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जो भी हो, एक खरीदार के रूप में अभी भारत का हाथ ऊपर है।
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में भारत को रूसी एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए विशेष छूट देने के एक विधायी संशोधन पर सर्वसम्मत समर्थन भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद सबसे महत्वपूर्ण माना जा सकता है। लेकिन जानकार पर्यवेक्षकों के लिए यह कोई हैरानी की बात नहीं है। निश्चित रूप से एस-400 खरीदने का मामला कुछ वर्षों से बहस में है, क्योंकि अमेरिकी हथियार उद्योग की शह पर रूस विरोधी तत्वों द्वारा भारत पर प्रतिबंध लगाने की धमकियों के बावजूद नई दिल्ली ने मास्को के साथ 5.4 अरब डॉलर के रक्षा सौदे को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है। और यह सब यूक्रेन पर आक्रमण के बाद अमेरिका द्वारा रूस पर व्यापक प्रतिबंध लगाने से पहले हुआ था।
एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली भारत के रक्षा बलों के लिए क्यों जरूरी है? इसका पहला कारण तो यह है कि यह रक्षा प्रणाली चीन के पास है, जिसने पहले ही भारत-चीन सीमा पर इसे तैनात कर दिया है। दूसरी बात, वैश्विक बाजार में तुलनात्मक रूप से रूसी कीमत पर ऐसी प्रणाली उपलब्ध नहीं है और अमेरिका ने अब तक भारत को ऐसी रक्षा प्रणाली की पेशकश नहीं की है, जो रूसी प्रणाली की बराबरी कर सके। चीन या चीन-पाकिस्तान गठजोड़ द्वारा हवाई या मिसाइल हमलों से रक्षा की दृष्टि से यह प्रणाली शायद भारत के लिए सबसे अच्छा है।
संक्षेप में, यह शायद दुनिया की सबसे उन्नत वायु रक्षा प्रणाली है। एस-400 एक वाहन आधारित सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली है, जो एक साथ कई लक्ष्यों को भेद सकती है। एक बार जब इसे लॉन्च किया जाता है, तो यह 400 किलोमीटर तक मार कर सकती है। और ऐसा करते समय यह अपनी 48 एन 6 मिसाइल शृंखला, सभी प्रकार की क्रूज और बैलिस्टिक मिसाइलों, स्टील्थ लड़ाकू विमानों, बमवर्षकों और यूएवी के साथ एक साथ जुड़ सकती है।
भारत ने 2018 में एस-400 प्रणाली के लिए सौदा पक्का कर लिया था। अमेरिका नहीं चाहता कि बहुत से देश इस घातक रूसी वायु रक्षा प्रणाली को खरीदें, इसलिए इसके खरीदारों को सीएएटीएसए (काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस ऐक्ट) प्रतिबंधों की धमकी दी गई। अमेरिका ने सीएएटीएसए को वर्ष 2017 में लागू किया था, जिसके तहत रूस, ईरान और उत्तर कोरिया से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करने वाले देशों पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है।
वर्ष 2014 में रूस द्वारा क्रीमिया (जो तब यूक्रेन का हिस्सा था) पर हमला और फिर कब्जे ने अमेरिका को सीएएटीएसए के जरिये रूसी प्रौद्योगिकियों, हथियारों की बिक्री को सीमित करने के लिए प्रेरित किया था। इसलिए अमेरिका ने नाटो सहयोगी, तुर्की के खिलाफ 2020 में सीएएटीएसए लागू किया, जब अंकारा ने रूस की एस-400 प्रणाली खरीदी। लेकिन अमेरिका ने चीन को दंडित नहीं किया, जो अब भी रूस का करीबी है, क्योंकि अमेरिका के चीन के साथ व्यापक व्यापारिक संबंध हैं।
