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- राजद्रोह कानून और...
आदित्य चोपड़ा: यह प्रश्न पूरी तरह वाजिब है कि 2022 के आजाद भारत में 1870 के अंग्रेजों के गुलाम भारत के कानून की क्या जरूरत हो सकती है जबकि सरकार, सत्ता और शासन के सभी मानक इस तरह बदल दिये गये हों कि सरकार का गठन सीधे लोगों को मिले एक वोट की ताकत से होता हो और सत्ता के शीर्ष पर सिर्फ लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि ही बैठे हुए हों और शासन केवल उसी संविधान से चलाया जाता हो जिससे बन्धने की कसम स्वयं लोगों ने ही खाई हो। जाहिर है कि 1947 के बाद से लागू इस व्यवस्था के प्रबन्धन को सुचारू रखने के लिए कुछ ऐसे नियामकों की जरूरत भी थी जिससे लोगों द्वारा चुनी गई सत्ता के विरुद्ध असंवैधानिक तरीके इस्तेमाल करके कुछ लोग या तत्व उसे उखाड़ने का प्रयास हरगिज न करें। इस मामले में भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक के अधिकारों व कर्त्तव्यों की नियमावली निर्दिष्ट की गई और तय किया गया कि केवल अहिंसक मार्ग से ही 'लोगों की सरकार' अर्थात लोकतान्त्रिक व्यवस्था के भीतर असहमति, मतभेद, वैचारिक विभेद व विभिन्नता और विविधता की आजादी होगी जिसमें सत्ता पक्ष की आलोचना या उसकी नीतियों से मतभेद नागरिकों का राजनैतिक अधिकार होगा जिसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाम भी दिया गया। इस मतभेद में सत्ता के विरुद्ध विद्रोह या बगावत का भाव केवल उसमें सुधार लाने के उद्देश्य तक निहित है जिसे लोकतन्त्र का अभिन्न अन्तरंग विचार निरूपित किया गया। लोकतन्त्र में सत्ता बदलने का विचार भी इसी सिद्धान्त के तहत ही समेकित रहा मगर उसके लिए प्रथक प्रणाली चुने हुए सदनों के माध्यम से तय की गई। इसे संसदीय प्रणाली के 'संख्या खेल' के रूप में जाना गया जिसमें कहा गया कि 'लोकतन्त्र में विपक्ष का काम सरकार की गलत नीतियों को जगजाहिर करना होता है और इनका विरोध करना होता है और यदि संभव हो तो सरकार को सत्ता से बेदखल करना होता हो'। मगर यह कार्य तभी हो सकता है जब सरकार गठित करने वाले सदन में विपक्ष के सदस्यों की संख्या का बहुमत सरकार के खिलाफ हो जाये। अतः बहुत ही स्पष्ट है कि लोकतन्त्र में विरोध, मतभेद, असहमति और संसदीय असहयोग की सभी संभावनाओं के मौजूद रहते भी विद्रोह की सीमा तक जाने की ऐसी कोई संभावना मौजूद नहीं रहती जिसमें संविधान का पालन करते हुए गठित सरकार के खिलाफ संविधान का पालन न करने का आह्वान किया जाये। लोकतन्त्र में सत्ता के खिलाफ विद्रोह तभी माना जायेगा जब कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह अथवा संगठन संविधान के विभिन्न प्रावधानों के खिलाफ जाकर 'बगावत' करने का एेलान करे। इसमें राष्ट्रीय एकता व भौगोलिक अखंडता के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति बदनीयती दिखाना अथवा इन्हें नुक्सान पहुंचाने की गरज से किये गये काम अथवा साजिश रचना प्रमुख रूप से रखे जा सकते हैं। राजनैतिक आलचनाओं को हमें केवल वैचारिक विमर्श की विभिन्नताओं के दायरे में खड़े होकर यह जायजा लेना होता है कि इनका मन्तव्य अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के सुनिश्चित मानदंडों के भीतर आथा है अथवा नहीं। इसके साथ ही लोकतन्त्र में व्यक्ति नहीं बल्कि संस्थान या संस्था प्रमुख होती है क्योंकि उन्हें संभालने वाले व्यक्तियों में अदल-बदल होती रहती है, अतः व्यक्तिगत आलोचना के लिए यह व्यवस्था स्वयं ही कानून सम्मत नागरिक आचार प्रणाली का अनुपालन करने लगती है। वास्तव में लोकतन्त्र की यह ऐसी खूबसूरत सत्ता प्रणाली है जिसे दुनिया की सबसे कारगर और प्रभावी प्रणाली माना जाता है। सवाल यह पैदा होता है कि जब आजादी के बाद से ही भारत इतनी वजनदार और पारदर्शी प्रणाली को लेकर चल रहा है तो अंग्रेजों का 1870 का बनाया गया 'राजद्रोह कानून' अभी तक किस तरह इसमें समाया हुआ है? हकीकत यह है कि 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद इसमें पहला संशोधन प. नेहरू के नेतृत्व में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा निर्धारित करने की गरज से केवल इसलिए किया गया था जिससे इससे सम्बन्धित अनुच्छेद 119 में मिली स्वतन्त्रता का अनावश्यक लाभ हिंसक विचार फैला कर न किया जा सके। भारत की भविष्य की राजनैतिक व्यवस्थ में हिंसा के माध्यम से सत्ता परिवर्तन का रास्ता सुझाने वालों को इसी दिन राजनैतिक प्रणाली से बाहर कर दिया गया। इसेे तब सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई परन्तु वह निरस्त हो गई। इसके बाद 1962 में 'केदारनाथ सिंह-बिहार सरकार' मुकदमें में सरकार के खिलाफ बहुत सख्त तरीके से विरोध करने पर केदारनाथ सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने आदेश दिया कि हिंसा का प्रयोग करने के साक्ष्य नहीं मिले अतः विद्वान न्यायाधीशों ने राजद्रोह कानून को तो बरकरार रखा मगर इसके लागू होने के सिद्धान्त को परिभाषित किया लेिकन जमीनी हकीकत यह है कि राजद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता का ही हिस्सा है जिसे लागू करने का काम पुलिस का एक दरोगा करता है। राजद्रोह जैसे संगीन अपराध की समीक्षा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के संवेदनशील मानदंडों के बीच करना निश्चित रूप से कानून-व्यवस्था का साधारण गवाही और साक्ष्य का मामला नहीं होता बल्कि यह वैचारिक पेंचों का एेसा मामला होता है जिसमें हिंसा को हथियार बनाने का मन्तव्य छिपा रहता है। जबकि हिंसा को उकसाने या उसका इस्तेमाल करने से रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता में कई धाराएं मौजूद हैं। इसलिए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का यह मत स्वागत योग्य है कि सरकार राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगी और इस पर वाजिब फैसला करेगी परन्तु इस मामले पर फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में सुनावई चल रही है अतः इस सन्दर्भ में यदि राजद्रोह कानून की आवश्यकता के बारे में अन्तिम फैसला हो भी जाता है तो भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि यह तो तय है कि यह कानून लोकतन्त्र की अन्तर्निहित भावना से मेल नहीं खाता क्योंकि अंग्रेजों ने इसे अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को मजबूत करने के लिए बनाया था।