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- बजट का दूसरा सत्र:...
संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में अच्छी-खासी राजनीतिक गहमागहमी देखने को मिल सकती है, क्योंकि एक तो विपक्षी दलों के परोक्ष-प्रत्यक्ष समर्थन से कृषि कानून विरोधी आंदोलन जारी है और दूसरे, कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इसके चलते संसद में हंगामा होने के आसार हैं। हंगामे से हर्ज नहीं, लेकिन वह संसद के कामकाज में बाधक नहीं बनना चाहिए। विपक्ष अपने सवालों के जवाब तभी हासिल कर सकता है, जब वह सदन चलने दे। हालांकि बजट सत्र के पहले हिस्से में नए कृषि कानूनों पर व्यापक चर्चा हो चुकी है, लेकिन किसान संगठनों का धरना जारी रहने के कारण यह सवाल एक बार फिर उठ सकता है कि आखिर किसानों की सुनी क्यों नहीं जा रही है? ऐसे सवाल उठाने की तैयारी करने वाले इससे परिचित हों तो बेहतर कि ये किसान नेता हैं, जो कुछ सुनने-समझने को तैयार नहीं। उनका अड़ियलपन ही समस्या समाधान में बाधक बना हुआ है। किसानों के मसले के अलावा सरकार को इस पर भी घेरा जा सकता है कि वह निजीकरण पर इतना जोर क्यों दे रही है? ऐसे सवाल उस समाजवादी चिंतन की उपज हैं, जिसके तहत यह माना जाता है कि सब कुछ सरकार को करना चाहिए और यहां तक कि उद्योग-धंधे भी उसे ही चलाने चाहिए। इस धारणा को ध्वस्त करने का समय आ गया है, क्योंकि इसने देश के औद्योगीकरण की राह रोकने का ही काम किया है।