सम्पादकीय

स्कूल पर लिखी इबारतें

Subhi
31 July 2022 9:52 AM GMT
स्कूल पर लिखी इबारतें
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दीवारों पर लिखी इबारतें उर्फ ‘राइटिंग आन वाल्स’ का मुहावरा देश में शिक्षा के मौजूदा परिदृश्य पर सबसे सटीक बैठता है। हाल ही में घोषित दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम देश के सामने हैं। कुछ बातें हर वर्ष की तरह कि फिर लड़कियों ने बाजी मारी, सौ में सौ अंक पाने वाले भी सैकड़ों में, पनचानबे फीसद से ऊपर अंक लाने वाले दस हजार बच्चे और हर वर्ष की तरह नंबरों पर बुद्धिजीवियों की बातें।

प्रेमपाल शर्मा: दीवारों पर लिखी इबारतें उर्फ 'राइटिंग आन वाल्स' का मुहावरा देश में शिक्षा के मौजूदा परिदृश्य पर सबसे सटीक बैठता है। हाल ही में घोषित दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम देश के सामने हैं। कुछ बातें हर वर्ष की तरह कि फिर लड़कियों ने बाजी मारी, सौ में सौ अंक पाने वाले भी सैकड़ों में, पनचानबे फीसद से ऊपर अंक लाने वाले दस हजार बच्चे और हर वर्ष की तरह नंबरों पर बुद्धिजीवियों की बातें।

इन परिणामों को देखकर लगता है जैसे गरीब भारत का डूबता जहाज अब आसमान छू लेगा। लेकिन इस बीच यह भी सामने आया कि बुलंदशहर की जिस छात्रा तान्या सिंह ने 500 में 500 अंक प्राप्त किए हैं, उसका सपना दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने का है और ऐसा ही सपना बिजनौर की दसवीं की छात्रा का है, जिसने 600 में से 600 अंक प्राप्त किए हैं। ज्यादातर का सपना दिल्ली जैसे महानगर पहुंचने का है। लेकिन क्यों? जब दिल्ली क्षेत्र इन परिणामों के आधार पर पांचवें-छठे नंबर पर आ गया है तो आखिर कालेज की शिक्षा के लिए देश के दूरदराज हिस्सों के बच्चे दिल्ली क्यों आना चाहते हैं?

दो वर्ष पहले 2020 में बुलंदशहर के ही तुषार सिंह ने सीबीएसई की बारहवीं में समूचे भारत में शीर्ष स्थान हासिल किया था। पूरे देश और मीडिया में स्वागत हुआ और तभी उस बच्चे ने बताया था कि उसका सपना दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज में पढ़ने का है। लेकिन अफसोस कि सेंट स्टीफन कालेज ने उसे दाखिला नहीं दिया। उसने पूछा तो कालेज के पास कोई जवाब नहीं था।

आनलाइन के दिनों में मुश्किल से एक मिनट का टेलीफोन पर उसका इंटरव्यू लिया गया था और उसे फेल कर दिया गया। हारकर उसने हिंदू कालेज में दाखिला लिया। यह लिखते हुए मेरी कलम कांप रही है कि वह दलित छात्र था, लेकिन दिल्ली में बैठे किसी भी बुद्धिजीवी ने इस पर आवाज नहीं उठाई। जबकि दिल्ली, जेएनयू, जामिया, आंबेडकर विश्वविद्यालय में कई बुद्धिजीवी अलग-अलग मसले पर मुखर होते हैं।

लेकिन यहां प्रश्न दूसरा उभरता है कि हम देश के दूसरे स्कूल-कालेजों को बेहतर क्यों नहीं कर पा रहे? स्कूल-कालेजों में पुस्तकालय और प्रयोगशाला क्यों नहीं हैं? शिक्षक समय पर क्यों नहीं आते? आखिर व्यवस्था की कमजोर कड़ी क्या है? क्या वाकई दिल्ली विश्वविद्यालय या महानगरों में बेहतर पढ़ाई होती है?

अगर ऐसा होता तो महानगरों के अमीरों के आठ लाख बच्चे हर साल पढ़ने के लिए विदेश क्यों भागते? सभी का यह भ्रम दिल्ली पहुंचते ही टूट जाता है या शायद उनको पहले से पता भी होता है कि वे दिल्ली इन कालेजों की पढ़ाई के लिए नहीं आते। वे आते हैं दिल्ली के कोचिंग संस्थानों में पढ़ने के लिए, जिससे वहां सिविल सेवा, एमबीए और दूसरे सपनों की सड़क उन्हें मिल जाए।

बुलंदशहर मुश्किल से सत्तर किलोमीटर होगा दिल्ली से। वहां के कालेजों को क्यों ऐसा नहीं बनाया जा सकता, जिससे दिल्ली भागना न पड़े। शायद देश के 'क्रीमी लेयर' को यह एहसास न हो कि दिल्ली पहुंचने के बाद मुखर्जी नगर से लेकर करोल बाग या कालेजों के आसपास अनियमित बस्तियों में एक छोटी कोठरी में चार-चार नौजवान कैसे आर्थिक तंगी में दिन बिताते हैं। इससे एक तरफ दिल्ली से बाहर के कस्बों-नगरों का विकास अवरुद्ध हो गया है तो दिल्ली-मुंबई जैसे महानगर कई तरह की समस्याओं के दबाव में आ गए हैं।

