सम्पादकीय

विज्ञान के पास बहुत से सवालों का जवाब है, लेकिन फिर भी हर सवाल का जवाब नहीं

Rani Sahu
26 Nov 2021 7:40 AM GMT
विज्ञान के पास बहुत से सवालों का जवाब है, लेकिन फिर भी हर सवाल का जवाब नहीं
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1962 में 20 साल की उम्र में स्‍टीफन हॉकिंग को पता चला कि उन्‍हें एक मोटर न्‍यूरॉन बीमारी एएसएल (एमिट्रॉफिक लेटरल स्‍क्‍लेरोसिस) है

मनीषा पांडेय 1962 में 20 साल की उम्र में स्‍टीफन हॉकिंग को पता चला कि उन्‍हें एक मोटर न्‍यूरॉन बीमारी एएसएल (एमिट्रॉफिक लेटरल स्‍क्‍लेरोसिस) है और इस बीमारी का कोई इलाज नहीं. डॉक्‍टरों ने भविष्‍यवाणी की कि स्‍टीफन की हालत वक्‍त के साथ और बिगड़ती जाएगी. सुधार की कोई संभावना ने. डॉक्‍टरों ने अपनी तरफ से सारे जतन करने के बाद हॉकिंग को एक साल का समय दिया. बहुत ज्‍यादा हुआ तो दो साल. उससे लंबा जीवन नहीं है. लेकिन अपने समय के महान वैज्ञानिक स्‍टीफन हॉकिंग उसके बाद 56 साल तक जिए और 76 वर्ष की आयु में साल 2018 में उनकी मृत्‍यु हुई. इस बीच उनकी तमाम उपलब्धियां और काम मानव इतिहास की थाती है.

