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- सरदार पटेल जयंती...
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बताते हैं कि सरदार हाऊस में अब ज्यादा लोग नहीं आते।
गुजरात में जहां सबसे ज्यादा भव्य, उच्च तकनीकयुक्त व व्यवस्थित तरीके से सरदार वल्लभभाई पटेल की स्मृतियों को संजोया गया है, वह इमारत मुगल काल की है। शाही बाग में चार सौ साल पुराने आलीशान मोती महल में आज पटेल की स्मृतियों का विशाल संग्रहालय है। 36 हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में स्थापित सरदार वल्लभभाई पटेल नेशनल मेमोरियल में आडियो विजुअल सिस्टम से लैस ऑडिटोरियम भी है। इसे दुर्योग या संयोग जो भी कहें, लेकिन सरदार जहां जन्मे, जहां पले-बढ़े या जहां रहकर वकालत की, उनके वे तीनों ठिकाने ऐसा भव्य रूप न पा सके।
वर्ष 1975 में गठित सरदार पटेल मेमोरियल सोसाइटी का यह संग्रहालय देश में सबसे बड़ा है। इसमें सरदार की वस्तुओं, तस्वीरों, ऐतिहासिक दस्तावेजों, उनके सामाजिक-राजनीतिक सफरनामे का ब्योरा सब कुछ है। पटेल की पोशाकें, चप्पलें, बैग, उन पर प्रकाशित पुस्तकें, लेख, कविताएं, कार्टून आदि सबकी नुमाइश है। 16वीं सदी में मुगल बादशाह (तब के गुजरात के गवर्नर) शाहजहां ने शहर के बीच साबरमती नदी के किनारे इस महल को अपने रहने और राजकाज के लिए बनवाया था।
बदकिस्मती से जब इस नए-नवेले महल में हाथी पर सवार शाहजहां प्रवेश करने चला, तो मुख्य द्वार छोटा होने से हाथी अंदर ही न जा सका। फिर वह उलटे पांव ऐसे लौटा कि यहां की ओर कभी पलट कर भी न देखा और भद्र पैलेस में ही रहने चला गया। भद्र पैलेस को अहमदाबाद शहर बसाने वाले सुल्तान अहमद शाह (1411-1442) ने अपने आरामगाह के तौर पर बनवाया था। उसके बाद कई बादशाहों का इसमें डेरा रहा। मोती महल मुगलकाल के गवर्नरों और अंग्रेजी हुकूमत के कमिश्नरों व जजों की पसंदीदा रिहाइश रही।
मोती महल में प्रवास करने वाली प्रमुख हस्तियों में रवींद्रनाथ टैगोर भी हैं। वे अपने भाई सत्येंद्रनाथ टैगौर के साथ 19वीं सदी के दौरान इसमें रहे। 19वीं सदी के मध्य में अंग्रेजों ने जब अहमदाबाद को छावनी क्षेत्र घोषित किया, तो इसे गुजरात के गवर्नर का आधिकारिक आवास बना दिया। 1975 में इसे सरदार वल्लभभाई पटेल की स्मृतियों को समर्पित कर दिया गया।
इस बेमिसाल इमारत को साहित्य में भी खासी जगह मिली। साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले टैगोर ने अपनी पहली कविता इसी इमारत के छज्जे से साबरमती के सौंदर्य में डूबकर लिखी। लाल, भूरे और सफेद पत्थरों से बनी मुगल वास्तुशिल्प की इस अनूठी कृति के बारे में मशहूर अमेरिकी साहित्यकार जेम्स डगलस कहते हैं कि यह इमारत ऐसी कली है, जो बाद में ताजमहल का रूप लिए फूल बनी। इसके बेसमेंट में आर्ट गैलरी है, शानदार बाग-बगीचे के अलावा अंदर के भवन की छतें हीरे की शक्ल में हैं। मजबूती ऐसी कि तीन-तीन भूकंप के झटकों के बाद भी तनिक भी टस से मस न हुई।
केंद्र की मनमोहन सरकार में कभी मंत्री रहे दिनशा पटेल सरदार की स्मृतियों को सहेजने में जी-जान से जुटे हैं। 2002 में दिनशा पटेल ट्रस्ट के अध्यक्ष बने, तो बारदोली से जूनागढ़ तक करीब 1,300 किमी की 11 दिन तक पदयात्रा कर लोगों से संग्रहालय बनाने के लिए करीब 29 लाख रुपये जुटाए। बताते हैं कि उनके प्रयासों से केंद्र ने इस भवन के साज-संवार के लिए 15 लाख रुपये दिए। इसके अलावा आणंद जिले के पटेल के पैतृक क्षेत्र करमसद में भी सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके बड़े भाई स्वतंत्रता आंदोलनकारी विट्ठलभाई पटेल का भव्य स्मारक बनवाया जा रहा है।
