सम्पादकीय

आंदोलन के भीतर का संघर्ष धर्म देखिए, नागरिक धर्म सिखा गया है किसान आंदोलन

Gulabi
14 Dec 2021 6:00 AM GMT
आंदोलन के भीतर का संघर्ष धर्म देखिए, नागरिक धर्म सिखा गया है किसान आंदोलन
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नागरिक धर्म सिखा गया है किसान आंदोलन
दिल्ली की सीमाओं से किसान चले गए लेकिन इस आंदोलन की यादों के साथ वे जीवन भर चलते रहेंगे. इस एक साल में उनके बीच ऐसे गहरे रिश्ते बन गए कि उनसे बिछड़ना जीत के जश्न को ग़मगीन कर गया. गांवों में लौटे किसान आंदोलन की यादों में डूबे हैं. इन किसानों के मोबाइल फोन में अरबों तस्वीरें हैं, वीडियो हैं. मालूम नहीं इनमें दर्ज असंख्य कहानियों का क्या होगा. सब अपनी अपनी यादों से लौटे हैं.
मीडिया और संपूर्ण गोदी मीडिया में इस आंदोलन को लेकर कुछ कहानियां बार-बार दोहराई जाती रहीं, जिनसे लगा है कि किसान आंदोलन देखा और जाना जा चुका है. इसके बाद भी बेशुमार कहानियां ऐसी हैं जो अनकही और अनजानी हैं.
जो इसमें शामिल रहे हैं वो अब आंदोलन की स्मृतियों से दूर नहीं होना चाहते. अगर पूरा साल मुश्किलों भरा था तो कानून वापसी की घोषणा से आंदोलन की वापसी के दिन भी कम मुश्किल भरे नहीं थे. कुछ लोग एक दूसरे से बिछड़ने की पीड़ा एक दूसरे कह गए तो कुछ अपने साथ ले गए. इन तमाम किस्सों से हम अनजान रह गए.
जैसे हम उस दुकानदार के बारे में कभी नहीं जान पाएंगे कि जिसने ग़ाज़ीपुर बार्डर पर कुर्ते की दुकान लगाई थी. इस दुकान में किसान आंदोलन के बैज बिक रहे थे और बैडमिंटन का रैकेट भी था. किसी ने बताया कि गाज़ीपुर बॉर्डर पर कबड्डी भी खेली जाती थी जिसका मैदान बना था.
मेडिकल कैंप है जो अब खाली हो चुका है. यहां डाक्टरों की टीम सेवा दिया करती थी और जब वे नहीं होते थे तो MBBS की डिग्री के बिना भी एक डाक्टर सर्दी बुख़ार की दवा दे दिया करता था. इस ई रिक्शे को आता देख लगा कि टेंट हाउस वाला बोरिया बिस्तर उठाकर ले जा रहा है लेकिन इन्होंने बताया कि होम्योपैथी की क्लिनिक चल रही थी अब समेट कर जा रहे हैं. चाय लंगर का यह बोर्ड देखकर अंदर गया तो सबसे पहले बहुत से गमले दिखाई दिए जिन्हें करीने से सजा कर रखा गया था. जत्थेदार कश्मीर सिंह भूरी वाले के इस लंगर में चाय पकौड़े, बर्फी और रसगुल्ले मिला करते थे. बाबा ने पूरे आंदोलन के दौरान लोगों को चाय पिलाई और मीठाई खिलाई.
इनके बिना किसान आंदोलन की कहानी बन ही नहीं सकती. किसान आंदोलन एक नगर बसाने का भी आंदोलन है. शहरों ने किसान आंदोलन को पसंद नहीं किया लेकिन किसानों ने अपने आंदोलन में शहर बसा लिया. पानी गरम करने से लेकर सार्वजनिक स्नानघर और शौचायल बनाने की व्यवस्था की गई है उस पर ही अलग से लिखा जा सकता है. मेरी मुलाकात एक नौजवान से हुई. जिसका नाम तेरा-मेरा है. बुंदेलखंड से आए इस नौजवान का नाम महेंद्र हैं. टिकैत के रोने की खबर सुनकर गाजीपुर आ गया. टिकैत ने कहा कि तुम्हें महेंद्र नाम से नहीं बुला सकते क्योंकि ये मेरे पिताजी का नाम है. इनके गांव का नाम तेरा है तो सबने तेरा बुलाना शुरू किया और फिर दुलार में बिगड़ते बिगड़ते उसका नाम तेरा-मेरा हो गया. महेंद्र को किसान आंदोलन ने एक नई पहचान दी है. नया नाम दिया है. तेरा-मेरा.
