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वैज्ञानिक लंबे अर्से से एक ऐसे ईंधन की खोज में हैं, जो पर्यावरण और मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बगैर ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सके। वैज्ञानिकों की यह तलाश नाभिकीय संलयन (न्यूक्लियर फ्यूजन) पर समाप्त होती दिख रही है। नाभिकीय संलयन प्रक्रिया ही सूर्य व तारों की ऊर्जा का स्नोत है। जब दो हल्के परमाणु नाभिक (एटोमिक न्यूक्लियस) जुड़कर एक भारी तत्व के नाभिक का निर्माण करते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते है।
अमेरिका के प्रौद्योगिकी संस्थान एमआइटी ने निजी स्टार्ट-अप कॉमनवेल्थ फ्यूजन सिस्टम्स के सहयोग से स्पार्क नाम का एक छोटा नाभिकीय संलयन रिएक्टर जून 2021 से बनाने की शुरुआत करने की घोषणा की है, जिसमें 2035 तक बिजली उत्पादन शुरू किया जा सकता है। दरअसल, एमआइटी अपने इस नाभिकीय विकास कार्यक्रम (न्यूक्लियर डेवलपमेंट प्रोग्राम) के तहत पृथ्वी पर नाभिकीय संलयन प्रक्रिया द्वारा सूर्य जैसा एक ऊर्जा स्नोत बनाने की कोशिश शुरू करने जा रहा है।
इस बारे में आइटीईआर (इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर) पूरी दुनिया का साझा सपना है। इस परियोजना के तहत एक नाभिकीय रिएक्टर का निर्माण किया जाना है जिसमें नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया के आधार पर ऊर्जा से जुड़े अनुसंधान संपन्न होंगे। आइटीईआर की असेंबलिंग बीते 28 जुलाई को शुरू हुई है। इस परियोजना में रूस, जापान, अमेरिका, चीन, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ के साथ भारत भी शामिल है। हालांकि यह प्रोजेक्ट काफी खर्चीला है और इसकी कुल लागत 22 से 65 अरब डॉलर तक आंकी जा रही है।
नाभिकीय विखंडन पर आधारित वर्तमान रिएक्टरों की आलोचना का सबसे बड़ा कारण है इनसे ऊर्जा के साथ रेडियोएक्टिव अपशिष्ट पदार्थो (वेस्ट मटेरियल्स) का भी उत्पन्न होना। नाभिकीय विखंडन के सिद्धांत के आधार पर ही परमाणु बम बना। विखंडन रिएक्टर मनुष्य तथा पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। इनसे डीएनए में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) तक हो सकते हैं। इससे पीढ़ी दर पीढ़ी आनुवंशिक (जेनेटिक) दोषयुक्त संतानें पैदा हो सकती हैं। वहीं इस रिएक्टर से पैदा होने वाले रेडियोएक्टिव कचरे बहुत कम होते हैं तथा पर्यावरण को नुकसान नहीं होता।
रिएक्टर ईस्ट में कृत्रिम संलयन करवाने के लिए हाइड्रोजन के दो भारी समस्थानिकों (आइसोटॉप्स) ड्यूटेरियम और टिटियम को ईंधन के रूप में प्रयोग किया गया था। धरती के समुद्रों में ड्यूटेरियम काफी मात्र में मौजूद है। जबकि टिटियम को लीथियम से प्राप्त किया जा सकता है, जो धरती पर पर्याप्त मात्र में उपलब्ध है। इसलिए नाभिकीय संलयन के लिए ईंधन की कभी कमी नहीं होगी। ड्यूटेरियम में एक न्यूट्रॉन होता है और टिटियम में दो। अगर इन दोनों में टकराव हो तो उससे हीलियम का एक नाभिक बनता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। भविष्य में इसी ऊर्जा का इस्तेमाल टर्बाइन को चलाने में किया जाएगा, जिसके फलस्वरूप बिजली उत्पादन शुरू किया जा सकेगा।
संलयन के मूल में प्लाज्मा भौतिकी है। अत्यधिक तापमान पर इलेक्ट्रॉनों को नाभिक से अलग कर दिया जाता है और गैस प्लाज्मा बन जाती है। आवेशित कणों से बना प्लाज्मा बहुत ही सूक्ष्म वातावरण है। सरल शब्दों में कहें तो जिस हवा में हम सांस लेते हैं उससे तकरीबन दस लाख गुना घना है। प्लाज्मा ऐसे वातावरण पैदा करते हैं जिसमें हल्के तत्व फ्यूज हो सके और वह ऊर्जा दे सके। एक प्रयोगशाला में सफलतापूर्वक संलयन करवाने के लिए तीन शर्ते पूरी होनी चाहिए। पहला, बहुत अधिक तापमान ताकि उच्च ऊर्जा टकराव हो सके।
दूसरा, पर्याप्त प्लाज्मा कण घनत्व ताकि टकराव होनी की संभावना बढ़ाई जा सके और तीसरा, प्लाज्मा को एक जगह स्थिर बनाए रखने के लिए पर्याप्त परिरोध समय। संलयन रिएक्टर की दीवारों को प्लाज्मा के उच्च ताप से बचाने के लिए चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल किया जाता है जिससे प्लाज्मा पात्र की दीवारों को बिना स्पर्श किए चक्कर काटता रहता है। ड्यूटेरियम और टिटियम से बने हीलियम कण प्लाज्मा के चुंबकीय क्षेत्र में कुछ देर तक कैद रहते हैं। बाद में इन्हें डाइवर्टर पंप से बाहर कर दिया जाता है। चुंबकीय क्षेत्र से न्यूट्रॉन कण निरंतर दूर होते जाते हैं, क्योंकि वे आवेश रहित होते हैं। भविष्य में इन्हें एक ऊर्जा संयंत्र में पकड़कर ऊर्जा बनाना संभव होगा। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि नाभिकीय संलयन कार्यक्रम ऊर्जा संकट को दूर करने में और वैश्विक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होगा।