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मामूली बात पर दो लोगों में होने वाली झड़प के हिंसक टकराव या हत्या तक में तब्दील हो जाने की खबरें अक्सर आती हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। शहरों-महानगरों में सड़कों पर किसी मामूली बात पर दो लोगों में होने वाली झड़प के हिंसक टकराव या हत्या तक में तब्दील हो जाने की खबरें अक्सर आती हैं। गनीमत यह है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो अब तक किशोरों के बीच इसे छोटे-मोटे झगड़ों के अलावा किसी गंभीर प्रवृत्ति के रूप में नहीं देखा गया है। लेकिन उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर के एक स्कूल में जैसी घटना सामने आई है, वह सबके लिए एक तरह की चेतावनी है कि अगर विकास के सवालों में से सामाजिक व्यवहार, समाज में पलती-बढ़ती कुंठाओं और हताशा की वजहों को दरकिनार किया गया तो उसके अंजाम गंभीर हो सकते हैं।
बुलंदशहर के एक स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक छात्र ने अपने ही सहपाठी की सिर्फ इसलिए गोली मार कर हत्या कर दी कि सीट पर बैठने को लेकर दोनों के बीच झगड़ा हो गया था। इस घटना से एक छात्र इतना बेलगाम हो गया कि अगले दिन वह अपने फौजी चाचा की लाइसेंसी पिस्तौल बैग में छिपा कर ले आया और चलती कक्षा के बीच सहपाठी को गोली मार दी।
हो सकता है कि इसे किसी आम घटना की तरह नहीं देखा जाए और किशोर न्याय प्रणाली के तहत कार्रवाई का आधार आरोपी का नाबालिग होना बने। अपराध के लिए निर्धारित सजा किशोर को भुगतना होगा। मगर सवाल है कि आखिर वे कौन-सी वजहें होंगी जिनके चलते स्कूल में पढ़ने वाला कोई किशोर आपसी झगड़े के बाद इस हद तक बदले की भावना से भर जाए कि अपने सहपाठी की हत्या में ही उसे हल नजर आने लगे!
निश्चित रूप से घर में उसके अभिभावकों से लेकर स्कूल के शिक्षकों तक के बात-व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से ऐसा कुछ नहीं रहा होगा, जिसने उसके भीतर इस बेलगाम आक्रोश को ऐसे अभिव्यक्त करने की जमीन बनाई होगी। इसके बावजूद यह संभव है कि उसके आपसी झड़प के बाद उसके भीतर बदले की भावना के पीछे उसकी संगति से निर्मित मनोविज्ञान की भूमिका हो। फिर उसे सहजता से पिस्तौल उपलब्ध नहीं होती तो शायद इतनी गंभीर घटना नहीं होती। उसके चाचा फौजी हैं और उनके पास लाइसेंसी पिस्तौल होना आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन उस तक किसी बच्चे की पहुंच कैसे हुई? क्या इस तरह की लापरवाही को नजरअंदाज किया जा सकता है?
सामाजिक परिवेश या फिर स्कूल में बच्चों के बीच खेल-खेल में मामूली बातों पर नोंक-झोंक या फिर कभी थोड़ा या ज्यादा झगड़ा होता रहता है। अगर इसे आधार बना कर दोनों बच्चों के परिवार आपस में एक दूसरे के खिलाफ दुश्मन की तरह न खड़े हो जाएं, तो कुछ समय बाद फिर दोनों बच्चे आपस में एक दूसरे से साथ पहले की तरह ही बालसुलभ भावनात्मक तीव्रता के साथ खेलते-कूदते दिख जाते हैं। बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति यही है।
दरअसल, बच्चे परिवार और आसपास के समाज के बात-व्यवहार के बीच पलते-बढ़ते हैं। उनकी संगति उनके समूचे मनोवैज्ञानिक ढांचे को निर्धारित करती है, चाहे वह अपने परिवार की हो या आस-पड़ोस के लोगों की। उसके सोचने-समझने और खुद को अभिव्यक्त करने के तौर-तरीके इस पर निर्भर करते हैं कि उसका सामाजिक प्रशिक्षण कैसा हुआ है। कई बार किसी बच्चे को परिवार या उसकी संगति के लोग सीधे-सीधे हिंसा करने की सलाह नहीं देते हैं, लेकिन उनकी बातचीत या प्रतिक्रिया में ऐसे तत्त्व भरे रहते हैं, जिससे बच्चा अपनी मासूमियत और सहजता खोता चला जाता है।
अगर चौदह साल का कोई किशोर मामूली बात पर हुए झगड़े के बाद अपने सहपाठी के खिलाफ बदला लेने और हिंसक भावना से भर जाए तो यह परिवार, समाज और सरकार, सबके नाकाम होने का ही सबूत है।
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