अहमदाबाद के बेहद भीड़भाड़ वाले लाल दरवाजा इलाके में सरदार पटेल का जो स्मारक है, उसकी पहचान चाय की दुकान चलाने वाले वजूभाई के शब्दों में, सिर्फ प्रोग्राम सेंटर से है। स्मारक के अंदर जाने पर इस बेचैन करने वाली पहचान का रहस्य खुलता है। इंग्लैंड से लौटे पटेल ने इसी मकान में किराये पर डेरा डाला और करीब 11 साल तक यहां रहे। इस हेरिटेज बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर फेरीवालों का कब्जा है, अंदर का लॉन एरिया स्टेट बैंक की गाड़ियों की पार्किंग के लिए 45 हजार रुपये महीने के किराये पर उठा दिया गया है।
गाड़ियों से जगह भरी रहती है, तो दर्शनार्थियों के लिए साइड गेट खोल दिया गया है। पहले माले का कांफ्रेंस प्रोग्राम के लिए किराये पर दिया जाता है, यही प्रोग्राम वाली पहचान कहीं ज्यादा पुख्ता है। 104 साल पुराना यह भवन 1970 से सरदार पटेल मेमोरियल सोसाइटी की सुपुर्दगी में है। इस स्मारक के केयरटेकर डा. नाथाभाई वी. पटेल यहां के स्टाफ के बारे में पूछे जाने पर बताते हैं कि एक मैं हूं महाप्रबंधक और दूसरा पार्टटाइम स्वीपर। पहले माले का पटेल का कमरा आज भी बंद ही रहता है। उनकी इस्तेमाल की गई कुर्सी जर्जर है, पुरानी तस्वीरें धूल-धूसरित। स्मारक की चमक-दमक पर स्टाफ, फंड और चिंता की कमी साफ दिखती है। इंग्लैंड से बैरिस्टरी की पढ़ाई कर सरदार पटेल 1913 में स्वदेश लौटे, तब अहमदाबाद में वकीलों के प्रतिष्ठित ग्रुप गुजरात क्लब से जुड़े। इसी क्लब के सामने लाल दरवाजा इलाके के एक मकान में रहने लगे।
ब्रिज के खेल में उनका कोई सानी नहीं था। इसी क्लब में गांधी से मुलाकात हुई, तो वह उनके अटूट अनुयायी बन गए। सोच बदल गई, काम बदल गए। सरदार पटेल तीन बार इसके चेयरमैन रहे, अपने कार्यकाल में ऐतिहासिक फैसले किए, लेकिन उनका कक्ष, उनसे जुड़े दस्तावेज आदि के संग्रहण आदि का कथित तौर पर सालों-साल से काम चल ही रहा है। उस समय के सदन का हाल स्थायी तौर पर बंद रहता है। इसे सजा-संवार कर दर्शनार्थ खोलने की कोई योजना अभी तक नहीं दिखती, जबकि हेरिटेज बिल्डिंग्स के संरक्षण वाला विभाग इसके बगल में ही चलता है।
जन्मस्थली ननिहाल से करीब पौन किलोमीटर दूर के जिस सरकारी स्कूल से पटेल ने मैट्रिक किया, उस स्कूल ने उनसे जुड़ी यादें सहेज रखी हैं। उनकी बेंच, उस समय की उनकी फोटो, स्कूल रजिस्टर पर उनका नाम और जाति का जिक्र सब कुछ देखने को मिलता है। प्रिंसिपल हेमंतकुमार जे भट्ट बताते हैं कि 1970 तक इसका नाम गवर्नमेंट हाइस्कूल था, सरदार पटेल समाजसेवक ट्रस्ट के हवाले होने पर इसका नाम बदल दिया गया। पटेल यहीं साढ़े तीन साल तक पढ़े।
अपने मोहल्ले में लोखंडेपुरुष
करमसद कस्बे में सरदार पटेल के पैतृक मकान के सामने से पैदल गुजरते दसवीं पास और आईटीआई कर रहे छात्र विश्वम पटेल से जब वल्लभभाई पटेल के बारे में पूछा गया, तो वह बस इतना ही बता सका-लोखंडेपुरुष हते (लौहपुरुष थे)। तुम तो उनके पड़ोसी हो, इससे ज्यादा कुछ क्यों नहीं पता, इस सवाल पर बोला कि स्कूल में कभी पढ़ाया ही नहीं गया। खेड़ा जिला मुख्यालय नडियाड से करीब 30 किलोमीटर दूर अर्धविकसित करमसद कस्बे में सरदार पटेल का करीब 500 मीटर में बसा विशालकाय पैतृक आवास है। अब इसे संग्रहालय बना दिया गया है।
उनका मकान पूछते-पाछते, गलियां पार करते दोपहर को वहां पहुंचा, तो ताला लगा मिला। वहां लगे बोर्ड पर दर्ज दो नंबरों पर फोन मिलाने पर जवाब 'अस्थायी रूप से बंद' में आया। इसके इकलौते स्टाफ केयरटेकर किंजल राय तलाशने पर किसी तरह मिले। ताला खोला और बताने लगे, सरदार पटेल इसी मकान में पले-बढ़े।
पोते-पड़पोते सब अमेरिका में रहते हैं। यहां कोई नहीं आता। सरदार की जन्मतिथि या पुण्य तिथि पर यहां कुछ नहीं होता, सब अहमदाबाद में ही होता है। इस मकान के बगल से अंदर जा रही गली के मुहाने पर सरदार पोल (सोसाइटी) का बोर्ड लगा है। कोने पर ही मिले धर्मेश पटेल बताने लगे कि इस एरिया में बसे सभी पटेल परिवार सरदार साहब के खानदानी ही हैं। सभी छह गांव के लेउआ (पटेल की एक उपजाति) हैं, सरदार पटेल की ही बिरादरी के। बताते हैं कि सरदार हाऊस में अब ज्यादा लोग नहीं आते।
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