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ज्ञान परंपरा का हिस्सा बने संस्कृत: संस्कृत भारत की सभ्यता और संस्कृति के मूल को करती है परिभाषित

भूपेंद्र सिंह | जनता से रिश्ता वेबडेस्क| भाषा और विचार एक-दूसरे से गुंथे रहते हैं। हम जो बोलते हैं वह सिर्फ हमारे सोच को ही नहीं बताता, बल्कि हमारे सोच को प्रभावित भी करता है। शब्दों का अर्थ-विस्तार भी अद्भुत होता है। उदाहरण के लिए धर्म, आत्मा, योग, प्राण, रस और ब्रह्म जैसे शब्दों की व्याख्या युगों-युगों से होती आ रही है। अभी भी इनके नए-नए अर्थ खुलते जा रहे हैं। इस दृष्टि से संस्कृत भाषा का अकूत शब्द भंडार विचार, ज्ञान और बौद्धिक विमर्श की दुनिया को विलक्षण रूप से विस्तृत करता है। भारतीय समाज के पढ़े-लिखे तबके में खासतौर पर वे लोग जिन्हें अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा मिली है, उनके मन में संस्कृत को लेकर एक बिदकन है। वे उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। परिणामस्वरूप बिना जाने-समझे ही पूर्वाग्रह के चलते संस्कृत को दकियानूसी, पुरातात्विक, अवैज्ञानिक, पारलौकिक, अव्यावहारिक और उन्नति में अवरोधक आदि मानने वालों की बड़ी भारी संख्या हो चली है। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि देशवासी होने के नाते यदि सिर्फ भारत और भारतीयता का अर्थ ही समझना हो तो भी उन्हें संस्कृत के पास ही आना पड़ेगा।
वास्तव में संस्कृत भारत की सभ्यता और संस्कृति के मूल को परिभाषित करती है। यह अलग बात है कि भारत को अंग्रेजों ने 'इंडिया' का नाम दे दिया था। नियति का खेल ऐसा हुआ कि उसे ही मूल मान लिया गया। देश के संविधान में भारत उसका अनुवाद हो गया (इंडिया, दैट इज भारत!)। मालूम हो कि अंग्रेजी शब्दकोश 'इंडियन' शब्द को अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंडीज (ईस्ट तथा वेस्ट) और दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों के अर्थ में प्रयोग का उल्लेख करते हैं। अंग्रेज भारत को इसी तरह की पिछड़ी जनजाति के समूह के अर्थ में प्रयोग कर रहे थे जिसमें औपनिवेशिक अधीनता की ध्वनि गूंजती है और एक सीमित दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। दूसरी तरफ 'भारत' शब्द देश की प्राचीनता और सभ्यतामूलक अर्थ को दर्शाता है। वेद, पुराण, महाकाव्य और जन साधारण में 'भारत' का व्यापक अर्थ अभी भी मौजूद है। उनकी व्याख्या अंग्र्रेजी के 'इंडियन' से निश्चित ही अधिक पुरानी और प्रामाणिक है। हमारे मन में 'भारत' जिस जीवंत परिकल्पना को जन्म देता है वह चिरंतन, व्यापक, समावेशी, स्वायत्त और समृद्ध है, जबकि 'इंडिया' एक चुनिंदा आधुनिक फैशन को याद दिलाता है। अर्थात एक शब्द हमें उदार बनाता है तो दूसरा संकोची मन को जन्म देता है।
