्यकों की भाषा होने के कारण राजभाषा है, किंतु समस्त भारत की नहीं, इसलिए समूचे देश की जनता से राज्य का संवाद कायम करने के लिए अंग्रेजी अपरिहार्य है। इसके बाद भी हिंदी को समस्त भारत के लिए संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने का यत्न महत्वपूर्ण रहा।
संसद के दोनों सदनों में हिंदी में कामकाज का प्रतिशत बढ़ा है। हिंदीतर भाषाभाषी राज्यों के सांसदों ने भी संसद में अंग्रेजी के बजाय हिंदी में चर्चा को प्रधानता दी। संयुक्त राष्ट्र ने हिंदी में कामकाज शुरू किया। अमेरिकी सरकार ने अपने विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी अनुवाद प्रारंभ किया। देश की प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी संस्थाओं में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई की पहल हुई। हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में विधि स्नातक कार्यक्रमों में शिक्षण को अनुमति मिली और वर्ष 2022 में चिकित्सा शिक्षा में भी हिंदी भाषा के प्रयोग का प्रयास प्रारंभ हुआ।
व्यापार, उद्योग और बाजार ने हिंदी की ताकत दशकों पहले पहचानी थी और व्यापार, विपणन एवं विज्ञापन में हिंदी का प्रयोग प्रारंभ हुआ। हिंदी संपर्क भाषा के रूप में विकसित होती हुई भारत के विविध राज्यों में पैठ करती गई। भारत के विविध भाषा-भाषियों ने किसी विदेशी भाषा को संपर्क भाषा के रूप में अस्वीकार करते हुए, हिंदी के नेतृत्व में भारतीय भाषाओं को राज्य की भाषा, न्याय की भाषा, व्यापार की भाषा और इन सबसे आगे बढ़ते हुए ज्ञान की भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार करना प्रारंभ किया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के क्रियान्वयन के अभियानों के साथ-साथ हिंदी ज्ञान और अनुसंधान की भाषा के रूप में भी विकसित होने लगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ध्येय है एक ऐसी पीढ़ी तैयार करना, जो भारत की सांस्कृतिक परंपरा से ओतप्रोत हो, समीक्षात्मक चिंतन और सृजनात्मक कल्पना से युक्त हो, जिसमें भारत और भारतीय जीवन परंपरा के प्रति गौरव का भाव हो। साथ ही साथ भारत को विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने का संकल्प भी हो। यह कुछ विशिष्ट संकल्पों से ही संभव हो सकता है।
इसके लिए 15 अगस्त 2022 को लाल किले के प्राचीर से भारत के प्रधानमंत्री ने हर भारतीय को पांच प्रण लेने का आह्वान किया जिसमें एक यह भी था कि दासता का कोई चिह्न नहीं रहने देंगे। अगर ज्ञान-विज्ञान, अनुसंधान एवं प्रशासन की भाषा, न्याय, शासन और संचार की भाषा अंग्रेजी ही बनी रहती है तो औपनिवेशिक दासता की मानसिकता से मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं। भाषा केवल संप्रेषण ही नहीं करती है, अपितु मनमानस और संस्कृति का भी निर्माण करती है। स्वराज और स्वबोध के भाव को जगाने के लिए देश को स्वभाषा को स्वीकार करना पड़ेगा।
1857 की क्रांति के बाद पंजाब से नामधारी संतों ने अंग्रेजी पद्धति की पढ़ाई और अंग्रेजी भाषा दोनों को अधर्म मानते हुए इसके संपूर्ण बहिष्कार का अभियान चलाया था। बंग भूमि आंदोलन के दौरान बांग्ला भाषा को सामने रखकर स्वदेशी स्वराज और स्वबोध का आंदोलन खड़ा हुआ था। आजादी के लिए दो बड़े आंदोलन चलाने के बाद गांधी जी ने भारत की आजादी के लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना अपरिहार्य माना था। सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत राष्ट्र भारतीय भाषा में ही साकार हो सकता है, इस मान्यता के साथ वीर सावरकर ने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाए जाने का अभियान प्रारंभ किया और जीवनपर्यंत इसके लिए प्रयत्न करते रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पूरे देश में अपने संगठनात्मक कामकाज के लिए हिंदी को भारत की भाषा के रूप में, राष्ट्रभाषा एवं संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया और हिंदी का एक अखिल भारतीय स्वरूप प्रस्तुत किया।
आजादी के 75 वर्षों बाद यह प्रश्न नहीं है कि हिंदी को राजभाषा-राष्ट्रभाषा होना चाहिए या नहीं? भारत के नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय भारत की भाषा में उपलब्ध कराया जाए। इस दृष्टि से यह ऐतिहासिक अवसर है जब समाज और सरकार भारतीय भाषाओं के लिए हिंदी के नेतृत्व में सजग यत्न करते हुए दिखाई दे रहे हैं। भारत की सभी भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। हिंदी उनमें सबसे बड़े समुदाय की भाषा होने के कारण ज्येष्ठ राष्ट्रीय भाषा है। भारत की सभी भाषाओं के बीच से अंग्रेजी की भाषा समाप्त होनी चाहिए। पराई भाषा के कारण इनमें दूरी बढ़ी है। हिंदी सहित भारत की सभी भाषाओं में सैकड़ों की संख्या में शब्द समान हैं। शब्दों की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां एकसमान अर्थवाली हैं। इसलिए भारत की भाषाओं में ज्ञान और सूचना को पारस्परिक रूप में अंतरित करना अंग्रेजी की अपेक्षा अधिक सरल सहज है।
हिंदी दिवस पर निश्चित रूप से यह सवाल खड़ा होना चाहिए कि कन्नड़ और तेलुगु के बीच संवाद एवं अनुवाद के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता क्यों है? बांग्ला और असमी के बीच अंग्रेजी की जरूरत क्या है? आखिर पंजाबी और डोगरी के बीच अंग्रेजी के लिए जगह कहां बनती है? इससे उलट इन सभी भाषाओं के बीच यदि हिंदी प्रतिस्थापित होती है तो हिंदी सहित ये सभी भारतीय भाषाएं शब्द संपदा में समृद्धि प्राप्त करती हैं और भारतीय मनमानस अपने जनों के साथ जुड़ करके समाज के सभी वर्गों के लिए श्रेष्ठ यत्न करने वाले समाज के रूप में उभरता है।
आज राजभाषा के रूप में हिंदी की स्मृति ऐतिहासिक महत्व की है, पर वास्तविक महत्व तो यही है कि हिंदी और हिंदी के साथ सभी क्षेत्रीय भाषाएं विधि में, चिकित्सा शिक्षा में, तकनीकी शिक्षा में कामकाज की भाषा के रूप में चरितार्थ हो सकें। तभी भारत अपनी बहुलताओं को सुरक्षित रखता हुआ, क्षेत्रीय विशिष्टताओं का संरक्षण करता हुआ, एक राष्ट्र के रूप में अनुभूत होगा और और वैश्विक स्तर पर अपनी वास्तविक भूमिका का निवर्हन कर सकेगा।
Rani Sahu

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