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- सरदार अहमद बढ़ई: लखनऊ...
हेमंत शर्मा | दुनिया में कुछ रिश्ते बहुत अजीब से होते हैं. आप चाहकर भी उन्हे नाम नहीं दे सकते. सरदार अहमद से मेरा कुछ ऐसा ही नाता था. सरदार अहमद से मेरी दोस्ती नहीं थी, पर आत्मीयता बहुत थी. मैं उनकी वल्दियत, सकूनत से भी वाक़िफ़ नहीं हूं. पर उनकी शख़्सियत और पुरखुलूसी से अब भी सराबोर हूं. उनके वालिद ने उनका नाम रखा था सरदार, पर वे थे बड़े ही असरदार. उनके व्यक्तित्व और प्रकृति में उनके नाम की सार्थकता थी. सरदार अहमद लखनऊ के एक फ़र्नीचर कारख़ाने में बढ़ई थे. या यों कहें फ़र्नीचर के रंगसाज थे. लगभग रोज़ दुपहरी मेरी उस कारख़ाने में बैठकी होती थी. कारख़ाने के मालिक नवीन तिवारी की लखनऊ की कला, तहज़ीब और सौन्दर्यशास्त्र में दखल थी. कई रसूखदार लोग वहां आते थे. प्रबुद्ध लोगों का जमावड़ा होता था. सरदार साहब फर्नीचर पर हाथ दिखाने के अलावा अदब में भी हाथ आजमाते थे. अक्सर फर्नीचर पर रेगमाल करते करते वे एक दो ताज़ा शेर भी जड़ देते. इसलिए जब भी मैं उस कारख़ाने में जाता, सरदार साहब से मिले बगैर नहीं आता था. सरदार साहब बाज वक्त फुटकर पुर्ज़ों पर ही अपने असरार लिख कर मुझे थमा देते.