सम्पादकीय

वर्ण व्यवस्था का दंश झेलती अनुसूचित जाति

Rani Sahu
23 Jan 2022 7:05 PM GMT
वर्ण व्यवस्था का दंश झेलती अनुसूचित जाति
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वर्ण व्यवस्था की जातीय पृष्ठभूमि का दंश स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी विकराल रूप धारण किए हुए है

वर्ण व्यवस्था की जातीय पृष्ठभूमि का दंश स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी विकराल रूप धारण किए हुए है। यह ऐसा बीज है कि शायद ही इसका समूल नाश कभी संभव हो सके। जातीय आधार पर इनसानों से भेदभाव का क्रम मनुष्यों के सभ्य होते ही पनप गया था। मनु महाराज की विखंडन कारी विकृत सोच ने इनसानों को इनसान न समझने का पाठ पढ़ाया जिसका खमियाजा भारतवर्ष की हजारों जातियां युगों-युगों से झेलती आ रही हंै। महात्मा कबीर के निराकार ईश्वरीय पैगाम ने समस्त हिंदुओं एवं मुस्लिमों को अपनी वाणी के माध्यम से सुधारवादी संदेश देकर चेताने का प्रयास किया, किंतु तत्कालीन एवं वर्तमान रूढि़वादी मानसिक विचारधारा के धनियों ने तथागत महात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन की भांति उनके निराकार ईश्वरीय संदेश को भी समाज में पनपने नहीं दिया क्योंकि इनकी युगों-युगों से चली आ रही ठगने की दुकानदारी बंद होती प्रतीत होती थी। जिस समाज में इनसान को इनसान न समझा जाता हो, पशुओं से बदतर तरीके से उसे हांका जाता हो।

कुत्तों-बिल्लियों को पास बैठाकर सहलाया जाता हो और इनसान को दुत्कारा जाता हो, उसे जूठन तक सम्मान से न दी जाती हो, ऐसे समाज से क्या सामाजिक समानता की अपेक्षा की जा सकती थी? ऐसी ही घृणित सोच का शिकार हिमाचल प्रदेश एवं भारतवर्ष के अन्य राज्यों में जीवन संघर्ष करती कबीरपंथी जाति भी है जिसे जुलाहा तथा चनाल अनुसूचित जाति के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि महात्मा कबीर जैसे महानतम सामाजिक सुधारवादी संत शिरोमणि का संबंध भी इसी अनुसूचित उपजाति से रहा है। आरंभिक दौर में यह अनुसूचित जाति काम के बदले थोड़ा बहुत अनाज मिल जाने से अपना जीवन बसर करती थी। सूत कातना, बुनना, सूत के कपड़े सिलना तथा मूंजी (एक प्रकार का घास) से रस्सियों को बनाना इसका मुख्य व्यवसाय था। जिसके बदले फसल आने पर स्याथा प्रथा पद्धति के अनुसार इन्हें अनाज प्रदान किया जाता था। मंडी जिला की एक घटना के अनुसार एक सूत कातने वाले कारीगर ने स्थानीय राजा को एक ऐसा सूत का बनाया हुआ बटुआ (पर्स) तैयार किया था जिसमें से केवल राजा ही धन निकाल सकते थे। कारीगर की कार्यकुशलता से प्रसन्न होकर राजा ने उसे भूमि दान तक कर की थी। देश का संविधान लागू होने से पूर्व इस जाति के लोगों को कभी भी इनसानों जैसा सम्मान नहीं मिला। अपने अहं भाव को त्यागकर ये सदा ही तिरस्कृत होने के लिए तैयार रहते थे। विरोध करना तो मानों इन्होंने सीखा ही नहीं था। अंग्रेजों के भारत आगमन के दौरान ये दोहरी पराधीनता तो झेल रहे थे, किंतु यदि किसी को अंग्रेजों के खानसामा, माली, धोबी या सेवादार बनने का सौभाग्य प्राप्त होता था तो ये स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे क्योंकि अंग्रेज इनकी परछाई तथा इनके द्वारा तैयार किए गए खाद्य पदार्थों को ग्रहण करते थे जो कि मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में इनको सुलभ नहीं था। ये अंग्रेजों एवं अन्य विदेशी शासकों के गुलाम होने के साथ-साथ मनुवादियों की क्रूर गुलामी झेल रहे थे जिसने इन्हें कभी भी सम्मान से नहीं जीने दिया था। यही इनके जीवन का अन्य शूद्र जातियों की भांति सबसे बड़ा अभिशाप था।
लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति एवं बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेदकर द्वारा संविधान में प्रदत्त शिक्षा के मौलिक अधिकारों के कारण इन्होंने विषम परिस्थितियों में पठन-पाठन आरंभ किया था, जिस कारण से अब इनके जीवन स्तर में परिवर्तन आना शुरू हो गया है। इनकी जीवन शैली बदली है, किंतु फिर भी कुछ ग्रामीण स्थलों पर जहां इस उपजाति के लोग अल्पसंख्यक हैं, इनके साथ किए जा रहे जातीय भेदभाव बदस्तूर जारी हंै। आज भी कुछ स्थानों पर यह जाति जातीय भेदभाव का शिकार है। सार्वजनिक उत्सवों के अवसर पर प्रीतिभोज के समय इनसे दुर्व्यवहार किया जाता है तथा भोजन परोसते समय ऐसे दुर्व्यवहार आम बातें हैं। समय बदला है, किंतु कुछ स्थानों पर ऐसी घृणित मानसिकता वाले लोग स्वयं को ऐसे कृत्यों को करने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। भारतीय समाज में अगर एकता लानी है, तो इन जातियों से जातीय भेदभाव खत्म करना होगा। हालांकि संविधान के अनुसार छुआछूत को रोकने की व्यवस्था है, लेकिन देश भर में कई ऐसे स्थान हैं जहां इन लोगों से जातीय भेदभाव होता है। कानून के जरिए समाज में समानता का भाव लाना मुश्किल है। इसलिए समाज को ही प्रेरणा लेकर इन लोगों से जातीय भेदभाव बंद करना होगा। यह भी दुखदायी है कि हमारे देश में ही जातीय भेदभाव होता है, अन्य समाजों में इस तरह का भेदभाव नहीं है। तभी तो भारतीय समाज अखंड नहीं है। भारतीय समाज बंटा हुआ है। यहां कोई उच्च जाति में है तो कोई निम्न जाति में है। दोनों जातियों में आपसी वैमनस्य की स्थिति है। जातीय भेदभाव के कारण समाज में एकता लाना संभव नहीं है। यह दुखद है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम जातीय भेदभाव खत्म नहीं कर पाए हैं तथा सामाजिक रूप से बंटे हुए हैं। यह भेदभाव खत्म करना ही होगा।
डा. राजन तनवर
एसोसिएट प्रोफेसर
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