सम्पादकीय

बाल साहित्य के शिखर पुरुष संतराम वत्स्य

Rani Sahu
11 May 2023 3:39 PM GMT
बाल साहित्य के शिखर पुरुष संतराम वत्स्य
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संतराम वत्स्य जी प्राय: कहा करते थे कि लेखकों को अपनी पुस्तक का मानदेय या रायल्टी कभी एकमुश्त नहीं लेनी चाहिए, बल्कि रायल्टी का अनुबन्ध करना चाहिए क्योंकि रायल्टी निरन्तर चलती रहती है और एक-एक शब्द का सौ-सौ रुपया मिल जाता है। उनकी बात तो सच थी, परन्तु नए लेखकों को तो कोई छापने के लिए भी तैयार नहीं होता। वत्स्य जी का विश्वास था कि यदि लेखक अपना विशेष लेखन क्षेत्र चुन ले और उसमें दक्ष हो जाए तो प्रकाशक स्वयं आपके पीछे भागेंगे। उन्होंने अपने जीवन में ऐसा कर भी दिखाया। सभी नामी गिरामी प्रकाशकों से उनकी पुस्तकें छपती रहीं। वह कलमजीवी थे और कलम की कमाई से ही उन्होंने नवीन शाहदरा में अपना आवास बनाया, अर्थात ऐसा घर जो हिमाचली लेखकों के लिए सदा खुला रहता था। भारतीय संस्कृति एवं पौराणिक साहित्य के प्रकांड पंडित संतराम वत्स्य जी का जीवन प्रारम्भ से ही बड़ा संघर्षशील रहा, लेकिन उनमें अदम्य साहस एवं जिजीविषा थी, जिसके बल पर उन्होंने संकटों से जूझते हुए सफलता के शिखरों का स्पर्श किया।
उनका जन्म कांगड़ा की पालमपुर तहसील के दूरस्थ स्थित गांव धनीरी में 12 मई 1923 को हुआ। पिता का नाम श्री मंगतराम वत्स्य एवं मां का नाम श्रीमती जानकी देवी था। परिवार साधारण परन्तु संस्कारी था। सन्तराम माता-पिता की इकलौती संतान थे। इनके ताया जी श्री चुन्नीलाल शर्मा के एक बेटा शशिकांत शास्त्री और एक बेटी राजरानी है। यह संयोग ही है कि शशिकांत जी की पत्नी का नाम भी शशि कला है। बालक संतराम अभी चार वर्ष के ही थे कि उनके पिता श्री का देहावसान हो गया। परिणामत: परिवार पर आर्थिक संकट मंडराने लगा। वत्स्य जी की प्रारम्भिक शिक्षा संधोल के सरकारी स्कूल में हुई। फिर संस्कृत के अध्ययन हेतु वह होशियारपुर पहुंच गए जहां उन्होंने सनातन धर्म महाविद्यालय से विशारद की उपाधि अर्जित की, परन्तु अर्थाभाव के कारण वह आगे नहीं पढ़ पाए और रोजी-रोटी की तलाश में वह सन् 1942 में लाहौर जा पहुंचे। वहां समय-समय पर कभी हिन्दी भवन और कभी राजपाल एण्ड संस और कभी आर्य प्रतिनिधि सभा में नौकरी की। भारत विभाजन के बाद सन् 1947 में वत्स्य जी दिल्ली आ गए। उनका विवाह सन् 1945 में मंडी जिला के संधोल गांव की ब्राह्मण कन्या सुश्री लज्जावती से हुआ। वत्स्य जी की चार संताने हैं : प्रेम लता वात्स्यायन, स्वर्णलता, डा. भारतेंदु और कुसुम लता। तीनों बहनें दिल्ली में बसी हुई हैं और बेटा डा. भारतेंदु अनुबन्ध कृषि व्यवसाय में मुम्बई में कार्यरत है। वत्स्य जी ने कोई नियमित नौकरी नहीं की।
