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- अफगानिस्तान पर सुरक्षा...
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत और अफगानिस्तान के प्रगाढ़ ऐतिहासिक व सांस्कृतिक सम्बन्धों को लेकर कभी भी किसी प्रकार का भ्रम आजादी के बाद से ही नहीं रहा है और 90 के दशक में सोवियत संघ विघटन से पहले यह देश भारत-सोवियत संघ सम्बन्धों की भी मजबूत कड़ी रहा है। इस्लामी मुल्क होने के बावजूद अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हितों में लगातार कशीदगी रही है और बदले में पाकिस्तान के हुक्मरानों को अफगानिस्तान का उदार व लोकतान्त्रिक चेहरा कभी रास नहीं आया है। हालांकि 1974 तक यहां राजशाही रही है इसके बावजूद अफगानिस्तान ने अपने समाज को प्रगतिशील बनाने में कोई कसर नहीं रखी और लोगों में वैज्ञानिक सोच को भी बढ़ाया। हालांकि यह प्रभाव सीमित शहरी क्षेत्रों में ही रहा परन्तु बदलते जमाने की रफ्तार के साथ अफगानिस्तान ने कदम ताल करने का पूरा प्रयास किया। इसके जवाब में पाकिस्तान शुरू से ही इस देश में कट्टरपंथियों को पनपाने की तरकीबें भिड़ाता रहा। 1974 के बाद का अफगानिस्तान का इतिहास गवाह है कि किस तरह इस मुल्क में सोवियत प्रभाव बढ़ने पर पाकिस्तान ने कट्टरपंथी तालिबानी और जेहादी इस्लामी संगठन खड़ा करने में अमेरिका की मदद की और सोवियत संघ के विरुद्ध स्थानीय तालिबानियों को आतंकवाद के सांचे में ढालने की तजवीजें भिड़ाई और खुद अपने मुल्क में 'तहरीके तालिबान पाकिस्तान' की जड़ें जमाईं। मगर आज का मुद्दा यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें हटने के बाद इस मुल्क पर तालिबानी हुकूमत कायम होने पर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप व मध्य एशियाई क्षेत्र में अमन-चैन कैसे रखा जाये और इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या कदम उठाये जायें जिससे अफगानिस्तान के सभी पड़ोसी देशों समेत अन्य लगते हुए देशों में भी आतंकवाद का निर्यात न हो सके और न ही नशीले पदार्थओं की तस्करी हो सके। इसके साथ ही अफगानिस्तान के भीतर आम लोगों का जीवन सुरक्षित रहे और इस मुल्क में अल्पसंख्यकों व महिलाओं और बच्चों को उनके जायज अधिकार मिल सकें। यह प्रश्न सीधे मानवीय स्तर का है जिस पर पूरी दुनिया को इसी नजरिये से विचार करना होगा। यह हकीकत है कि तालिबानों ने अमेरिका के उनके मुल्क से बेदखल होने के बाद काबुल में राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करके हुकूमत की बागडोर तो थाम ली है मगर अपने नागरिकों को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं है क्योंकि अभी तक दुनिया के किसी भी देश ने तालिबान प्रशासन को मान्यता नहीं दी है। यह बात दूसरी है कि पाकिस्तान की सरकार तालिबान के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का स्वांग रच रही है और उन्हें विश्वास दिला रही है कि दुनिया के दूसरे मुल्कों के साथ राब्ता कायम करने में वह उनकी मदद करेगी लेकिन खुद पाकिस्तान की हैसियत ही विश्व मंचों पर बे-नंग-ओ-नाम' मुल्क की है, इसलिए उसकी बात पर कोई क्या ध्यान देगा। मगर हालात एेसे बने हैं कि विश्व शक्ति अमेरिका और चीन दोनों अफगानिस्तान के मुद्दे पर फिलहाल पाकिस्तान की हिमायत करते दिख रहे हैं। मगर यह परिस्थिति लम्बे समय तक नहीं रह सकती क्योंकि तालिबान अन्ततः आतंकवाद की परिभाषा को ही अपना ईमान मानते लगते हैं जिसकी वजह से वे अपने मुल्क को सैकड़ों साल पीछे ले जाकर कबायली दौर की रवायतें लागू करना चाहते हैं। मसलन महिलाओं को घरों की हद में रखना चाहते हैं और नई पीढि़यों को शिक्षा की रोशनी से महरूम कर देना चाहते हैं और उस पर वास्ता इस्लामी कानून शरीयत का दे देते हैं। इन तालिबानों को एक ही चीज की तिजारत करना आता है और वह नशा है। दुनिया के एशियाई हिस्से में नशीले पदार्थों की तस्करी का स्रोत अफगानिस्तान ही बना हुआ है। इसके साथ ही इसकी सरजमीं पर आतंकवादी तंजीमें पनपती रही हैं। मौजूदा वक्त में अफगानिस्तान के पास अरबों डालर के वे सैनिक हथियार हैं जिन्हें अमेरिकी फौज छोड़ कर गई है। अतः दुनिया के उन देशों को अपनी सुरक्षा की खास चिन्ता है जो मध्य एशिया क्षेत्र के हैं। इन्ही सब मुद्दों पर विचार करने के लिए भारत ने सम्बद्ध देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की दो दिवसीय बैठक बुलाई है जिसमें शामिल होने के लिए पाकिस्तान ने पहले ही मना कर दिया था मगर अब चीन ने भी इसमें शिरकत करने में अपनी असमर्थता जता कर साफ कर दिया है कि वह पाकिस्तान को अपनी गोद में बैठा कर अफगानिस्तान में अपनी भूमिका तलाशना चाहता है। इस सम्बन्ध में एक तथ्य सभी देशों को ध्यान में रखना चाहिए कि यदि इस्लामी आतंकवाद पुनः अफगानिस्तान में पनपता है तो उसका दायरा बहुत बड़ा हो सकता है और पूरी दुनिया के समक्ष वह भारी संकट खड़ा कर सकता है। संपादकीय :ऐसी भी बहुएं होती हैअंसल बिल्डरों को कैदअब बच्चों का वैक्सीनेशन !चन्नी के फैसलों से 'चानन'मर जाएगा स्वयं, सर्प को अगर नहीं मारेगात्रिपुरा में साम्प्रदायिक हुड़दंगपाकिस्तान इसलिए बेफिक्र है क्योंकि वह ऐसी दहशतगर्द तंजीमों का खुद ही सरपरस्त रहा है और इन्हें खत्म करने के नाम पर अमेरिका से भारी इमदाद पाता रहा है। भारत द्वारा बुलाये गये सुरक्षा सलाहकारों के सम्मेलन में जो देश भाग ले रहे हैं उनमें ईरान का नाम सबसे ऊपर लिया जायेगा क्योंकि वह भी आतंकवाद से त्रस्त रहा है इसके अलावा रूस, कजाखस्तान, किरगिस्तान, ताजिकस्तान, तुर्केमिस्तान और उजबेकिस्तान के सुरक्षा प्रमुखों के नाम उल्लेखनीय हैं। इससे जाहिर होता है कि भारत की चिन्ता से इस क्षेत्र के सभी प्रमुख देश किस हद तक बावस्ता है और उनकी सोच भारत से कितनी मिलती है। भारत की सोच साफ रही है कि अफगानी लोग सदियों से उसके मित्र रहे हैं अतः मुसीबत के समय मानवीय आधार पर उनकी मदद करना भारत का कर्त्तव्य है मगर नामुराद पाकिस्तान इस काम में भी टांग अड़ा कर अपनी इंसानियत नापसन्दी का मुजाहिरा कर रहा है।