सम्पादकीय

गुंजाइश : स्वास्थ्य सेवाओं में और सुधार जरूरी, आबादी के हिसाब से हों व्यवस्थाएं

Neha Dani
7 April 2022 1:45 AM GMT
गुंजाइश : स्वास्थ्य सेवाओं में और सुधार जरूरी, आबादी के हिसाब से हों व्यवस्थाएं
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बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने के लिए एक गंभीर पहल की जरूरत है।

यह सही है कि धीरे-धीरे हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो रहा है, लेकिन कोरोना काल में जिस तरह स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई थीं, उसने यह सोचने को मजबूर किया कि स्वास्थ्य सेवाओं में अभी बहुत सुधार होने जरूरी हैं। देश का स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होता, तो कोरोना की पहली और दूसरी लहर के दौरान जनता को और अधिक सुविधाएं दी जा सकती थीं। अनेक डॉक्टर खतरे उठाकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर अनेक निजी अस्पतालों का ध्यान आर्थिक लाभ प्राप्त करने पर ही रहा।

जब इस दौर में भी गंभीर रोगों से पीड़ित मरीजों के लिए अस्पतालों में स्ट्रेचर जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिल पाएं, तो देश की स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठना लाजिमी है। कुछ समय पहले नीति आयोग ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए खर्च बढ़ाने की जरूरत बताई थी। नीति आयोग के सदस्य वी.के. पाल ने कहा था कि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने और उन्हें देश के हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए केंद्र और राज्यों को मिलकर स्वास्थ्य सेवाओं की मद में खर्च बढ़ाना होगा।
यह कटु सत्य है कि देश में आबादी के हिसाब से स्वास्थ्य सेवाएं दयनीय स्थिति में हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का मात्र डेढ़ फीसदी ही खर्च होता है। दुनिया के कई देश स्वास्थ्य सेवाओं की मद में आठ से नौ फीसदी तक खर्च कर रहे हैं। वर्ष 1940 के बाद से संक्रामक रोगों से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। अब कई नए रोग हमारे सामने आए हैं और भविष्य में और नए रोग हमारे सामने आ सकते हैं।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, संक्रामक रोगों के बढ़ने की बड़ी वजह मानवशास्त्रीय और जनसांख्यिकीय बदलाव हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों अमेरिका के 'सेंटर फॉर डिजीज डाइनामिक्स, इकनॉमिक्स ऐंड पॉलिसी' (सीडीडीईपी) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में लगभग छह लाख डॉक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी है। भारत में 10,189 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर की सिफारिश की है।
हमारे देश में 483 लोगों पर एक नर्स है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एंटीबायोटिक दवाइयां देने के लिए उचित तरीके से प्रशिक्षित स्टाफ की कमी है, जिससे जीवन रक्षक दवाइयां मरीजों को नहीं मिल पाती हैं। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि आने वाले समय में हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियां भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेंगी। रिपोर्ट के अनुसार, सन 2012 से 2030 के बीच इन बीमारियों के इलाज पर करीब 6.2 खरब डॉलर (41 लाख करोड़ रुपये से अधिक) खर्च होने का अनुमान है।
रिपोर्ट में इन बीमारियों के भारत और चीन के शहरी इलाकों में तेजी से फैलने का खतरा बताया गया है। असंक्रामक रोग शहरी आबादी के स्वास्थ्य के लिए ही खतरा नहीं हैं, बल्कि इसके चलते अर्थव्यवस्था के भी प्रभावित होने का अनुमान है। बढ़ता शहरीकरण और वहां पर काम और जीवन-शैली की स्थितियां असंक्रामक रोगों के बढ़ने का मुख्य कारण है। वर्ष 2014 से 2050 के बीच भारत में चालीस करोड़ आबादी शहरों का हिस्सा बनेगी।
इसके चलते शहरों में अनियोजित विकास होने से स्थिति बदतर होगी। भारत में डॉक्टरों की उपलब्धता की स्थिति वियतनाम और अल्जीरिया जैसे देशों से भी बदतर है। हमारे देश में इस समय लगभग 7.5 लाख सक्रिय डॉक्टर हैं। डॉक्टरों की कमी के कारण गरीब लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने में देरी होती है। यह स्थिति अंततः पूरे देश के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर गठित संसदीय समिति ने पिछले दिनों जारी अपनी रिपोर्ट में यह माना है कि हमारे देश में आम लोगों को समय पर स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के अनेक कारण हैं।
इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं को और तीव्र बनाने की जरूरत है। विडंबना ही है कि भारत में दूसरी सरकारी योजनाओं की तरह स्वास्थ्य योजनाएं भी लूट-खसोट का शिकार हैं। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास हेतु बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को पटरी पर लाने के लिए एक गंभीर पहल की जरूरत है।

सोर्स: अमर उजाला

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