लाहौर से दिल्ली आए प्रकाशकों यथा राजपाल एण्ड संस, राजकमल प्रकाशन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, आत्मा राम एण्ड संस, देहाती पुस्तक भण्डार, हिन्द पाकेट बुक्स आदि संस्थानों में सम्पादक अथवा प्रकाशनाध्यक्ष का कार्य अवश्य किया। बीच में अपनी प्रिंटिंग प्रेस भी लगाई, परन्तु उसे घाटे के कारण बन्द करना पड़ा। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं पौराणिक साहित्य का गहन अध्ययन किया था। अत: उन्होंने सम्बद्ध विषयों पर साधिकार लिखा। उनमें सहज-सरल भाषा में किसी भी दुरुह विषय को कथा रस से सराबोर कर रोचक शैली में प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने लगभग डेढ़ सौ पुस्तकें लिखीं। बाल मित्र ज्ञान विज्ञान माला, यथा हमारा शरीर, हमारे पशु, पक्षी, विज्ञान, जीवन ज्योति माला यथा चन्द्रश्ेाखर वेंकटरमन, न्यूटन, एडिसन, वैज्ञानिकों की जीवनियां, महाभारत और रामायण की औपन्यासिक शैली में मनोहर प्रस्तुति, महापुरुषों की जीवनियां, निबन्ध यथा अमलतास के फूल, अच्छी आदतें। वत्स्य जी ने दस उपन्यास भी लिखे जो खूब बिके भी और चर्चित भी हुए। उडऩे वाला गलीचा, दो बहनें, भिखारी और राजकुमार, नल दमयंती आदि। उन्होंने दो नाटक भी लिखे अर्थात जमीन का बंटवारा और मिर्च मिठाई। शिष्टाचार से सम्बद्ध लेख, कहानियां, उपन्यासों के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। बहुत से विविध विषयों पर भी पुस्तकें लिखी। उनकी बहुत सी पुस्तकों का अनुवाद पंजाबी, बंगाली आदि भाषाओं में भी हुआ है। उन्हें दिल्ली प्रशासन से अनेक पुरस्कार मिले। पंजाब भाषा विभाग से भी उनकी पुस्तकें पुरस्कृत हुईं। वह कलमजीवी थे। वत्स्य जी ने हिमाचल की लोक कथाएं भी लिखीं जो आत्माराम एण्ड संस से 1962 में प्रकाशित हुईं। संभवत: लोक कथाओं की यह पहली पुस्तक थी।
वत्स्य जी ने स्वयं तो खूब लिखा ही, पर साथ ही उन्होंने और बहुत से लेखकों को लेखक बनने में मार्गदर्शन भी किया। उनके अपने घर-परिवार के अधिकांश सदस्य लेखन से जुड़े हुए हैं। उनके दामाद स्व. डा. मनोहर लाल यह स्वीकार करने में गौरव महसूस करते थे कि वत्स्य जी ने ही उनसे पहली पुस्तक समीक्षा लिखवाई थी। मेरा पहला अंग्रेजी उपन्यास भी सन् 1980 में उन्हीं के संरक्षण में प्रकाशित हुआ था। वह सदा सबकी सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। गुलेरी साहित्य के खोजी डा. मनोहर लाल को उनकी पुस्तक ‘माटी मेरे गांव की’ पर हिमाचल प्रदेश भाषा विभाग से सर्वोच्च पुरस्कार 26 मार्च 1988 को शिमला में मिलना था, किंतु दुर्भाग्यवश 25 मार्च 1988 को श्री सन्त राम वत्स्य ने संसार को त्याग दिया। उनके परलोकगमन पर डा. मनोहर लाल ने मुझे फोन पर कहा- ‘वत्स्य जी नहीं रहे। हमारा तो डंगे का पत्थर ही निकल गया।’ वत्स्य जी की जन्म शती वर्षगांठ के अवसर पर उन्हें शत्-शत् नमन करते हैं।
डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’
साहित्यकार
By: divyahimachal
Rani Sahu

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