सम्पादकीय

नए खुदा की तलाश

Gulabi
9 Sep 2021 4:07 AM GMT
नए खुदा की तलाश
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हार कर मिजऱ्ा ग़ालिब भी चचा के तौर पर उनके लिए अपना सीना चाक कर के फरमा गए, ‘वर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर।

divyahimachal.

जी नहीं, यह स्व. मनमोहन देसाई की फिल्मों में दिखने वाला कोई कुंभ का मेला नहीं, जहां मां-बाप खो गए, भाई बहन खो गए और कहीं-कहीं तो पिता-माता भी खो गए। कितनी अच्छी होती हैं ये खोने-पाने वाली फिल्में। इनके खत्म होते न होते, आखिरी रील तक सब मिल जाते हैं और फिर ये सब लोग मिल कर चैन की बंसी बजाते हैं और गाते हैं, 'हम साथ-साथ हैं। लेकिन हमारे यहां अंधों की गति न्यारी है। शाम को लोग निकलते हैं तो भक्तजनों को झांझ करताल बजा ऊंचे स्वर में गाता हुआ पाते हैं, 'पितृ, मातृ, सहायक स्वामी सखा, तुम ही इक नाथ हमारे हो। अरे, किस नाथ की तलाश में चिल्ला रहे हैं, ये सब लोग। कभी जन-जन के नाथ हर कण में बसते थे। धन्ना भक्त ने तो पत्थर पूज कर उन्हें पा लिया था। लेकिन बीते ज़माने को अब कैसी आवाज़ें दें? पोंगापंथी धर्म के ठेकेदारों ने हमारे दीनानाथ को हमसे छीन लिया। अब तो सुना है ये नए नाथ ऊंची अ_लिकाओं के स्वर्णजनित मंडपों में जा विराजे। क्या गरीबों के नाथ और अमीरों के नाथ एक होते हैं? जी नहीं, नाथ तो सबके एक हैं, लेकिन दीन विहीन लोगों की आवाज़ उन तक आजकल नहीं जाती। बड़े-बड़े उत्सवों, शोभा यात्राओं और अंध श्रद्धा के सैलाब को पार करके यह कराह उन तक नहीं पहुंचती। हार कर मिजऱ्ा ग़ालिब भी चचा के तौर पर उनके लिए अपना सीना चाक कर के फरमा गए, 'वर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर।
आइए, इनको सड़कों, चौराहों, फुटपाथों पर तलाश करें। शाम होते ही वे अपनी बात कहने के लिए ऊंचे स्वर में विनय करते मिल जाएंगे। लेकिन बंधू आजकल खुदाओं ने अपनी बस्तियां बदल ली हैं। हमारे नाथ अपनी खुदाई के इन बड़बोले दावेदारों को देख कर शर्मिन्दा हो गए। कोसों चले जाओ, आजकल गणदेवता चुप रहते हैं। धनपतियों ने उन्हें उनकी कुटिया से निकाल सोने-जवाहरात और हीरे-पन्ने से लाद दिया। उनके मध्य जन आगे बढ़ आए। वे सब लोगों को नाथ से मिला देने का वायदा करते हैं, लेकिन यह नया युग है भाई, वह वायदा ही क्या जो वफा हो गया? बेवफा कभी लौट कर नहीं आते, सही नहीं। वे आने की कोशिश करते हैं, लेकिन आडम्बर, आशंका, संदेह और बनावट उनकी राह रोक लेते हैं। साहिर साहिब ने कभी फरमाया था, 'आसमान में है खुदा और ज़मीं पर हम, आजकल वह इस तरफ देखता ही कम। 'दिशा बोध खो गया और हमारी विनय जादू, टोने और चमत्कारÓ की वीथियों से भटकने लगी। आज लोग हथेलियों पर सरसों जमाना चाहते हैं, लेकिन हथेलियां भर गईं, सरसों कभी फूली नहीं। हमारे लिए रात की रानी कभी महकती नहीं। दो हाथों को काम, भर पेट भोजन, सर पर छत और बदन पर कपड़ा।
मामूली सपने थे, कैक्टस से बने सलीबों की भेंट हो गए। आखिर कितनी देर तक पत्थरों के तकिए को मां का आंचल समझ दुलराते रहे। भाई, क्या उपमा तलाशते हो आप भी। पत्थर के तकिए का भी क्या कभी मां के आंचल से मेल हो सकता है। कभी आप इस आंचल में दूध और आंखों में पानी की तलाश किया करते थे, पर नहीं साहिब, ज़माना बदल गया। अब नारी स्वातन्त्रय और उनकी नई शक्ति हाफ पैंट या कैप्री पहन कर नाच घरों में नाच रही है और कविवर पंत से उधार ले रेणु मैला आंचल फैला कर कहते हैं, भारत माता ग्रामीवासिनी शहरीकरण में खो गया तेरा मैला आंचल। इन आंचलों की तलाश छोड़ दो, आपकी भटकती हुई आवाज़ अब तलाशती है, कोई नई माता, कोई नया पिता। अब कुंभ के मेले बारह साल बाद नहीं, हर पांच साल के बाद सजते हैं, जब वायदों के पंखों पर आपकी वोटों के हुंकारे बटोरे जाते हैं। इनके जुमले आपकी किसी कस्तूरी मृग की तरह नए से नए मरुस्थलों में भटकाते हैं।
सुरेश सेठ


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