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आप सोच रहे होंगे कि सचिव तो सचिव होता है। भला सचिव बनाम सचिव कैसे हो सकता है? लेकिन यह हो सकता है और ज़रूर हो सकता है। वैसे तो भारत में सचिव प्राय: ग्राम पंचायत से लेकर देश की राजधानी तक में पाया जाने वाला ऐसा दोपाया जीव है, जो हर भारतीय सब्ज़ी में पाए जाने वाले लोकप्रिय आलू की तरह हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सरकारी और ग़ैर-संस्थाओं का ज़ायका बढ़ाने के काम आता है। बिना सचिव के आप किसी संस्था का तसव्वुर भी नहीं कर सकते। कुल मिला कर बिना सोचे कहा जा सकता है कि सचिव किसी भी संस्था की रीढ़ होते हैं। यह बात दीगर है कि आप इस बात पर प्रश्न उठाएं कि उनकी स्वयं की रीढ़ होती है या नहीं। अगर होती है तो स्टील की होती है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी टट्न की आवाज़ करती है या फिर रबड़ की तरह होती है जो परिस्थितियों के अनुसार आगे-पीछे, दाएं-बाएं मुड़ती रहती है। यूँ तो सचिव, सचिव होता है, पर राज्य या भारत सरकार के सचिवों की शान ही निराली है। किसी भी सरकार के सचिवों की शान और ठसक को देखते हुए कहा जा सकता है कि उनके सामने पंचायत या अन्य संस्थाओं के सचिव तो गँगू तेली हैं।
भला कहीं राजा भोजों से गँगू तेलियों का मुकाबला हो सकता है। सरकार के सचिवों के तिलों में जो तेल होता है, वह अन्य सचिवों के तिलों में कहां? अन्य सचिव तो सरकार के सचिवों के कोल्हू पर तेल लेने के लिए लाईन लगा कर खड़े होते हैं। इसीलिए सरकार के सचिवों की महानता जानने के लिए ग्रीक पौराणिक इतिहास में वर्णित छद्म-अपोलोडोरस के पुस्तकालय की तरह बीबीसी से प्रसारित लोकप्रिय टीवी सीरियल 'यस मिनिस्टर' और भारत में उसके हिंदी संस्करण 'जी मंत्री जी' का अध्ययन आवश्यक हो जाता है। यह अध्ययन सरकार के सचिवों की महानता के बारे में प्रचलित उन विरोधाभासी कहानियों को समेटने का प्रयास करता है, जो उनकी विद्वता, प्रबंधन योग्यता, चरित्र और शक्तियों के बारे में भ्रम पैदा करती हैं। लेकिन भारत या राज्य सरकारों में सचिव बनना आसान काम नहीं। सालों रट्टू तोता बन कर किताबें चाटने और अखिल भारतीय परीक्षा पास करने के बाद जूनियर पदों पर काम करने के बाद कहीं जि़ंदगी के पाँचवें दशक में भारत सरकार में सचिव की कुर्सी नसीब होती है। राज्य सरकारों में यह फासला कुछ कम हो सकता है। हालाँकि मोदी सरकार ने इस प्रक्रिया को 'लेट्रल एंट्री' के माध्यम से आसान बनाने की कोशिश की है। लेकिन अभी यह कोशिश 'ज्वाइंट सेकरेट्री' तक ही संभव हो पाई है, वह भी केवल भारत सरकार में।
राज्य सरकारों ने अभी यह क्रांतिकारी क़दम नहीं उठाया है। राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन विशेषज्ञ इस बात पर हैरान हैं कि सरकार के सचिव या आईएएस की टोली, जो अपनी ताक़त से किसी को भी पराजित कर सकती है और जो अपनी दुम पर पाँव पड़ते ही काटने को दौड़ती है, ने अभी तक इस बात पर कोई बावेला खड़ा क्यों नहीं किया है। जबकि सचिव के पद तक पहुँचने के लिए आईएएस अधिकारी को हर साल विशेष शल्यक्रिया द्वारा नसबंदी के ऑप्रेशन की तरह अपनी रीढ़ का एक मनका निकलवाना ज़रूरी हो जाता है। जहाँ तक सरकार के सचिवों की विद्वता और प्रबंधन योग्यता का प्रश्न है, उनसे इस बारे कोई सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए। हाथ कँगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या। देश में सालों से चल रहे परिवार नियोजन, गऱीबी उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सडक़ें, वनीकरण, बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम आदि की ढोल पीटती सफलता और सार्वजनिक क्षेत्रों के बंद हो चुके या बिक चुके उपक्रम इसके साक्षात प्रमाण हैं। भारत में सचिवों का जन्म सुशासन और सुव्यवस्था की स्थापना के लिए ही होता है। उनका काम बंद एसी कमरों में बैठ कर हर समस्या के समाधान पर गहन विचार-विमर्श के बाद ऐसी व्यावहारिक योजनाओं के ब्लू प्रिंट बनाना है, जिनके भवन खोखली ज़मीन पर खड़े हों।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
By: divyahimachal

Rani Sahu
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