संविधान में विकेंद्रीकरण माडल की बात बार-बार कही गई है। शायद ही कोई राजनीतिक दल होगा, जिसके घोषणा-पत्र में यह बात नहीं उठाई जाती हो। बावजूद इसके हर साल ऐसे परिणाम में अव्वल आए बच्चे दिल्ली पहुंचने की लालसा रखते हैं। इसी का दुष्परिणाम पिछले दिनों सामने आया, जब दिल्ली विश्वविद्यालय में केरल, तेलंगाना या दूसरे राज्यों के बच्चों की ज्यादा संख्या को देखते हुए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश परीक्षा की शुरुआत की गई है।

अभी तक के अनुभव इस परीक्षा के बारे में बहुत अच्छे नहीं लग रहे। कुछ बच्चे परीक्षा दे ही नहीं पाए तो कुछ आवेदन करने से वंचित रह गए। क्या शिक्षा का अर्थ सिर्फ परीक्षा-दर-परीक्षा है? या देश के सामाजिक आर्थिक विकास में भी उसकी कोई भूमिका है?

दूसरी इबारत पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती की है। इस भर्ती में घोर भ्रष्टाचार सात साल से चल रहा है। पहले राज्य की शिक्षक पात्रता परीक्षा में घोटाले और उसके बाद शिक्षक आयोग द्वारा सरेआम पिछले दरवाजे से भर्तियां, करोड़ों की हेराफेरी। प्रशंसा की जानी चाहिए उन बेरोजगार युवकों की जिन्होंने अपनी योग्यता के बल पर इस लड़ाई को जीता और अपराधी पकड़ में आ गए।

तीन महीने पहले राजस्थान आयोग में भी ऐसा ही हुआ और ऐसे ही कारणों से उत्तर प्रदेश शिक्षक भर्ती की परीक्षा रद्द करनी पड़ी थी। यह हाल तब है जब हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौटाला अपने आइएएस अधिकारियों सहित तिहाड़ जेल में शिक्षक भर्ती के मामले में ही बंद है। क्या देश के सामाजिक ताने-बाने की नैतिक गिरावट इस हद तक आ गई है कि किसी भी सजा का कोई डर नहीं बचा?

एक और मोटे अक्षरों की इबारत! उत्तर भारत के बुद्धिजीवी पिछले एक महीने से मुजफ्फरपुर, बिहार के प्राध्यापक ललन सिंह द्वारा तेईस लाख से ज्यादा रुपए का चेक लौटाने पर पहले दिन गदगद हुए तो अगले एक-दो दिनों में उन सबके सिर लटके हुए थे। लेकिन उस पूरी बहस से बिहार के कालेजों की गिरावट की ऐसी झलक मिली, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। बिहार में सैकड़ों कालेज हैं और हजारों विद्यार्थी हैं, लेकिन वे कभी खुलते नहीं हैं।

दुख इस बात पर होता है कि उपकुलपति बनने पर या किसी को प्रोफेसर का पद मिलने पर बधाई और शुभकामनाएं और आत्मकथा तो सामने आती रहती हैं, मगर ललन सिंह ने जो तस्वीर दिखाई उसे कोई नहीं बताता। अंजाम बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के ये बच्चे जो वहां शिक्षा की हकीकत को जानते हैं, वे दिल्ली, बनारस, प्रयागराज, कोलकाता से लेकर पुणे मुंबई की तरफ ही भागते हैं।

क्या राजनीतिकों को इस दुर्गति का एहसास नहीं होगा? निश्चित रूप से होगा, लेकिन उनकी पार्टी की तिजोरी ऐसे ही गोरखधंधे से भरी जाती है। जिलाधिकारी और आयुक्त भी जानते होंगे, मगर शायद ही किसी ने कभी किसी स्कूल या कालेज का दौरा किया हो और कठोर कदम उठाए हों। हालांकि संघ लोकसेवा आयोग के साक्षात्कार बोर्ड में उम्मीदवार यह कहते हैं कि वे शिक्षा के लिए काम करेंगे।

नई शिक्षा नीति को इस जुलाई में दो वर्ष पूरे हो रहे हैं। देश भर के हजारों विश्वविद्यालय कालेजों में मौजूदा पार्टी के समर्थक राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी इस शिक्षा नीति की प्रशंसा में हर रोज दीप जला रहे हैं। शाल ओढ़ रहे हैं। क्या महान भारत के इन महान विद्वानों से लेकर सामाजिक क्रांति के मसीहा और तथाकथित शिक्षाविद इन इमारतों को पढ़ पा रहे हैं?

जो बीमारी साफ दिख रही है और जो स्कूल-कालेजों की एक-एक ईंट पर लिखी हुई है, अच्छा हो हम उनके निदान खोजें। तुरंत उन पर कदम उठाएं, जिससे देश के कोने-कोने में बैठे मेधावी छात्र अपनी-अपनी जगह पर शिक्षा पा सकें। दिल्ली का बोझ भी नहीं बढ़ेगा और देश का समग्र विकास भी होगा।


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