- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- नफरत के बीज : हिंसा पर...
x
शायद इसीलिए दिन-ब-दिन मनुष्य के दर्शक बनने की घटनाएं बढ़ती जाएंगी।
उदयपुर की हृदय विदारक घटना, जिसमें दो सिरफिरे युवकों ने सरे बाजार एक दर्जी की दुकान में घुसकर उसकी नृशंस हत्या कर दी, ने एक बार पुनः ये साबित कर दिया है कि समाज में मनुष्य बहुत तेजी से दर्शक बनते जा रहे हैं। दर्शक भी ऐसे जिसमें विवेक, विचार और बुद्धि काम नहीं करती। जो किसी घटना को देखकर मदद के लिए नहीं, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए भागता है।
कई बार वह उस घटना को अपने मोबाइल फोन के कैमरे में कैद कर लेने की होड़ में खो जाता है। मनुष्य ऐसा नहीं होता। मनुष्य सामाजिक होता है। जरूरत पड़ने पर दूसरे मनुष्य की मदद को तत्पर। मगर धीरे-धीरे समाज का मनोविज्ञान बदल गया है। अब मनुष्य असामाजिक होता जा रहा है। आभासी दुनिया में सिमटा हुआ। फेसबुक पर अनजान लोगों के दुख में दुख व्यक्त करता है, लेकिन असल जीवन में किसी की मदद करना उसे किसी पचड़े में पड़ना जान पड़ता है।
हम आए दिन देखते-सुनते हैं कि सड़क पर होती हिंसा को मनुष्य सिर्फ दर्शक की तरह निहारता है, मदद के लिए आगे नहीं आता। विगत मंगलवार की दोपहर को उदयपुर के बाजार में जब कन्हैयालाल पर ताबड़तोड़ वार हो रहे थे, तो उनकी मदद के लिए सिर्फ ईश्वर सिंह सामने आए जो कि उसी दुकान में काम करते थे। बाकी किसी ने आगे आकर कन्हैयालाल को बचाने की या घटना के बाद उन दो दरिंदों को दबोचने की जहमत नहीं उठाई। सड़क पर जब कोई दुर्घटना होती है, तो लोग दाएं-बाएं से निकल जाते हैं, मदद के लिए रुकते नहीं, कुछ करते नहीं।
यदि किसी को कोई अपराध घटित होता दिखता है, तो वह नजर बचाकर या तो भाग जाता है या भीड़ में छिपकर तमाशबीन बन जाता है। वैसे ही जैसे भीड़ में दूसरे लोग खड़े होते हैं। भीड़ में मनुष्य के व्यक्तित्व का विलीन होना आसान होता है। अपराधबोध भी नहीं रहता। यह एक मनोवैज्ञानिक द्वंद्व भी हो सकता है कि मदद करें कि न करें। लेकिन इस द्वंद्व से मनुष्य प्रभावित हो सकता है, भीड़ नहीं। भीड़ की कोई पहचान नहीं होती, कोई चेतना नहीं होती। भीड़ मदद को आगे बढ़े, तो क्या मजाल कि कोई घटना घटित हो जाए। उदयपुर की घटना पहली घटना नहीं है, न ही आखिरी होगी।
समाज नामक इकाई का क्षीण होना एक सतत प्रक्रिया है। मार्शल मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की परिकल्पना की थी, तो उनका अनुमान था कि विश्व में गांव के गुण परिलक्षित होंगे। गांव का एक सामूहिक चरित्र होता है। लोग एक भाषा बोलते हैं, एक जैसे परिधान धारण करते हैं और तीज-त्योहार सामूहिक रूप से मनाते हैं। शहर व्यक्तिवादी होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि संस्कृति गांव में जन्म लेती है और वहीं फलती-फूलती है। विश्व ग्लोबल तो बन गया, लेकिन विलेज न बन पाया। गांव में मदद करने का जो नैतिक साहस होता है, वह शहर में नहीं मिलता।
कई बार अपराध या अपराध की आशंका की सूचना देना ही मनुष्य का अपराध बन जाता है। मुझे याद है, कुछ साल पहले हमारी सोसायटी में एक अपराध की घटना हुई जिसमें मुझे गवाह के तौर पर पेश किया गया था। उस घटना के कई साल बाद एक दिन अचानक थाने से सूचना आई कि मेरे खिलाफ अदालत से समन आया है। मेरे होश फाख्ता हो गए। सोचने लगा कि जाने-अनजाने में क्या अपराध हो गया, जिसके लिए अदालत जाना पड़ेगा। अदालत गया, तो मालूम चला कि उस मुकदमे में मेरे बयान दर्ज होने हैं।
यकीन जानिए, जिला अदालत के उस कमरे में कई मिनटों तक अपराधी होने का बोध होता रहा और मन ही मन सोचता रहा कि किस पचड़े में फंस गया। कोई व्यक्ति इन कानूनी प्रक्रियाओं में उलझना नहीं चाहता, इसलिए उसे दर्शक बन जाना आसान लगता है। पुलिस लाख कहे कि सूचना देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी, लेकिन सूचना देकर देख लीजिए, पहले आप की ही पूछताछ शुरू कर दी जाएगी। कई बार तो पुलिस अपराधी को सूचना देने वाले का नाम, पता, फोन नंबर तक बता देती है और फिर अपराधी या उसके परिवार वाले आपको फोन करना शुरू कर देते हैं। पहले माफी की गुहार की जाती है और बाद में धमकियां शुरू हो जाती हैं।
कन्हैयालाल ने भी पुलिस से अपनी सुरक्षा की गुहार की थी, लेकिन खाकी ने दोनों पक्षों का राजीनामा कराकर अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया। कुछ वर्ष पूर्व अलवर में हुए सामूहिक दुष्कर्म के मामले में भी राजस्थान सरकार की खूब किरकिरी इस बात पर हुई थी कि पुलिस ने पीड़ित की शिकायत दर्ज नहीं की थी। उस घटना के बाद सरकार ने आदेश पारित किया कि हर शिकायत दर्ज की जाए। थाना न करे, तो पुलिस अधीक्षक कार्यालय में मुकदमा लिखा जाए, लेकिन उदयपुर की घटना दर्शाती है कि इतने साल में कुछ बदला नहीं है और शायद इसीलिए दिन-ब-दिन मनुष्य के दर्शक बनने की घटनाएं बढ़ती जाएंगी।
सोर्स: अमर उजाला
Next Story