सम्पादकीय

सावरकर जयंती : सिनेमा को लेकर सावरकर और भगत सिंह एक तरफ थे तो गांधीजी दूसरी तरफ

Gulabi Jagat
28 May 2022 7:12 AM GMT
सावरकर जयंती : सिनेमा को लेकर सावरकर और भगत सिंह एक तरफ थे तो गांधीजी दूसरी तरफ
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स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सिनेमा के महत्व को स्वीकार करते हुए डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि
विष्णु शर्मा |
स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सिनेमा के महत्व को स्वीकार करते हुए डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि, "भारत को एक करने वाली दो ही शक्तियां हैं, पहला गांधी और दूसरी फिल्में." लेकिन ये भी अजीब इत्तेफाक था कि गांधी (Gandhi) फिल्मों को पसंद नहीं करते थे, वहीं आम जनमानस में उनके विरोधी के तौर पर विख्यात सावरकर और भगत सिंह (Bhagat Singh) दोनों ही फिल्मों को पसंद करते थे. आज ये तीनों ही व्यक्तित्व तमाम फिल्मों, नाटकों, सीरियल्स, यूट्यूब वीडियोज के केन्द्र में हैं. सावरकर की आज जयंती है (Savarkar Jayanti) तो शुरूआत उन्हीं से, कई बार लता मंगेशकर ने सावरकर से अपने पारिवारिक रिश्तों और फिल्मों में आने की अपनी प्रेरणा के तौर पर उनका जिक्र किया है. सावरकर ने लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर की थिएटर कम्पनी के लिए एक नाटक भी लिखा था- संन्यास खड़ग. जिसका एक गाना काफी लोकप्रिय हुआ था- शत जन्म शोधिताना. जिसमें सावरकर युद्ध में गए सैनिक की पति वियोग में तड़प रही पत्नी के मन की व्यथा कहते हैं. इससे आप साफ अंदाज लगा सकते हैं कि सावरकर का थिएटर से शुरू से ही गहरा लगाव था.
रत्नागिरी की नजरबंदी के दौरान ही उन्होंने दलितों और अछूतों के उद्धार का जो अभियान शुरू किया था, उसमें थिएटर और नाटकों का भी बड़ा रोल था. जब उनके लिखे नाटकों के शोज होते थे, तो आगे की सीटों के मुफ्त पास दलितों को बांट दिया करते थे. एक दिन तो मजिस्ट्रेट ने आपत्ति जताई कि कानून व्यवस्था बिगड़ी तो कौन जिम्मेदार होगा, तो सावरकर ने ये जिम्मेदारी अपने सर ले ली. एक बार रत्नागिरी में नजरबंदी खत्म होने के बाद सावरकर ने पश्चिमी महाराष्ट्र के दौरे की योजना बनाई और उनका पहला पड़ाव था कोल्हापुर. वहां पहुंचे तो तमाम लोगों के बीच उनका स्वागत करने वालों में मराठी सिनेमा की तब की बड़ी हस्ती बाबूराव पेंढारकर भी थे. जुलूस और भाषण आदि के बाद उनको स्थानीय थिएटर में ले जाया गया और मूवी दिखाई गई अशोक कुमार और देविका रानी की अछूत कन्या. सावरकर सिनेमा को समाज बदलने का साधन मानते थे. ये मूवी उनके मन के विषय पर थी. हां वो चाहते थे कि सिनेमा के जरिए जीत की, प्रेरणा की, वीरता की कहानियां बताई जानी चाहिए, हार की नहीं. शायद आज के दौर में रिलीज हुई पानीपत उन्हें पसंद नहीं आती.