लेकिन स्‍टीफन कहानी ने जिस तरह पूरे मेडिकल साइंस और विज्ञान को सिर के बल खड़ा कर दिया, डॉ. गाबोर माते कहते हैं, "ये सच है कि विज्ञान बहुत कुछ जानता है, लेकिन शायद विज्ञान सबकुछ नहीं जानता. अब भी बहुत कुछ ऐसा है, जो विज्ञान की समझ और व्‍याख्‍याओं के परे है."
अपनी किताब "व्‍हेन द बॉडी सेज नो" में डॉ. माते वैंकूवर के हॉस्पिटल में आई उस महिला मरीज की कहानी सुनाते हैं, आखिरी स्‍टेज का कैंसर था. डॉक्‍टरों ने उसके आखिरी समय की घोषणा कर दी थी. परिवार को ताकीद की गई कि अब वक्‍त नजदीक है तो उसके पास रहें, उसे खुश रखें, उससे बातें करें. लेकिन कोमा में लाइफ सपोर्ट पर पड़ी उस मरीज के भीतर जाने कौन सा बदलाव हुआ कि वह ठीक होने लगी. उसके शरीर में पल रही मैलिगनेंट सेल्‍स (कैंसर कोशिकाएं) अपने आप खत्‍म होने लगीं. अगली टेस्‍ट रिपोर्ट में डॉक्‍टरों ने पाया कि उसके शरीर में मौजूद ऑटो किलर कोशिकाओं में अचानक आश्‍चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ था, जो मैलिगनेंट सेल्‍स को खुद ही खाकर खत्‍म कर रही थीं.
इसके पहले अपनी मौत की भविष्‍यवाणी के साथ उस महिला से डॉ. माते ने उनके जीवन और बचपन के बारे में लंबी बातचीत की, उसकी काउंसिलिंग की. डॉ. माते कहते हैं कि उस स्‍त्री के मन में बैठी निराशा और दुख उन मैलिगनेंट कोशिकाओं की खाद थे.
शायद मेडिकल साइंस इस सवाल का जवाब न दे सके कि वो मैलिगनेंट सेल्‍स अपने आप कैसे खत्‍म होने लगीं, लेकिन हमारे पास इस सवाल का जवाब है. हीलिंग से. घाव शरीर में नहीं, मन में लगे थे बहुत सारे. और मन के घावों के ठीक होने का अर्थ ये नहीं कि आप अतीत में जाकर अतीत को बदल देंगे, बल्कि उसका अर्थ है कि आप अतीत को दूर बैठकर ज्‍यादा संवेदना और अपनेपन के साथ देख पाएंगे. आप उसे बेहतर समझ पाएंगे. उन तमाम घटनाओं को, जो अबोध उम्र के मन पर लगी चोट है और जो वयस्‍क उम्र में कैंसर, ऑटो इम्‍यून बीमारियों के रूप में प्रकट होने लगती है. जैसाकि डॉ. माते बार-बार ये बात दोहराते हैं कि बीमारियां शरीर से पहले मन में घटित होती हैं. हमारे ब्रेन के इमोशनल सेंटर्स में. शरीर में उसकी अभिव्‍यक्ति बहुत बाद में होनी शुरू होती है
अभी ऐसी ही एक भीतर तक छू लेने और मन के आरपार हो जाने वाली कहानी मैंने एक दूसरी किताब में पढ़ी. अनिता मूरजानी की लिखी इस किताब का शीर्षक है- "डाइंग टू बी मी." अनिता की कहानी भी कुछ वैसी ही है, जो डॉ. माते ने अपनी किताब में सुनाई है.
अनिता को आखिरी स्‍टेज का कैंसर था. डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया था. उनके शरीर के सारे ऑर्गन्‍स ने काम करना बंद कर दिया और वो कोमा में चली गईं. लाइफ सपोर्ट पर अनिता अपने जीवन की आखिरी सांसें गिन रही थीं. कोमा में रहने के दौरान ही उनके भीतर एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई कि उनका पूरा जीवन किसी सिनेमा की रील की तरह उनके सबकॉन्‍शस में घूमने लगा.
बाद में तीन हफ्तों बाद वो पूरी तरह ठीक होकर अस्‍पताल से वापस आ गईं. पहले वो कोमा से बाहर निकलीं, फिर डॉक्‍टरों ने लाइफ सपोर्ट हटाया और फिर टेस्‍ट में पता चला कि उनके शरीर की मैलिगनेंट सेल्‍स अपने आप नष्‍ट होने लगी हैं. डॉक्‍टरों के लिए ये किसी करिश्‍मे से कम नहीं था. ऐसा तो नहीं होता कि मैलिगनेंट कोशिकाएं अपने आप ही अपना बोरिया-बिस्‍तर समेटकर शरीर को गुडबाय कह दें. या सुस्‍त पड़ी किलर सेल्‍स खुद इतनी सक्रिय हो जाएं कि बिना रेडिएशन और कीमोथैरपी की मदद के मैलिगनेंट सेल्‍स को मारना शुरू कर दें. लेकिन अनिता मूरजानी के केस में ये सबकुछ हुआ.
ये क्‍यों और कैसे हुआ, इसके बारे में विस्‍तार से अनिता अपनी किताब में लिखती हैं. वो अपने बचपन की कहानी सुनाती हैं कि कैसे बाहर से स्‍वस्‍थ और बहुत स्‍नेहिल सा दिखाई पड़ने वाला उनका बचपन भी भीतर से बहुत सारे अंतर्विरोधों, अवसाद और अकेलेपन से भरा हुआ था. वो एक भारतीय के रूप में हांगकांग में बीते अपने बचपन की कहानी सुनाती हैं और उन सारी चुनौतियों की, जो इस दुनिया में अपनी जगह पाने, कॅरियर पाने और प्‍यार पाने की कोशिश में उनके रास्‍ते में आईं.
जैसाकि किताब के शीर्षक से जाहिर है, कोमा में और डेथ बेड पर पड़ी अनिता की सारी लड़ाई खुद अनिता हो सकने की है. जीवन और परिस्थितियों ने उन्‍हें एक ऐसे व्‍यक्ति के रूप में ढाल दिया था, जो कभी ना नहीं बोल सकता था. जिसका काम हमेशा सबको खुश रखना, सबके हिसाब से चलना था. जब अनिता अपने मुंह से ना नहीं बोल पाईं तो उनके शरीर ने कैंसर के रूप में ना बोलने की शुरुआत की.
अनिता ने इस किताब में उस यात्रा के बारे में लिखती हैं, जो हमें हम होने से रोक देती है. हर वो भावना, हर वो बात, जो हम व्‍यक्‍त नहीं करते और सिर्फ अपने भीतर सहते हैं, वही आगे चलकर बीमारी का रूप ले लेती है. मौत का इतने करीब से साक्षात्‍कार कर लौटी अनिता मूरजानी की यात्रा का अगला पड़ाव वो सब हो सकना है, जो वो अब तक नहीं हो पाई थीं. यानि अपने मन का, अपनी खुशी का, अपनी इच्‍छा का इंसान.
खुद को प्‍यार करना, खुद को महत्‍व देना, खुद के फैसलों पर भरोसा करना, सबको खुश करने की कोशिश न करना, दूसरों की हर बात न मानना, जब दिल करे, तब ना बोलना और हां, सिर्फ तभी बोलना, जब अपने भीतर से ये आवाज आए.
जिंदगी के जो बुनियादी सबक अनिता मूरजानी ने मौत को इतने करीब से देखने के बाद सीखे, वो सबक हमें पहले ही सीख लेने चाहिए. हम अपने शरीर के साथ इस दुनिया में आते हैं और उसी के साथ वापस जाते हैं. पूरा जीवन इस शरीर के भीतर अवस्थित होता है. इसलिए हमारी सबसे पहली और सबसे बड़ी जिम्‍मेदारी सिर्फ और सिर्फ अपने प्रति है. अपने शरीर, मन और जीवन के प्रति.
इस जिम्‍मेदारी को उतनी ही जिम्‍मेदारी के साथ निभाना चाहिए, जितना जिम्‍मेदार हम दुनिया और जमाने से होने की उम्‍मीद करते हैं.


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