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मेरे दो पसंदीदा अभिनेता इस समय आमने-सामने हैं
शशि शेखर
मेरे दो पसंदीदा अभिनेता इस समय आमने-सामने हैं। मुंबइया सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर अजय देवगन को 'राष्ट्रभाषा' की चिंता है, तो किच्चा सुदीप मातृभाषा कन्नड़ को लेकर संवेदनशील हैं। यही नहीं, सदियों से हिन्दुस्तानी तहजीब का हिस्सा रहे हिजाब, नकाब, तिलक, भगवा और हमारे भोजन तक किसी न किसी विवाद का हिस्सा या उसके जनक हैं।
महाराष्ट्र से चर्चा शुरू करता हूं। सियासी वनवास झेल रहे राज ठाकरे ने अजान बनाम हनुमान चालीसा का मुद्दा उठाया। वह इसका लाभ उठा पाते, उससे पहले ही सिनेमा से सियासत में आईं निर्दलीय सांसद नवनीत राणा ने उसे लपक लिया। उन्होंने घोषणा कर डाली कि मैं अपने समर्थकों सहित 'मातोश्री' जाकर हनुमान चालीसा का पाठ करूंगी। शिव सैनिकों के लिए 'मातोश्री' किसी तीर्थस्थल से कम नहीं। इसे सेना संस्थापक बाल ठाकरे ने बनाया था। उनका कुटुंब आज भी वहीं रहता है। इनमें महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी हैं। नतीजतन, शिव सैनिकों के तमाम जत्थे नवनीत और विधायक पति रवि राणा के घर के बाहर नारेबाजी करने लगे। पुलिस ने इसके जवाब में राणा दंपति को राजद्रोह के आरोप में बंद कर दिया। क्या उनकी घोषणा राजद्रोह थी? इस विवाद में एक और सवाल उठता है कि यदि माननीय सांसद को हनुमान चालीसा पढ़नी ही थी, तो उन्होंने इस नेक काम के लिए 'मातोश्री' को ही क्यों चुना?
हम उस दुर्भाग्यशाली दौर में जा खडे़ हुए हैं, जहां युद्धरत दोनों पक्ष न समूचे तौर पर सच्चे हैं, न पूरी तरह झूठे। सत्य की खोज की सार्थक परंपरा रखने वाला हिन्दुस्तान आज अर्द्धसत्य की आग से झुलसते दौर में बसर कर रहा है।
यही वजह है कि अब हर प्रशासनिक कार्रवाई और घोषणा को बेवजह के विवाद घेर लेते हैं। एक उदाहरण देता हूं। दिल्ली की जहांगीरपुरी में 'अतिक्रमण हटाओ दस्ता' पहुंचा, तो उसे ऐसे प्रचारित किया गया, जैसे एक 'हिंदूवादी सरकार' का बुलडोजर मस्जिद गिराने जा पहुंचा है। हालांकि, वहां हिंदुओं के अतिक्रमण भी हटाए गए और राजधानी में 'अतिक्रमण हटाओ' अभियान आज तक जारी है। इसी तरह, राजस्थान के अलवर में तीन मंदिरों को बुलडोज किए जाने के बाद से वैमनस्य भड़क उठा है। करौली के दंगे ने पहले से ही वहां माहौल गरम कर रखा था, इस घटना ने उसे अलाव बना दिया।
इस सारे हंगामे में हमेशा की तरह मूल मुद्दा दब गया कि हुकूमत ने अपने काम को कैसे अंजाम दिया? क्यों नहीं अपेक्षित सावधानी बरती गई? कहीं इस सारे तमाशे के पीछे कर्नाटक और राजस्थान में अगले साल होने वाले चुनाव तो नहीं हैं? सब जानते हैं कि धर्म, जाति और भाषा का तंदूर सियासी रोटियां सेंकने के लिए बेहद मुफीद साबित होता है। राजस्थान में तो पहले दिन से ही मामला भाजपा बनाम कांग्रेस बन गया था, अब कर्नाटक के नेताओं ने भी किच्चा सुदीप के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया है। आने वाले कुछ दिन अब उन पार्टी प्रवक्ताओं, सामाजिक हस्तियों और अभिनेताओं के होंगे, जो अपनी प्रतिभा का उपयोग जहालत फैलाने में करते हैं। सवाल उठता है, क्या 21वीं शताब्दी के भारत के सामने धार्मिक, सांप्रदायिक अथवा भाषायी गुत्थियों के अलावा कोई अन्य उलझन या परेशानी नहीं है? हमारे कलहप्रिय राजनेता सोचते क्यों नहीं कि दुनिया के सामने हम देश की कैसी छवि प्रस्तुत कर रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि हर राज्य और राजनेता सिर्फ विवाद ही जन रहे हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने महाराष्ट्र के वितंडावाद से सबक लेते हुए त्वरित कार्रवाई की। सभी धर्मों के प्रमुख लोगों को इकट्ठा कर उन्हें हाईकोर्ट के वर्ष 2020 के न्यायिक आदेश से रूबरू कराया गया। नतीजतन, एक लाख से अधिक लाउडस्पीकर या तो उतार दिए गए या उनकी ध्वनि सीमित कर दी गई। यह सब कुछ सहमति से हुआ। खुद गोरखपुर की गोरक्षपीठ के लाउडस्पीकरों की ध्वनि धीमी कर पीठाधीश्वर योगी ने सबको प्रेरित किया। प्रसंगवश, यह बताने में हर्ज नहीं कि योगी 'बुलडोजर संस्कृति' के जनक हैं। उन्होंने ही मौजूदा मुख्यमंत्रियों में सबसे पहले दंगाई से क्षतिपूर्ति की राशि वसूलने के पुराने कानून का इस्तेमाल किया था। यही वजह है कि रमजान और रामनवमी के मौके पर उत्तर प्रदेश शांत रहा।
याद करें। दंगों के बाद नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात में कट्टरपंथी तत्वों पर बिना किसी भेदभाव के कड़ी नकेल कसी थी। मोदी का जोर दंगामुक्त और विकासयुक्त गुजरात बनाने का था। योगी क्या अपने 'राजनीतिक गुरु मोदी जी' की बनाई राह पर आगे बढ़ चले हैं? भाजपा के अन्य मुख्यमंत्री चाहें, तो उनसे सबक हासिल कर सकते हैं।
भारतीय राजनीति का यह पुराना मर्ज है कि हम नकारात्मक मुददों पर ज्यादा जोर देते हैं। हिन्दुस्तान के पास कलपने के बजाय इठलाने के लिए बहुत कुछ है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से जिस तरह दुनिया के दिग्गज देशों के आला नेता नई दिल्ली के चक्कर लगा रहे हैं, वह जताता है कि विश्व-बिरादरी हमारी ओर उम्मीद से देख रही है। यह पहला मौका है, जब भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर सार्वजनिक मंचों से इंग्लैंड, अमेरिका सहित समूचे यूरोप को कडे़ शब्दों में नसीहत देते नजर आते हैं। हर समय गुर्राने और धमकाने वाले अमेरिका के सुर बदल गए हैं। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री नई दिल्ली में जिस चिकनी-चुपड़ी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह पहले से काफी अलग है। सिर्फ अपै्रल में तीन देशों के शीर्षस्थ नेता दिल्ली की परिक्रमा कर लौट चुके हैं। आप चाहें, तो इसे बदली हुई परिस्थितियों में उभरता हुआ 'नया भारत' कह सकते हैं।
यही नहीं, विश्व बैंक ने वित्तीय वर्ष 2022-23 का जो आकलन किया है, उसमें कोरोना और यूक्रेन युद्ध के बावजूद भारत की विकास दर आठ फीसदी रहने की उम्मीद जताई गई है। इसके पूर्वानुमान में 0.7 प्रतिशत की कटौती तो की गई है, पर सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं की सूची में हमारा नाम काफी ऊपर रखा गया है। दुनिया की सोच हमारे लिए बदली है, हम कब बदलेंगे?
जिन्होंने खुद को बदला, वे दुनिया में देश का नाम रोशन कर रहे हैं। भरोसा न हो, तो फॉच्र्यून-500 श्रेणी की कंपनियों की सूची पर नजर डाल देखिए। तमाम कॉरपोरेशन ऐसे हैं, जहां भारतीय मूल के लोग मुख्य कार्यकारी की भूमिका में हैं। ब्रिटेन में तो वित्त मंत्री ऋषि सुनक को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा है और भारत में जड़ें रखने वाली कमला हैरिस अमेरिका में उप-राष्ट्रपति हैं। हम हिन्दुस्तानी, जो बाहर जाकर किस्म-किस्म के कमाल रचते हैं, अपना घर संवारना और सहेजना कब सीख पाएंगे?

Rani Sahu
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