शुरू में लगा कि गोदी मीडिया के रहते इस आंदोलन का दम घुट जाएगा लेकिन बहुत कम समय में इस आंदोलन ने अभिव्यक्ति के कई सारे अवसर पैदा कर दिए. सरकार आपदा में अवसर पैदा कर रही थी और किसान अभिव्यक्ति के अवसर पैदा कर रहे थे. इतने सारे अवसर पैदा कर दिए कि कई लोग इस आंदोलन को जैसे तैसे कवर करने लगे रिकार्ड करने लगे. जिस इंटरनेट से आंदोलन के बारे में ज़हर फैल रहा था, उसी इंटरनेट से आंदोलन भी फैल रहा था. हर किसान अपने आप में मीडिया बन गया और किसानों ने हज़ारों करोड़ के विज्ञापनों वाले गोदी मीडिया को हरा दिया. किसानों ने अपना एक दर्शक वर्ग का बाज़ार भी खड़ा कर दिया जिसके दम पर कितने यू ट्यूबर खड़े हो गए. लाखों करोड़ों व्यूज़ मिले. ट्विटर से हमला हुआ तो ट्विटर पर पहुंच गए और आंदोलन का अकाउंट खोल प्रोपेगैंडा से लड़ने लगे. यूट्यूब, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट पर भी अकाउंट बनाए. उनकी लड़ाई का दायरा बड़ा होता चला गया.
गाज़ीपुर बॉर्डर की कहानी शेरू कुत्ते के बिना पूरी नहीं हो सकती थी. जिस तरह से आंदोलन शुरू में कमज़ोर था, शेरू भी कमज़ोर था. आंदोलन मज़बूत होता गया और शेरू भी मज़बूत होता गया. सबकी चिन्ता था कि गाज़ीपुर का शेरू अब आंदोलन के बिना कैसे रहेगा. शेरू जुदाई बर्दाश्त नहीं कर पाएगा और किसानों को शेरू की याद आएगी. दोराला गांव के रहने वाले रवींदर दौरालिया शेरू को अपने साथ ले गए हैं. शेरू भी किसान बन गया था और किसान शेरू की तरह बहादुर.
एक ज़िंदादिल आंदोलन अनगिनत जीवनरेखाओं से बना होता है. अख़बार बांटने वाला आकाश नज़र रखने लगा कि अखबारों में आंदोलन के बारे में क्या छपा है. वह हर दिन पचीस तीस अखबार मुफ्त में बांटा करता था कि किसानों को पता रहे कि अखबार क्या छाप रहे हैं.
इस लंबी लड़ाई के लिए किसानों ने कई प्रतीकों को पहली बार अपनाया. शुरू में छवि बनाई गई कि वे तोड़ फोड़ करेंगे, कानून नहीं मानेंगे. किसानों ने संविधान को अपना अभिभावक बना लिया और यह धारणा पहले ही दिन तोड़ दी कि उनका आंदोलन कानून तोड़ कर कानून का विरोध करने आया है. कानून पर चलते हुए कानून का विरोध किया.
