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- सौगात बनाम कल्याण
Written by जनसत्ता: मुफ्त की सौगात मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीर मुद्दा माना है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि सरकारी धन का उपयोग बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने और विकास कार्यों पर होना चाहिए, न कि चुनावों में वोट बटोरने के लिए मुफ्त की सौगात पर खर्च करने के लिए। इस पर अदालत ने निर्वाचन आयोग को भी फटकार लगाई है। पर इसे लेकर अदालत से बाहर राजनीतिक दल आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं। खासकर, भाजपा और आम आदमी पार्टी। दरअसल, कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री ने एक जनसभा में कहा था कि मुफ्त की रेवड़ी बांटने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचता है। स्वाभाविक ही, उस बयान पर आम आदमी पार्टी तिलमिला गई और उसने पलटवार किया।
फिर मुफ्त की योजनाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। तब अदालत ने केंद्र के साथ-साथ उन दलों से भी, जो बिजली, पानी वगैरह की मुफ्त की सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं, जवाब मांगा था। गुरुवार को उन्हीं हलफनामों के बाद सुनवाई हो रही थी। तब अदालत ने निर्वाचन आयोग से पूछा कि क्या चुनावों के समय राजनीतिक दल उसे अपने घोषणा-पत्र उपलब्ध कराते हैं। निर्वाचन आयोग ने ऐसी किसी व्यवस्था से इनकार कर दिया। हालांकि राजनीतिक दलों के ऐसे अनाप-शनाप वादों पर नजर रखने की जिम्मेदारी उसी की है।
दरअसल, पिछले कुछ चुनावों से देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए अनेक मुफ्त की योजनाओं की घोषणा करते हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की तर्ज पर दूसरे राज्यों में भी बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी सुविधाएं मुफ्त उपलब्ध कराने की घोषणा की। उत्तर प्रदेश चुनावों में कुछ दलों ने नौकरियों का वादा किया तो कुछ ने लड़कियों को स्कूटी, विद्यार्थियों को कंप्यूटर, मोबाइल फोन आदि मुफ्त में देने का वादा किया। सत्ताधारी दल ने बांटा भी।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि चुनाव के वक्त राजनीतिक दलों को बजट आदि का ज्ञान नहीं होता, फिर वे मुफ्त की योजनाओं की घोषणा कैसे कर सकते हैं। मगर अब असल बहस का मुद्दा यह बन गया है कि कैसे कल्याणकारी योजनाओं और मुफ्त की सौगात में अंतर किया जाए। सर्वोच न्यायालय ने भी माना है कि चुनाव के वक्त मुफ्त बिजली, पानी, परिवहन जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराना मुफ्त की सौगात नहीं, बल्कि एक न्यायसंगत समाज बनाने की दिशा में राज्य की जिम्मेदारियों के निर्वहन का उदाहरण है।
अब आम आदमी पार्टी केंद्र सरकार पर हमलावर है कि वह बड़े उद्योगपतियों को करों में भारी छूट देकर जिस तरह उन्हें उपकृत कर रही है और आम लोगों पर करों का बोझ बढ़ा रही है, क्या वह न्यायसंगत है। दरअसल, सरकारें कुछ सुविधाएं उपलब्ध कराने को लेकर संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। मसलन, मुफ्त शिक्षा, लोगों के भोजन का अधिकार के तहत मुफ्त राशन वितरण, सौ दिन का रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार देना आदि। इसी तरह सड़कों के निर्माण, सस्ती दरों पर बिजली उपलब्ध कराने, पीने का साफ पानी देने आदि की जिम्मेदारी सरकारों की होती है।
ये सब काम कल्याणकारी योजनाओं के तहत आते हैं। मगर कई बार सरकारें चुनाव के मद्देनजर कई ऐसी योजनाएं भी चलाती हैं, जिससे करदाता से जुटाई पूंजी का अपव्यय होता है। इन दोनों में फर्क करने की जरूरत है। यह काम न्यायालय या न्यायालय की बनाई कोई समिति नहीं करेगी। इसके लिए सरकारों को आपस में तकरार करने के बजाय व्यावहारिक और न्यायसंगत रास्ता निकालने की जरूरत है।