दरअसल संस्कृत की अज्ञानता से ही इसके बारे में फैले भ्रमों को बड़ा बल मिला है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित भारत की शिक्षा व्यवस्था का एक स्वाभाविक कुपरिणाम है। अंग्रेजों का सबसे बड़ा अपकार (जिसे हममें से अनेक लोग उपकार भी समझते हैं!) यही है कि उन्होंने हमको हमसे छीन लिया, हमारी पहचान बदल दी, हमें नया इतिहास दे दिया और दुनिया देखने का एक दूसरा चश्मा थमा दिया। उन्होंने हमें अपने स्वरूप को भी समझने के लिए एक पराया आईना पेश कर दिया। इस तरह हम भारतवासी स्वयं को न सिर्फ कमतर आंकते गए, बल्कि कमतर भी होते गए, क्योंकि हमारे नए आईने और नजरिये ने हमारे स्वरूप का रूपांतरण कर दिया। हम खुद को नापसंद करने लगे और दोयम दर्जे से ऊपर उठने के लिए पश्चिम की अंधाधुंध नकल करने में व्यस्त होते गए।
इसका असर कुछ ऐसा हुआ कि गांधी जी के 'स्वराज' का प्रकाश स्वतंत्रता के बाद की अवधि में ओझल होता गया। 'भारत' नामक अग्नि की चिंगारी राख में दब गई। स्वराज का अर्थ अपना और अपने ऊपर राज था। यह आत्मनियंत्रण, चरित्र निर्माण और मूल्यबोध की अपेक्षा करता था। इसका अर्थ निरपेक्ष स्वतंत्रता या स्वच्छंदता तो कदापि न था, पर हमने स्वाधीनता का अर्थ 'इंडिपेंडेस' लगाया। दुर्भाग्यवश अंग्रेजों द्वारा गुलाम देश के लिए जिस अंग्र्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा को लागू किया गया था वह संस्कृत के प्रति दुर्भावनाग्र्रस्त थी। उसमें भारतीय ज्ञान परंपरा अनुपस्थित थी। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ हमने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी उसे ही बदस्तूर जारी रखा। हालांकि इसके लाभ मिले, पर कुछ चुने हुए लोगों को न कि आम जन को। भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का परिणाम यह हुआ कि वे उस गति से आगे नहीं बढ़ सकीं कि अंग्रेजी का स्थान ले पातीं। जीवन के मूल आधारों को छोड़कर विकास की कोई परिकल्पना दिग्भ्रमित करने वाली होती है।
देखा जाए तो संपूर्ण मानव सभ्यता को आगे बढ़ाने में संस्कृत भाषा ने अनेक प्रकार के योगदान दिए हैं। योग, आयुर्वेद, वेदांत, व्याकरण, साहित्य और ज्योतिष के ज्ञान की उपयोगिता सर्वविदित है। इनके तमाम ग्र्रंथ अमूल्य थाती हैं, जो हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इनके अतिरिक्त संस्कृत जिन प्रवृत्तियों का पोषण करती है, वे बिना किसी पूर्वाग्रह के लोक कल्याण को बढ़ावा देती हैं। सृष्टि केंद्रित विश्व दृष्टि, प्रकृति के साथ सतत सामंजस्य, मनुष्य के स्वभाव तथा स्वरूप में उदात्तता, चैतन्य का विस्तार, पुरुषार्थ तथा सृजनात्मकता, परिष्कार की सतत आकांक्षा तथा संभावना जिस तरह संस्कृत की रचनाओं में अभिव्यक्त हुई हैं वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। यही नहीं वैचारिक सहिष्णुता जिस तरह संस्कृत की समृद्ध और विद्वता से परिपूर्ण परंपरा में निरंतर प्रवाहित और पोषित होती रही वैसा उदाहरण दूसरी जगह नहीं मिलता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत से जीवन में सकारात्मकता का संचार होता है। यह वैचारिक खुलापन ही है कि संस्कृत विद्या में विभिन्न मत-मतांतर निरंतर विकसित होते रहे हैं। अत: संस्कृत के अध्ययन को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ना लाभकारी होगा। आज विश्व जिन चुनौतियों से जूझ रहा है उनके लिए जिस वैश्विक दृष्टि की आवश्यकता है उसके सूत्र भी संस्कृत की ज्ञान परंपरा में हैं। संस्कृत विचारों की विविधता का स्वागत करते हुए विश्व के लिए सामंजस्य का मंत्र देती है।