हर समस्या का मुकम्मल समाधान हूं, मैं भारत का संविधान हूं. यहां संविधान एक व्यक्ति के रूप में किसानों से संवाद कर रहा है. आश्वासन दे रहा है कि मैं समाधान हूं. अब जब यह मंच उजड़ चुका है आप संविधान की किताब के इस कट आउट को फिर से देखिए. हज़ार निष्ठाओं में बंटे किसानों ने संविधान में अपनी एकता देखी और संविधान को अपना ईष्ट बना लिया. इसमें संविधान मैं की शक्ल में किसानों से बात कर रहा है. शशि भूषण और अशोक टक्सालिया को हम और आप नहीं जानते हैं मगर इन दो अनजान लोगों ने संविधान को कितना जैविक बना दिया है. जय जवान और जय किसान के नारे को चेहरा दिया है. उसे बदल कर "मैं जवान मैं किसान आंदोलन" कर दिया गया है. जो नारा आज तक निराकार था, उसमें मैं जोड़ कर जान डाल दी गई.
किसान आंदोलन बहुत सी चीज़ें पहली बार कर रहा था तो बहुत सी चीज़ें पहले के आंदोलनों से भी ले रहा था. शाहीन बाग़ के आंदोलन से औरतों और बच्चों को वहां आने का हौसला मिला तो दलित आंदोलन और उसके बाद शाहीन बाग के नायक संविधान की किताब को अपना रहनुमा बना लिया. शाहीन बाग़ भी कई मायनों में सफल आंदोलन रहा, दो साल से नागरिकता कानून के नियम नहीं बने हैं. किसान आंदोलन में भी एक शाहीन बाग़ था यही शाहीन बाग़ की सफलता है.
संविधान के कारण आंदोलन का आंचल इतना बड़ा हो गया कि नौजवान, बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे आंदोलन में आए. महिलाओं ने स्टेज संभाले तो मर्दो ने रोटियां बनाईं. इस आंदोलन ने हर हिंसा की उसी वक्त निंदा भी की.
इस आंदोलन को कवर करने वालों की अपनी कहानियां हैं. फोटो पत्रकार सर्वेश 66 साल की उम्र में हर दिन आंदोलन के हर मोर्चे को कवर करने जाती थीं. फ्री लांसर सर्वेश ने बताया कि उन्होंने इस आंदोलन को लेकर एक लाख के करीब फोटो खींचे हैं, 100 जीबी से अधिक का डेटा है. उन्हें उम्मीद थी कि अखबार किसान आंदोलन की तस्वीरें छापेंगे मगर जो छाप रहे थे उनने भी मना कर दिया. दस पंद्रह तस्वीरें ही छपीं वो भी छोटे अखबारों में. सर्वेश ने सोचा कि उनके सामने से एक इतिहास गुज़र रहा है. क्यों न इसे दर्ज किया जाए. वो इन तस्वीरों को रिकार्ड कर अपनी तरफ से फ्री सेवा देने लगी, मगर अफसोस मीडिया ने उनकी ये फ्री सेवा भी नहीं ली.
किसान आंदोलन की एक लाख तस्वीरों को छांटना आसान नहीं, फिर भी सर्वेश इंडियन विमेन प्रेस कोर गईं क्योंकि वहां फ्री वाई फाई है औऱ वहां से आपके लिए उन्होंने कुछ तस्वीरें भेजी हैं. सर्वेश से मुलाकात गाज़ीपुर बॉर्डर पर हो गई. सबके जाने के बाद मैं यहां गया था. बची खुची निशानियों से आंदोलन की बुलंदी की तस्वीरों के बारे में अनुमान लगा रहा था कि एक साल यहां के दिन रात कैसे बीते होंगे. कुछ किसान साथियों ने मुझे एक कमरा दिखाया. इस कमरे में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत की जोत रखी हुई थी. अंदाज़ा मिलता है कि किसानों ने साल भर तक आशा और निराशा के बीच किन किन चीज़ों के सहारे ख़ुद को संभाला होगा. यहां तो बहुत सारे पंखे रखे हैं. गर्मी के दिनों में किसानों ने बहुत सारे कूलर और पंखे आंदोलन को दान में दिए थे और यहीं पर एक जिम भी बना रखा था. किसान सरकार से ही नहीं, अपने आप से भी लड़ रहे थे. अपनी निराशाओं से लड़ना सबसे बड़ी लड़ाई होती है.
