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Written by जनसत्ता: शासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के अलावा सरकारी तंत्र की बहुत सारी जरूरी जानकारियों तक आम जनता की पहुंच के मकसद से चलाए गए एक लंबे अभियान के बाद सूचना का अधिकार यानी आरटीआइ कानून लागू हुआ था। उसके बाद यह उम्मीद की गई थी कि अब साधारण लोग भी अपने अधिकारों के साथ-साथ सरकार के कामकाज और उसकी प्रगति के बारे में खबर रख सकेंगे।
इससे सरकारों पर दबाव बढ़ेगा कि वे किसी काम या योजना पर अमल करने के मामले में पारदर्शिता रखें और ईमानदारी बरतें, ताकि जनता को जवाब देते समय उन्हें अपने ही काम को लेकर असहज करने वाले सवालों का सामना नहीं करना पड़े। विडंबना यह है कि सूचना का अधिकार कानून के लागू होने के डेढ़ दशक के बाद अब हालात ऐसे होते जा रहे हैं कि उसमें सरकारें इस नियम के तहत मांगी गई जानकारी देने में भी आनाकानी कर रही हैं। यह खबर एक संदर्भ हो सकती है कि दिल्ली के स्कूलों में कक्षा निर्माण में भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर आरटीआइ कानून के तहत पूछे गए सवाल का जवाब तीन साल बाद भी नहीं मिलने पर भाजपा ने दिल्ली की 'आप' सरकार को घेरा है। मगर पिछले कुछ समय से इस कानून पर ईमानदारी से अमल को लेकर दिल्ली सरकार पर जैसे सवाल उठ रहे हैं, वह अफसोसनाक है।
गौरतलब है कि हाल ही में केंद्रीय सूचना आयोग ने दिल्ली के उपराज्यपाल को पत्र लिख कर अरविंद केजरीवाल सरकार की ओर से आरटीआइ कानून, 2005 को सही तरीके से लागू नहीं करने की बात कही थी। आयोग ने पत्र में कहा था कि अपीलकर्ताओं के साथ वास्तविक जानकारी को साझा करने से इनकार किया जाता है या उन्हें गुमराह करने के उद्देश्य से गलत जानकारी दे दी जाती है।
इस पर उपराज्यपाल ने नियमों के मुताबिक जल्द से जल्द सुधारात्मक कार्रवाई करने के निर्देश भी दिए थे। मगर जवाब में दिल्ली सरकार ने दावा किया कि वह इस कानून को सही मायने में लागू करती है। उसने सूचना आयोग पर राजनीति का हिस्सा बनने का आरोप लगाया। लेकिन अगर ऐसी शिकायत की खबर सामने आती है कि राजस्व विभाग की जानकारी लेने के लिए जब भी आरटीआइ के तहत जानकारी मांगी गई, तो उसके लगभग साठ फीसद जवाब गलत तरीके से पेश किए गए, तो क्या इसका जवाब सिर्फ कोई अन्य आरोप हो सकता है?
दरअसल, आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सूचना का अधिकार कानून बनाने के अभियान के जरिए ही आगे बढ़ते हुए अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था और इसी मुद्दे से उनकी सार्वजनिक पहचान बनी थी। इस कानून के मूल उद्देश्यों यानी ईमानदारी और पारदर्शिता को उन्होंने अपने शासन का सिद्धांत बनाने का संदेश दिया था। मगर आज हालत यह है कि जब दिल्ली में उनकी सरकार है, तब उन पर इसी कानून का ठीक से पालन नहीं करने के आरोप लग रहे हैं।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सूचना का अधिकार कानून जब से लागू हुआ है, तब से यह आम जनता के हक में शासन से जवाब तलब करने के कारगर औजार के तौर पर काम कर रहा है। विचित्र यह है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसकी उपयोगिता और अहमियत को स्वीकार करती हैं, मगर सत्ता में आने के बाद इसी कानून को ईमानदारी से लागू करने को लेकर उनका रुख बदल जाता है। सवाल है कि कथनी और करनी की कसौटी का यह फर्क रखते हुए कोई भी पार्टी आम जनता से अपने लिए कब तक और किस भरोसे की अपेक्षा रखती है!