अमेरिका ने यह तर्क दिया कि सीएएटीएसए अनिवार्य रूप से रूस-विरोधी है। सवाल है कि क्या अमेरिका भारत के साथ भी वैसा ही कर सकता है, जैसा उसने नाटो सहयोगी तुर्की के साथ किया था। इसका जवाब है-नहीं, क्योंकि अमेरिकी नीति-निर्माता भारत को एक प्रमुख रक्षा भागीदार, क्वाड का सदस्य और अब आई2यू2 में रणनीतिक भागीदारी के साथ चीन के खिलाफ अग्रिम पंक्ति के देश और एशिया में अपने भू-रणनीतिक एजेंडे के प्रमुख के तौर पर देखते हैं।
इसके अलावा, अमेरिका में यह समझ तेजी से बढ़ रही है कि कम से कम अभी भारत को रूस के साथ जुड़ने की जरूरत क्यों है। ऐतिहासिक कारणों से, भारत की रक्षा उपकरणों की सूची में अब भी 60 से 70 प्रतिशत चीजें रूस निर्मित हैं। कुछ आकलनों में इसे 85 प्रतिशत तक बताया जाता है। इस प्रकार ह्वाइट हाउस में या अमेरिकी नीति निर्माताओं के बीच किसी सख्त रवैया अपनाने वालों का मुकाबला करने लिए राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम (एनडीएए) में संशोधन को अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में एक विशेष संशोधन को सर्वसम्मति से समर्थन मिला, ताकि रूस की एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए भारत को छूट दी जा सके।
इस संशोधन की पहल भारतीय-अमेरिकी सांसद रो खन्ना ने की थी। इसका उद्देश्य राष्ट्रपति जो बाइडन के लिए भारत को छूट देना आसान बनाना था, क्योंकि सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति ही भारत के खिलाफ प्रतिबंधों को रोक सकते हैं। खन्ना ने इसके पीछे तर्क दिया कि चीन की आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए भारत को स्वयं मजबूत होना जरूरी है। दक्षिण एशिया में चीन के क्षेत्रीय विस्तार के खिलाफ अमेरिका को आज जिस बांध की जरूरत है, वह भारत है।
अभी चीन के बाद भारत रूसी सैन्य प्रणाली का सबसे बड़ा आयातक है। लेकिन, यह छूट अमेरिकी हथियार उद्योगों को भारत को अन्य हथियार बेचने का अवसर प्रदान करेगी, क्योंकि भारत अब भी दुनिया के सबसे बड़े हथियार खरीदारों में से एक है। पिछले एक दशक में भारत ने 20 अरब डॉलर से अधिक मूल्य के अमेरिकी सैन्य हथियार खरीदे हैं। लेकिन भारत को हथियारों के निर्यात और भारत में रक्षा हथियारों के सह-निर्माण के मामले में अब भी अमेरिका रूस से पीछे है।
भारत के पास ज्यादातर रक्षा उपकरण रूसी हैं। इसे चरणबद्ध तरीके से हटाने में कई दशक लगेंगे। भारत के पास रूसी आपूर्ति खोले रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसके अलावा, भारतीय सैनिकों ने रूसी हार्डवेयर को पश्चिमी उपकरणों की तुलना में प्रभावी और कम जटिल पाया है। वे सस्ते भी हैं। रूस ने भारत को एक पनडुब्बी पट्टे पर भी दिया है, जिसे भारत युद्ध और शांति काल में उपयोग कर सकता है, यह विकल्प अमेरिका सहित कोई भी देश भारत को नहीं देता है। भारत-रूस रक्षा संयुक्त परियोजना काफी सफल रही है, जिसने ब्रह्मोस मिसाइलों का निर्माण किया है।
इससे बीजिंग घबरा गया है और इसने भारत की देसी विनिर्माण क्षमता को मजबूत किया है। बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका नई दिल्ली को रूसी सैन्य आपूर्ति से दूर करने के लिए कितना मजबूर कर सकता है? और क्या अमेरिका रूस के प्रति एक सरल व्यापारिक दृष्टिकोण रख सकता है, इस पर जोर दिए बिना कि हथियारों की आपूर्ति केवल रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण प्रणालियों के साथ 'हमारे साथ या हमारे खिलाफ' दृष्टिकोण पर की जाएगी? जो भी हो, एक खरीदार के रूप में अभी भारत का हाथ ऊपर है।
सोर्स: अमर उजाला
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