सम्पादकीय

500 दिनों से स्कूल बंद, ऑनलाइन पढ़ाई विकल्प नहीं, मजबूरी है?

Gulabi
20 Sep 2021 7:55 AM GMT
500 दिनों से स्कूल बंद, ऑनलाइन पढ़ाई विकल्प नहीं, मजबूरी है?
x
ऑनलाइन पढ़ाई विकल्प नहीं

भारत में सामान्यत: 17 महीनों से प्राइमरी और मिडिल स्कूल बंद हैं. इस दौरान, वैश्विक महामारी कोरोना पर नियंत्रण के लिए लगाए गए लॉकडाउन के चलते सरकार ने शिक्षा की प्रणाली को ऑनलाइन किया हुआ है. साथ ही, भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना और सामाजिक व आर्थिक स्थितियों को देखते हुए शुरु में ही यह आशंका जताई गई कि देश की शिक्षा में डिजिटल विभाजन होगा, जिसका असर बड़ी संख्या में वंचित समुदाय के बच्चों की शिक्षा पर पड़ेगा.

इस बीच एक जो बड़ी बात हुई वह यह है कि कई कक्षाओं के बच्चों को बिना परीक्षा के ही अगली कक्षाओं में प्रवेश दे दिया गया, इस स्थिति में क्या सभी बच्चों ने गुणवत्तपूर्ण स्तर तक सीखा या नहीं सीखा, यह शिक्षाविदों के बीच विमर्श के लिए एक बड़ा मुद्दा रहा.
इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन
दूसरा तरफ, अगस्त 2021 में एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें देश के 15 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के 1,362 स्कूली बच्चों से बातचीत करके सर्वे के आधार पर ऑनलाइन और ऑफलाइन एजुकेशन से जुड़े तथ्यों को रखा गया है. बता दें कि इस सर्वे के अंतर्गत शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत देश के कई शिक्षाविद और अर्थशास्त्रियों के मार्गदर्शन में सौ से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संयुक्त तौर पर भाग लिया था.
सर्वे में असम, बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक सहित 15 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में किया गया. इस हालिया सर्वे की विशेषता है कि इसमें सरकारी स्कूलों के बच्चों को शामिल किया गया है, जो सामान्यत: वंचित समुदाय से आते हैं. इस रिपोर्ट को नाम दिया गया है- 'लॉक्ड आउट: इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन'.
'लॉक्ड आउट: इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन' रिपोर्ट और इस तरह की अन्य न्यूज स्टोरीज बताती हैं कि स्कूलों के बंद होने से छात्रों में साक्षरता दर में भारी कमी आई है, खासकर दलित और आदिवासी परिवारों के बच्चों में. लेकिन, स्कूल बंद होने से भारत में अन्य समस्याएं भी उभर रही हैं, जिनके बारे में बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है. उदाहरण के लिए, स्कूलों के बंद होने से मध्याह्न भोजन व्यवस्था चरमरा गई है, जो वंचित समुदाय के बच्चों के लिए भोजन की सुरक्षा के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रणाली के रुप में स्थापित होती जा रही थी.
स्वस्थ सामाजिक जीवन से वंचित
स्कूल बंद होने से कई सारे बच्चे एक स्वस्थ सामाजिक जीवन से वंचित हो गए हैं, देखा गया है कि यह स्वस्थ सामाजिक जीवन कई बार उन्हें उनके आसपास के परिवेश से हासिल नहीं होता है. इसी तरह, खास तौर पर कक्षा पहली से कक्षा आठवीं तक के बच्चों के बीच सीखने की खाई पहले के मुकाबले बहुत अधिक बढ़ गई है, कोराना महामारी के दौरान अमीरों के बच्चों की तुलना में वंचित समुदाय के बच्चे सीखने के मामले में पहले से कहीं बहुत अधिक पिछड़ गए हैं.