ट्रॉली को लेकर किसान हमेशा से ही प्रयोग करते रहे हैं मगर आंदोलन ने ट्रॉली कल्पना में नए नए पहलु जोड़े. इस ट्रॉली में हवाई जहाज़ का पहिला लगाया गया है ताकि यह इसके ऊपर बने दो कमरे का भार उठा सके. किसी ट्राली में एक बड़ा कमरा सा था तो किसी में दो दो कमरे बने थे. दान में मिले गद्दों से बिछौना बना तो ट्रॉली की छत को भी गर्मी से बचाने के उपाय किए गए. बाहर ट्रॉलियों पर नारे लिखे गए तस्वीरें लगाई गईं.
ट्रॉलियों को लेकर इतने प्रयोग किए गए कि ट्रॉली आर्किटेक्‍चर के नाम से पढ़ाई हो सकती है. नए नए ढांचे बता रहे थे कि आंदोलन में केवल किसान नहीं थे बल्कि उनके गांवों से निकले मज़दूर और कारीगर भी थे. उन अनाम कारीगरों ने किसान आंदोलन को स्थायी रूप देने के लिए न जाने कितने घर बना दिए. आंदोलन में लोग ठहरने लगे और आंदोलन ठहरने लगा.
40 साल पुराने ट्रैक्टर से लगा यह जालीदार कमरा देखने लायक है. इस कमरे में भीतर प्रवेश करते ही जाना कि इस ट्राली को बुलंदशहर के कारीगरो में तैयार किया था. उनकी कारीगरी देखिए. किसान आंदोलन की बैठकें पारदर्शी रहें इसलिए जालीदार बनाया ताकि बाहर से दिखता रहे. इसमें एक कमरा भी है सोने के लिए जिसके लिए पर्दे लगाए गए हैं. एयरकंडीशन भी लगा है. इस ट्रॉली के भीतर लिखे स्लोगनों को पढ़ना ज़रूरी है. पता चलता है कि किसान आंदोलन किसानों के बीच से डर और भय निकालने का भी आंदोलन चला रहा था. फिराक गोरखपुरी का शेर है, 'ये माना ज़िंदगी है चार दिन की, बहुत होते हैं यारों चार दिन भी.' महेंद्र सिंह टिकैत का एक कथन है 'ओ भोले किसान तू बोलना सीख ले और दुश्मन को पहचान.' हार और डर को लेकर एपीजे अब्दुल कलाम की बातें लिखी हैं. गांधी का एक कथन लिखा है डर शरीर का रोग नहीं है, यह आत्मा का रास्ता है. इसी के साथ जवाहरलाल नेहरु का भी कथन है महान कार्य और छोटी सोच के लोग साथ-साथ नहीं चल सकते. क्या आपको पता था कि किसान आंदोलन में नेहरू भी थे, नहीं न. जालीदार ट्रॉली के बाहर इसके बाहर ज्योतिबाफुले से लेकर डॉ अंबेडकर की तस्वीर है. ऐसा लगता है कि जालीदार ट्रॉली का यह कमरा किसानों के लिए डर मुक्ति का केंद्र है.