सावरकर सिनेमा के डाई हार्ड फैन थे
बहुत कम लोगों को पता है कि सावरकर ने सिनेमा से जुड़े जो नए मराठी, हिंदी शब्द दिए, उनमें से कई आज भी चल रहे हैं. जब सावरकर पेंढरकर के हंस पिक्चर्स स्टूडियो गए तो इंग्लिश में बोर्ड्स देख कर बड़े निराश हुए. तब उन्होंने जो नाम मराठी में सुझाए, वो आज हिंदी जगत में भी लोकप्रिय हो गए हैं- जैसे डायरेक्टर के लिए दिग्दर्शक, थिएटर के लिए कलाग्रह, सिनेमा हॉल के लिए चित्रगृह या चित्रपट गृह, मूवी के लिए चित्रपट, फोटोग्राफी के लिए छायाचित्रण, कॉस्ट्यूम के लिए वेशभूषा आदि. बाद में उन्होंने एक डायरेक्ट्री ऐसे नए शब्दों की बनाई थी, जैसे सेलरी के लिए वेतन, नम्बर के लिए क्रमांक, लेजिस्लेचर के लिए विधिमंडल, पोस्ट के लिए डाक, रजिस्ट्रेशन के लिए पंजीकरण, टेलीवीजन के लिए दूरदर्शन, टेली प्रिंटर के लिए दूरमुद्रक आदि.
थिएयर से जुड़ी एक और घटना नासिक की है. 1924 में सावरकर को प्लेग प्रभावित रत्नागिरी से तीन महीने दूसरे शहरों में जाने की अनुमति मिली, तो वो नासिक जा पहुंचे. फिर एक बार वही थिएटर था, जिसमें उनके शिष्य अनंत कन्हेरे ने नासिक कलेक्टर जैक्सन की हत्या की थी. उसी विजयानंद थिएयर में उस दिन सावरकर के सम्मान में राजसंन्यास मराठी नाटक का मंचन किया गया. सम्भाजी की हत्या पर बने इस नाटक के इंटरवल में लोकमान्य तिलक के दामाद विश्वासनाथ राव केलकर ने जब उनका मंच पर स्वागत कर दो शब्द बोलने को कहा तब सावरकर भावुक हो गए, बोले- अंडमान जेल में मुझे जो यातना मिली, जो दौर मैंने देखा, उसके चलते मुझे सपने में भी यकीन नहीं था कि मैं कभी किसी थिएटर में कोई नाट्य मंचन भी फिर कभी देख पाऊंगा, ये था थिएयर के प्रति उनका लगाव.
गांधीजी के बारे में मशहूर है कि उन्होंने जिंदगी में बस एक मूवी देखी और वो थी विजय भट्ट की रामराज्य, जबकि हकीकत ये थी कि थिएटर में भले ही उन्होंने यही मूवी देखी होगी, लेकिन उनकी जिंदगी की पहली मूवी थी मिशन टू मास्को, जो थिएटर के बजाय पोरबंदर के एक बिजनेसमेन के मुंबई वाले बंगले में दिखाई गई थी. गांधीजी के लिए स्पेशल आयोजित इस शो के लिए म्युनिसिपेलिटी से अनुमति लेकर बिजली के तार बिछाए गए थे. ये बिजनेसमेन थे शांति कुमार मोरारजी, उनकी एक शिपिंग कम्पनी थी, बाद में उनको भी कस्तूरबा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट में रखा गया था.
गांधी जी को 'राम राज्य' भी पसंद नहीं आई थी
दरअसल भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तारी के बाद उन्हें पूना के आगा खां पैलेस में रखा गया था, यहां 22 फरवरी 1944 को कस्तूरबा स्वर्गवासी हो गईं. उसके बाद गांधीजी थोड़े निराश हो गए, तीन मई को उन्हें मलेरिया ने अपनी गहरी चपेट में ले लिया, और अंग्रेजी सरकार ने उनकी तबियत खराब होते देख जेल से छोड़ने में ही गनीमत समझी. जहां से छह मई को उन्हें जुहू, मुंबई में शांति कुमार मोरारजी के समुद्र किनारे के बंगले में ले जाया गया, वहीं उनके साथ विजय लक्ष्मी पंडित व सरोजिनी नायडू भी थीं.
ये तारीख थी 21 मई 1944, जब पहली बार गांधीजी ने कोई मूवी देखी थी, दरअसल इसके लिए उन्हें मीरा बेन ने काफी दवाब डाला था. उस मूवी में एक बॉलरूम डांसिंग का सीन था और कम कपड़ों में नाचतीं लड़कियों को देखकर गांधीजी नाराज हो उठे, गांधीजी ने उन्हें ऐसा अश्लील नृत्य दिखाने के लिए सभी को डांट लगाई. गांधीजी पहले ही सिनेमा को पसंद नहीं करते थे, लोग उनसे कई बार सिनेमा का प्रयोग अच्छी बातों, समाज सुधार के प्रसार के लिए करने की बात कहते थे, लेकिन गांधीजी उन्हें चुप कर देते थे.
