- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- बिहार चुनाव पर...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अपना देश चुनाव-प्रिय देश है। आए दिन होते ही रहते हैं, पर जब चुनाव बिहार में हों तो बात और भी खास हो जाती है। अब भले ही बूथ लूटने जैसी रोमांचक वारदातें बंद हो गई हों, पर मजे के साथ वोट लूटने वाले किस्से अभी भी ख़ूब हैं। सबसे ज्यादा चुटकुले वहीं से आयात होते हैं। देखिए, कोई मुंबइया तर्ज पर राग निकाले है 'बिहार में का बा?' वहीं दुसरका तान छेड़े है 'मिथिला में की नै छे।' तीसरा जो तीन में है न तेरह में, वह टेर लगाए है, 'हमसे वोट लिए हो, का किए हो?' और ये सब सुनकर मतदाता कोरोना, बाढ़ और बेरोजगारी भूल रहा है। जिस नेता को देखो, वही उसके लिए वायदों की झोली खोले खड़ा है। एक अदद 'बटन' के बदले सब कुछ बंट रहा है। वह भी बिल्कुल मुफ्त। लॉकडाउन-आपदा में मजदूरों को घर लाने के लिए जो हाथ खड़े हो गए थे, चुनावी-आपदा में वही हाथ अनायास जुड़ गए हैं। नेताजी बेहद विनम्र और सहिष्णु हो गए हैं। त्याग की भावना इतनी है कि अपना घर-बार छोड़कर अब उन मजदूरों का कल्याण करने पर आमादा हैं।
कोरोना-काल में चुनाव: किसी को 'चिराग' जलने की उम्मीद है, तो किसी को 'लालटेन' की
चुनाव की लीला ही अजब है। कोरोना-काल में मतदाता सोच रहा है कि उसकी बीमारी कहीं नेताजी को न लग जाए, पर वे गले पड़ने को आतुर हैं। चुनाव में जातियों के खोल खुलने से 'दूरी' का निष्ठापूर्वक पालन हो रहा है। विदेशी-बीमारी तो थोड़े दिनों में चली जाएगी, पर ये देसी-बीमारी यहीं रहने वाली है। जाति की सेवा किए बिना जनसेवा का कोई 'स्कोप' ही नहीं दिखता। किसी को 'चिराग' जलने की उम्मीद है, किसी को 'लालटेन' की। इधर 'कमल' सबके कलेजे पर 'तीर' मार रहा है। जो मतदाता नेताजी की किस्मत से बाढ़ और बीमारी से अब तक बचा हुआ है, वह इस आपदा से नहीं बच सकता। वोट देने से पहले उसे कुछ होगा भी नहीं। इससे बचने की कोई 'वैक्सीन' भी नहीं बन सकती।
गिले-शिकवे कुर्सी देखते ही जमींदोज हो जाते हैं, यह हमारे लोकतंत्र की ताकत है
चुनाव से पहले सभी दलों में इतना 'इधर-उधर' होता है कि खुद नेताजी को सुबह नहीं पता होता कि अंधेरा गहराते ही वे किस दलदल में होंगे! चुनाव के 'बखत' वे इतना उदार हो लेते हैं कि अपना दिल भी खोलकर दिखा सकते हैं। उनका दिल कितना भी भरा हो, कुर्सी भर की जगह हमेशा बनी रहती है। अच्छी बात है कि यह 'कुर्सी' किसी नैतिकता या वैचारिकता की मोहताज नहीं होती। समाज भले समावेशी न हो, सत्ता सबको समेट लेती है। इस लिहाज से सत्ता का चरित्र अधिक लोकतांत्रिक है। इसमें सबको उचित हिस्सेदारी मिलती है। चुनावों के आगे-पीछे लोकतंत्र का 'सच्चा' प्रदर्शन होता है। सारे गिले-शिकवे कुर्सी देखते ही जमींदोज हो जाते हैं। यह हमारे लोकतंत्र की ताकत है। यहां जितनी जातियां हैं, उतने दल हैं। सब अपने-अपने 'समाज' का उद्धार करना चाहते हैं। यह तभी संभव है, जब उनका उद्धार हो। इसीलिए बिहार में दलों से ज्यादा 'मोर्चे' हैं। जातियों के जाल से बचकर कोई नहीं जा सकता। 'कौन जात हो' यहां के चुनावों की यूएसपी है।
बिहार में चुनावी बहार: दस मिनट में दस लाख नौकरियां
बिहार में इन दिनों बहार आई हुई है। जिस नेता को देखो, सेवा की ललक से भरा हुआ है। कुछ ने तो पंद्रह-पंद्रह साल सेवा कर ली है, पर सेवा का जज्बा बरकरार है। बहस अब इनके 'पंद्रह' और उनके 'पंद्रह' के बीच हो रही है। 'वे' दस मिनट में दस लाख नौकरियां दे रहे हैं तो 'ये' उन्नीस लाख। रोजगार उगलने की यह मशीन ठीक चुनावों से पहले इनके हाथ लगी है। सोचिए, अगर 'दू-चार' साल पहले यह 'मशीन' आ जाती तो बिहार ही नहीं सारे देश का कल्याण हो जाता!
भ्रष्टाचार और सुशासन अब मुद्दा नहीं रहा, इस मामले में सबका 'डीएनए' एक है
फिर भी मतदाता घाटे में नहीं रहने वाला है। 'त्योहारी-मौसम' में उसके पास ढेरों ऑफर हैं। भ्रष्टाचार और सुशासन अब मुद्दा नहीं रहा। इस मामले में सबका 'डीएनए' एक है, इसलिए अब किसी जांच की जरूरत नहीं रही। चुनाव में जनता बंट जाती है और नेता एक हो जाते हैं। देश में जो थोड़ी-बहुत एकता बची है, नेताओं के दम पर ही तो है। आखिर वे मिलकर 'सेवा' जो करते हैं