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सम्पादकीय
परसाई जी ने निंदा पर तो ख़ूब कहा, लेकिन चुगली पर कहना भूल गए। मुझे पूरा यक़ीन है कि अगर परसाई जी ने चुगली के भय से सरकारी नौकरी नहीं छोड़ी होती या कुंवारे रहने का आनंद नहीं उठाया होता तो चुगली पर अवश्य व्यंग्य करते। उनके इस अपराध के चलते चुगलख़ोरों को समाज में अब तक वह अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया, जिसके वे वास्तव में हक़दार हैं। कबीर भी निंदकों को आँगन में बसाने की सलाह अवश्य देते हैं लेकिन चुगलख़ोरों के साथ वह भी अन्याय कर गए। तुलसी बाबा ने अपकीर्ति या निंदा करने वालों पर तो कहा लेकिन चुगलख़ोरों पर दोहा कहना भूल गए। हो सकता है उस ज़माने में उन्हें राम के सामने अपने आप को प्रतिष्ठित करने या उनके नियरे होने में कोई दिक्कत न आई हो। आज होते तो देश में राम भक्तों की इतनी फ़ौज से राम के समीप आने की प्रतिस्पर्धा में निंदा के साथ चुगली की जुगलबंदी को देखते हुए चुगली पर पूरा महाकाव्य रच देते। जब तुलसी बाबा कहते हैं कि 'तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ। तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ' तो रोना आता है। भला कोई दूसरों की अपकीर्ति अर्थात् निंदा किए और उनको नीचा दिखाए बग़ैर आज तक स्वयं प्रतिष्ठित हो पाया है।
संत कबीर राम रस की बजाय राम के पीछे होते तो उन्हें पता होता कि निंदा करने और सुनने में क्या आनंद आता है। निंदा है ही ऐसी चीज़, जिसे करने और सुनने का आनंद ही अलग है। समय मानो पंख लगा कर उड़ जाता है। अब निंदा रस में बहने का नुक़सान देखिए। मैं चुगली खाना माफ कीजिए चुगली के बारे में बात करना ही भूल गया। यूँ तो किसी की चुगली किसी व्यक्ति को दूसरों के सामने नीचा दिखाने, ख़ुद को अच्छा साबित और अपने हित साधने के लिए की जाती है। यह एक आदत भी हो सकती है। लेकिन राज दरबार में प्रतिष्ठित होने या किसी के समीप जाने के लिए चुगली से बेहतर कोई उपाय नहीं। चुगली करने वाले धोनी के हैलीकॉप्टर शॉट की तरह इतने आत्मविश्वास से झूठ के सिक्स पर सिक्स लगाते हैं कि पकड़ना आसान नहीं होता। चुगली करने वाले अक्सर एक ही बार में कई पीढि़यों का कुरसीनामा खोल देते हैं और यह कहते हुए बात समाप्त कर देते हैं कि अरे वे तो ये सब आपके भले के लिए बता रहे हैं। नहीं तो उन्हें क्या पड़ी है। बाक़ी आप ख़ुद देख लें। अगर आप अच्छे चुगलख़ोर बनना चाहते हैं तो कुछ बातें हमेशा याद रखें। अन्यथा पकड़े जाने पर आपका करियर ख़तरे में पड़ सकता है।
चुगली करते समय कम से कम शब्दों में इतनी गहराई तक जाएं कि कोई आपके साथ डुबकी न लगा पाए। केवल किनारे पर खड़ा होकर आपको तैरता हुआ देख सके। चेहरे के हाव-भाव, चुगली के भाव से इस क़दर मेल खाएं कि सामने वाले को लगे कि आप से बड़ा उसका कोई ख़ैर-ख्वाह नहीं। निपुण चुगलख़ोर किसी भी व्यक्ति को आसानी से अपने शीशे में उतार सकता है। मेरे दो परिचित अधिकारी हैं, बरबस लाल और वर्मा। दोनों हर आने-जाने वाली सरकार में हमेशा राज दरबार में प्रतिष्ठित रहते हैं। अव्वल दरजे के कामचोर, लेकिन सौलह टंच धूर्त और चुगलख़ोर। दोनों ने अपने विभाग के अधिकारियों के खिलाफ सत्ता के गलियारों में ऐसा ज़हर घोला है कि सरकार ने पूरा विभाग को बाक़ायदा नक़ारा घोषित करते हुए ऐलान कर दिया है कि सारा विभाग यही दो अधिकारी चला रहे हैं। अब सरकार तो सरकार ठहरी। बेचारी के पास इतना सोचने की फुर्सत कहाँ कि ये दोनों लाल तो चौबीस गुणा सात सरकार को जगाने-सुलाने, उसका बिस्तर सुखाने और लगाने में व्यस्त रहते हैं, तो काम कौन कर रहा है। ऐसे ही प्रतिष्ठित तमाम महानुभावों को समर्पित एक दोहा : निंदा से चुगली भली, छिपे ज़ात-औक़ात। कान भरे जो शाह के, धारे सिर पर ताज।।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Gulabi Jagat
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