पवित्र कौर प्रीत 20-21 साल की होंगी. उनके पिता टिकरी बॉर्डर की आयोजन समिति के वरिष्ठ नेताओं में से एक हैं. पवित्र कौर का बचपन बाकी बच्चों से कितना अलग रहा होगा. पिता गुरनाम सिंह विक्की तरह तरह के आंदोलन में हिस्सा लेते हुए कई बार जेल जा चुके हैं. इस आंदोलन में साल भर यहां रहे और उनकी बेटी पवित्र भी काफी दिनों तक रही. जीत की खुशी के वक्त पवित्र किसानों को टॉफियां बांट रही थी. वह कहती हैं, "मेरा नाम पवित्र कौर प्रीत है. मैं मानसा ज़िले से बिलांग करती हूं. मेरे पापा का नाम गुरनाम सिंह विक्की है जो कि पंजाब किसान यूनियन के नेता हैं और टिकरी आयोजन समिति के मुख्य अग्गु हैं. मैं हमेशा से गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ी हूं. मेरे मार्क्स भी हमेशा अच्छे थे. मैं इंटेलिजेंट थी स्टडी में भी ऐसे मैं बास्केट बाल की नेशनल चैंपियनशिप में भी रही हूं और मैं स्टडी में भी अच्छी रही जैसे मेरे 80 प्रतिशत से कम नहीं आया. मेरे पापा लोगों के लिए लड़ते रहे हैं. उन्हें लगभग 32-33 साल हो गए वो गरीबों और किसानों की सेवा करते हुए, वो उनके हकों के लिए लड़ते हैं. आठ से दस बार जेल जा चुके हैं. उन पर कई आरोप हैं. तो हम शुरू से हम उनके साथ रहते हैं. जैसे कोई प्रोटेस्ट में साथ ले कर जाते हैं. कोई महासम्मेलन होता है तो हमें लेकर जाते हैं. हमें वहां पर बहुत सी चीजें सीखने मिलना है, सही को सही और गलत को गलत कहना है.
ये वीडियो रोहित कुमार ने रिकार्ड किया है. रोहित एक फ्री लांस टीचर हैं जो स्कूली बच्चों को जीवन कौशल की ट्रेनिंग देते हैं. फ्री लांसर फोटोग्राफर सर्वेश की तरह रोहित भी कई दिनों तक आंदोलन में जाते रहे और वीडियो बनाते रहे. लोगों से बातें करते रहे. रोहित ने वायर के किसान आंदोलन पर कई लेख लिखे हैं.
मां के निधन के कुछ दिन बाद रोहित को लगा कि मीडिया किसानों को इतनी गालियां दे रहा है, मतलब किसान कुछ तो अच्छा कर रहे होंगे. गाज़ीपुर का रास्ता बंद था. लेकिन टैक्सी वाले ने कहा कि वह भी किसान का बेटा है और उसने किसी तरह रोहित को गाजीपुर बार्डर के पास पहुंचा दिया. पैदल चल कर जब रोहित आंदोलन स्थल पर पहुंचे तब तक काफी थक चुके थे. वहां उनकी पहली मुलाकात मंजीत बाबा से हुई. इस शख्स ने पहला सवाल ही यही किया कि कुछ खाओगे. ये नहीं पूछा कि तुम कौन हो. यह बात रोहित के दिल में ठहर गई और रोहित के भीतर किसान आंदोलन ठहर गया. रोहित ने चुपचाप आंदोलन को रिकार्ड करना शुरू किया और इंडिया स्पीक्स नाम से यू ट्यूब चैनल बना लिया. चैनल पर बहुत कम सब्सक्राइबर हैं फिर भी रोहित अपनी निष्ठा से काम करते रहे.
टिकरी बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन उग्रांहा का मोर्चा बंधा था. एक साल में आंदोलन का घर और दफ्तर पक्का होने लगा था. जब बस रहा था जब लोगों ने वीडियो कम बनाए कि कैसे बस रहा है, लेकिन जब उजड़ा तो लोग खुद ही लाइव कर रहे थे, वीडियो बना रहे थे. फेसबुक और ट्विटर की दुनिया के मास्टर हो गए थे.
यह आंदोलन केवल शाहजहांपुर, पलवल बार्डर, गाजीपुर बार्डर, सिंघु और टिकरी बार्डर पर नहीं था अनेक जगहों पर था. कई टोल नाकों पर भी किसान आंदोलन चल रहा था. राष्ट्रीय राजमार्ग का यह टोल प्लाज़ा 350 दिनों के बाद चालू हुआ है. बसताड़ा टोल प्लाज़ा बंद रहने से सरकार को 300 करोड़ का नुकसान हुआ है. इसका लाभ मिडिल क्लास को भी मिला उन्हें कई दिनों तक टोल टैक्स नहीं देना पड़ा. यहां से हर दिन 30-35 हज़ार छोटे बड़े वाहन गुज़रते हैं. प्रतिदिन 8 से 10 हजार बड़े व भारी वाहनों की क्रासिंग होती है. अब सभी को टोल देना पड़ेगा. किसानों से नफरत करने वाले चाहें तो पुरानी यात्राओं के भी टोल यहां जमा करा सकते हैं. सरकार ने ऐसा सिस्टम तो नहीं बनाया है लेकिन वे सरकार से मांग कर सकते हैं कि टोल देना चाहते हैं.