इस सर्वे का निष्कर्ष बताता है कि सरकारी स्कूल में वंचित परिवारों के बच्चों में ग्रामीण क्षेत्रों से महज 8 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों से महज 24 प्रतिशत ही नियमित रूप से ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई कर पा रहे हैं. यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों के परिजनों का मानना है कि स्कूल खुलने चाहिए. गए 500 दिनों में एक बड़ी इस रूप में आई है कि दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूल प्रशासन ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज पा रहा है, या यदि भेज भी रहा है तो वंचित समुदाय के परिजनों को इस बारे में जानकारी नहीं है.
हालांकि, इस दौरान यह भी देखा गया है कि जिन घरों में स्मार्टफोन हैं, वहां कई कारणों से बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं. इनमें कनेक्टिविटी, परिवार के दूसरे व्यक्ति के हाथ में मोबाइल होना, डाटा रिचार्ज कराने के लिए पैसे न होना और ऑनलाइन माध्यम से छोटी उम्र के बच्चों का नहीं पढ़ा पाना जैसे कारण शामिल हैं. सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में 65 प्रतिशत बच्चों को कनेक्टिविटी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है. वहीं, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के 40 प्रतिशत से अधिक बच्चों को ऑनलाइन कक्षाओं तथा वीडियो फॉलो करने में मुश्किल आ रही है.
ऑनलाइन स्कूल का विकल्प नहीं, मजबूरी है
ऑनलाइन पढ़ने वाले बच्चों के ज्यादातर परिजनों (ग्रामीण में 70 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 65 प्रतिशत) को यह लगता है कि कोरोना लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चे की पढ़ने और लिखने की क्षमता में गिरावट आई है. जाहिर है कि ऑनलाइन एजुकेशन स्कूलों की जगह नहीं ले सकता है और यह माध्यम स्कूलों का विकल्प नहीं बन सकता है, फिलहाल इसे मजबूरी के रूप में ही अपनाया जा रहा है.
वहीं, कोरोना लॉकडाउन से आई मंदी के कारण लोगों की आमदनी में भी भारी गिरावट दर्ज होने का असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ा है. सर्वे के नमूनों से यह स्पष्ट हुआ है कि 26 प्रतिशत बच्चे निजी से सरकारी स्कूलों में स्थानांतरित हो गए हैं, क्योंकि उनके परिजनों के पास निजी स्कूलों को अपने बच्चों की फीस जमा करने लायक पैसे नहीं हैं.
झारखंड के कुटमू गांव में इंटरव्यू के दौरान, 20 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों में से महज एक बच्चा ही धाराप्रवाह पढ़ने में सक्षम था. इस तरह के उदाहरणों से यह साफ हो रहा है कि पढ़ने और लिखने की क्षमता में भारी गिरावट के बावजूद बच्चों को पास कर दिया गया है. लेकिन, जैसे ही स्कूल खुलेंगे उन्हें आगे की कक्षाओं के पाठ पढ़ने, लिखने, सीखने और समझने में बहुत परेशानी आएगी.
यह सर्वे रिपोर्ट कहती है कि आगामी वर्षों में पाठ्यक्रम के साथ शिक्षण की पद्धतियों में बड़े बदलावों की आवश्यकता है, कोई बच्चा जब स्कूल में था तब वह पहली में था, कोरोना महामारी के दौरान स्कूल न जा पाने के कारण वह दूसरी कक्षा की पढ़ाई से वह छूट गया है, लेकिन फिर भी उसे तीसरे कक्षा में प्रवेश दे दिया गया है, जबकि आशंका है कि कहीं वह पहली कक्षा में सीखी पढ़ाई ही न भूल गया हो, क्योंकि इस दौरान उसे न ऑनलाइन और न ही ऑफलाइन एजुकेशन का लाभ मिल सका है. जाहिर है कि ऐसे में आगे सरकारी स्कूलों को एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ सकता है.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे, लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.


Next Story