जानेमाने आर्ट डायरेक्टर कनु देसाई ने मिशन टू मास्को के बाद गांधीजी को भारतीय फिल्में देखने की सलाह दी कि उनमें ऐसा कुछ नहीं है, आपको पसंद आएंगी. बड़ी मुश्किल से गांधीजी गुजराती डायरेक्टर विजय भट्ट की मूवी राम राज्य देखने को राजी हुए थे, लेकिन शांति कुमार दावा करते हैं उन्हें ये मूवी भी पसंद नहीं आई थी. उन्होंने लिखा है कि वो मूवी में इतने शोर शराबे और हंगामे से खुश नहीं थे. गोलमेज सम्मेलन के दौरान जब वो लंदन गए थे, तब खुद चार्ली चैप्लिन उनसे मिलने आए थे, गांधीजी उनसे मिल तो लिए, लेकिन इससे पहले उनके बारे में जानते बिलकुल नहीं थे.
भगत सिंह फिल्मों के बेहद शौकीन थे
गांधीजी ने एक बार तो सिनेमा को सिनफुल टेक्नोलॉजी तक बोल दिया था, 1938 में जब भारतीय सिनेमा की सिल्वर जुबली पर गांधीजी से स्मारिका के लिए संदेश मांगा गया तो उन्होंने साफ मना कर दिया था. एक बार तो बाद में सात हिंदुस्तानी जैसी फिल्म से अमिताभ जैसे सुपर स्टार को मौका देने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास तक ने गांधीजी को सिनेमा के प्रति इस उदासीनता पर खुला पत्र लिख दिया था. लेकिन गांधीवादी इसके लिए गांधीजी की उसी रणनीति का हवाला देते हैं, जिसमें गांधी इंडस्ट्रीज के विरोधी थे, ग्राम्य विकास के हिमायती थे, दरअसल गांधीजी को पता था कि आम व्यक्ति को कैसे जोड़ना है, जो तब तक सिनेमा नहीं देखता था, इसलिए वो थिएटर, स्ट्रीट प्ले आदि को तो पसंद करते थे, लेकिन सिनेमा को नहीं.
जबकि भगत सिंह फिल्मों के बेहद शौकीन थे, हालांकि वो ज्यादातर वही फिल्में देखना पसंद करते थे, जिसमें किसी ना किसी समुदाय पर अत्याचार हो, और उस समुदाय का कोई हीरो उठकर अत्याचारियों का मुकाबला करे. एक बार उनके फिल्म देखने के शौक के चलते क्रांतिकारियों के इतिहास में एक बड़ा फैसला हुआ था. ये वाकया 1927-28 का है, अंकल टॉम्स केबिन नाम की एक अंग्रेजी फिल्म भारत के भी सिनेमाघरों में लगी थी, मूक फिल्मों का दौर था ये, इस फिल्म के डायरेक्टर थे हैरी ए पोलार्ड. इस फिल्म में अमेरिकी हब्शी गुलामों पर होने वाले अत्याचारों को दिखाया गया था. फिल्म के पोस्टर को देखकर भगत सिंह का मन फिल्म देखने का करने लगा, उनके साथ विजय सिन्हा और भगवान दास माहौर थे. पास में था कुल डेढ़ रुपया, यानी दो वक्त का तीनों के खाने लायक पैसा.
भगत सिंह अड़ गए कि आजाद को मैं समझा लूंगा और डेढ़ रुपए की तीन टिकट ले आए. बाद में रात को उन्हें भूखा तो सोना पड़ा ही, भगत सिंह को आजाद को समझाना भी पड़ा कि फिल्म विदेशियों के अत्याचारों पर बनी थी. उस दिन आजाद ने एक बड़ा फैसला लिया कि अब से हर क्रांतिकारी के पास जो बैग होगा, उसमें पांच रुपए का नोट सिला जाएगा, वो तभी निकाला जाएगा, जब और कोई रास्ता शेष नहीं बचेगा. उनको लग गया था कि इतने कम पैसे देकर भी क्रांतिकारियों को नहीं भेजना चाहिए, दूसरे उन्हें स्वाधीनता के ध्येय के लिए मदद करने वालों के धन की भी चिंता थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)


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