इस आंदोलन के बुजुर्ग इसकी जान थे. बुजुर्गों ने इस आंदोलन को अपने अनुभवों का संरक्षण दिया. गाज़ीपुर बॉर्डर पर मेरी मुलकात राज सिंह से हुई. हमारे सहयोगी रवीश रंजन राज सिंह के कई किस्से सुनाते हैं. इस एक जनवरी को राजसिंह सौ साल के हो जाएंगे. मुरादनगर के जलालाबाद गांव के राज सिंह के एक इशारे पर चालीस पचास ट्रैक्टरों से किसान गाज़ीपुर पहुंच गए थे. राजसिंह जहां बैठ जाते थे अड्डा वहीं लग जाता था. इस उम्र में राज सिंह ने मुझसे कहा कि सरकार कुछ करेगी तो मुझे बताना मैं ट्रैक्टर लेकर आ जाऊंगा. लोकतंत्र के इस प्रहरी को प्रणााम.
किसान आंदोलन कभी भी पूरा कवर नहीं हो सकता है. आंदोलन समाप्त होने के बाद भी समाप्त नहीं हो पा रहा है. मुकेश सिंह सेंगर ने आज रिपोर्ट फाइल की है कि सिंघू बोर्डर पर रास्ता इसलिए पूरी तरह नहीं खुल सका है क्योंकि सरकार ने किसानों को रोकने के लिए जो मोटी दीवारें खड़ी की थी, बैरिकेड बनाए थे, कंटेनर लगाए थे, उसे हटाने में, तोड़ने में वक्त लग रहा है.
किसानों के साथ बहुत से किस्से चले जाएंगे. गाज़ीपुर बॉर्डर पर कचरे का पहाड़ है. उसकी बदबू के बीच किसान कैसे दिन और रात गुज़ारते होंगे. एक किसान ने कहा कि शुरू में बदबू बर्दाश्त नहीं हुई, बाद में आदत हो गई, अब घर लौट कर घर के सामने कचरे का पहाड़ बनाना पड़ेगा तभी नींद आएगी.
ऐसी मुश्किल लड़ाई के बाद अगर इस देश का किसान अपनी गाड़ियों को फूलों से सजा कर वापस जा रहा है तो वह उसका हकदार है. उसने सरकार और गोदी मीडिया के बिछाए हर कांटे के बदले फूल उगाए हैं. आत्मसम्मान और आत्म विश्वास की फसलें लगा दी, जिसे हुकूमत काट नहीं पाई. इस आंदोलन में शामिल किसी भी किसान से टकरा जाइये, आपके सामने एक उपन्यास खुल जाएगा. ruralindiaonline.org नाम की एक शानदार वेबसाइट है जिसका नाम है परी - यानी people's archive of rural india. मशहूर पत्रकार पी साईनाथ ने इसे एक प्रयोग के तौर पर शुरू किया है. इस वेबसाइट पर साठ से अधिक लेख किसान आंदोलन पर हैं. बहुत सारी तस्वीरें हैं.
भारत का किसान बहुत धार्मिक है. धर्म के बिना वह जी नहीं सकता लेकिन किसान भारत को बता गए हैं कि भारत का एक और धर्म है. नागरिक धर्म. यह बात धर्म के नाम पर करोड़ों रुपये के विज्ञापन देने वाली सरकार आपको नहीं बताएगी. किसान आंदोलन पर 64 एपिसोड करने के बाद हमें हर बार लगा कि बात अधूरी रह गई. अफसोस कि आज भी अधूरी रह गई.
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