सम्पादकीय

संजय गांधी ने की थी काशी विश्वनाथ गली को चौड़ा करने की कोशिश, अमंगल के डर से इंदिरा गांधी ने उठाया था ये कदम

Gulabi
13 Dec 2021 6:09 AM GMT
संजय गांधी ने की थी काशी विश्वनाथ गली को चौड़ा करने की कोशिश, अमंगल के डर से इंदिरा गांधी ने उठाया था ये कदम
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इंदिरा गांधी ने अपने एक सहेली को वाराणसी भेजा और उस प्रोजेक्ट को इस डर से रुकवा दिया कि ना केवल जनता इसका विरोध कर सकती
आप इस लेख की हैडिंग पढ़कर सोचेंगे कि संजय गांधी तो बाबा विश्वनाथ के पीएम मोदी से भी बड़े भक्त थे और आखिर किस जमाने में वह विश्वनाथ गली को चौड़ा करना चाहते थे, या शायद कॉरीडोर बनाना चाहते थे।
हकीकत ये कतई नहीं है, हां ये जरुर है कि संजय गांधी ने मंदिर की तरफ जाने वाली संकरी विश्वनाथ गली को चौड़ा करने की कोशिश की थी, बाकायदा अधिकारियों को 6 महीने का समय दिया गया था, बुलडोजर्स काम पर भी लग गए थे।
लेकिन इधर इंदिरा गांधी ने अपने एक सहेली को वाराणसी भेजा और उस प्रोजेक्ट को इस डर से रुकवा दिया कि ना केवल जनता इसका विरोध कर सकती है, बल्कि कुछ अमंगल भी हो सकता है। दरअसल संजय गांधी ने अपनी ये योजना अपनी मां और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी छुपा ली थी।
मां से छुपाकर चल रहे थे संजय गांधी के प्रोजेक्ट्स
दरअसल, वह इमरजेंसी का समय था और संजय गांधी को फितूर चढ़ गया था, जबरन भारत के बड़े-बड़े शहरों के सौंदर्यीकरण का। उनके साफ निर्देश थे कि ना सड़कों पर गंदगी दिखाई दे, ना ही आवारा पशु और ना ही भिखारी। इसके अलावा उन्हें शहर के अंदर झुग्गी झोपड़ियों से भी चिढ़ थी। सो धार्मिक आस्था से उनका कोई लेना-देना नहीं था और ना ही अपनी सौंदर्यीकरण कार्यक्रमों की जनता से अनुमति या सलाह लेनी थी।
चूंकि इमरजेंसी लगी थी, सो वो बिना किसी पद पर होते हुए भी सीधे मुख्यमंत्रियों से ये काम करवा रहे थे और जब इंदिरा गांधी पूछती थीं तो मुख्यमंत्री मुकर जाते थे, हालांकि इंदिरा गांधी को पता था कि उनसे छुपाया जा रहा है, लेकिन बेटे का क्या करतीं वो?
संजय गांधी चाहते थे कि काशी विश्वनाथ धाम एक सुंदर आधुनिक शहर में बदले। - फोटो : अमर उजाला
दिल्ली का तुर्कमान गेट कांड भारी पड़ गया था संजय पर
दिल्ली का तुर्कमान गेट तो इतना भयंकर था कि अचानक लोगों के घरों पर बुलडोजर चढ़ा दिए गए, कितने ही लोग मर गए, सैकड़ों घर तोड़ दिए गए, हजारों बेघर हुए, 1700 के करीब दुकानें तोड़ दी गई थीं। आगरा में भी उन्होंने जेल को शहर से बाहर भेजकर वहां संजय प्लेस जैसे मार्केट को खड़ा करवा दिया।
इधर खास बात यह थी कि ऊपर से आदेश मिलते ही अधिकारी भी तानाशाह हो जाते थे। मुआवजा और तोड़ने से पहले नोटिस आदि भी नहीं देते थे, जनता झेल रही थी. वही वाराणसी में होना शुरू हुआ, संजय गांधी चाहते थे कि अगला टूरिस्ट सीजन शुरू होने से पहले ही यानी 6 महीने के अंदर आगरा और वाराणसी जैसे शहर सुंदर बन जाएं।
इंदिरा गांधी को था 'अमंगल का भय'
ऐसे में जब इंदिरा गांधी को खबर लगीं और जब पता चला कि काशी जैसे धार्मिक रूप से संवेदनशील शहर में भी संजय गांधी का तोड़फोड़ अभियान शुरू हो गया, इंदिरा गांधी ने फौरन स्थिति के जमीनी आकलन के लिए अपनी दोस्त पुपुल जयकर को भेजा। पुपुल का बचपन वाराणसी में ही बीता था।
इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था-
शहर को साफ स्वच्छ रखने की जरूरत हैं, लेकिन ''But to beautify Varanasi has ominous overtones', साफ था कि वो कुछ भी अमंगल हो जाने के डर से आशंकित थीं। जब पुपुल वाराणसी के लिए निकलीं, तो इंदिरा ने उन्हें कमिश्नर से मिलने के लिए कह दिया था, वहां वो राजघाट पर गंगा किनारे एक कॉटेज में रुकीं।
जब वो पहुंची तो गुस्से में तमाम आम लोग उनके पास शिकायतें लेकर पहुंचने लगे। कमिश्नर और महानगर पालिका चैयरमेन भी उनसे मिलने पहुंचे और उनको विश्वनाथ गली लेकर गए। रास्ते में कमिश्नर ने बताया कि कैसे वो अतिक्रमण हटाकर, पेड़ों को लगाकर शहर को सुंदर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
पुपुल ने इंदिरा गांधी की जीवनी में लिखा है-
कैसे सदियों से विश्वनाथ गली इतनी संकरी थी कि उसमें सूर्य की किरणें भी ढंग से नहीं पहुंच पाती थीं। 17वीं और 18वीं सदी में बने घरों के छज्जों से साफ आकाश भी देखने में दिक्कत होती थी, बाकी कसर पतंगें निकाल देती थीं।
सवाल ये उठता है कि जिस काम को मोदी ने इतनी आसानी से कर दिखाया, उसको लेकर इंदिरा गांधी क्यों डर गई थीं? - फोटो : सोशल मीडिया, ऑफिशियल ट्विटर हेंडल
श्रद्धा में नहीं बल्कि राज्यपाल की कार के लिए हो रही थी विश्वनाथ गली चौड़ी
दरअसल, उस गली से गुजरते वक्त कमिश्नर ने उन्हें बताया कि राज्यपाल विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए कार से आना चाहते हैं, तो पुपुल जयकर चौंककर बोलीं, कि तुम इस गली में कार नहीं ले जा सकते? लेकिन कमिश्नर ने उन्हें बताया कि वो इस गली को चौड़ी करने जा रहे हैं, कुछ घरों की दीवारें तोड़कर इतना रास्ता बना देंगे।
पुपुल और कमिश्नर की बातचीत कुछ इस तरह रही-
इतने पुराने मकानों को तुम कैसे तोड़ दोगे? ये पत्थर सैकड़ों साल पुराने हैं,
तब कमिश्नर ने चुप्पी साधना बेहतर समझा।
रास्ते में हनुमान, देवी, गणेश आदि के छोटे छोटे मंदिर मिले तो पुपुल ने पूछा कि इनका क्या करोगे?
तो कमिश्नर का कहना था कि इनको कंक्रीट के बढ़िया स्ट्रक्चर मे रखवा देंगे।
पुपुल ने कहा भी कि ये तो शहर के संरक्षक देव हैं, तुम इनकी जगह कैसे बदल सकते हो?
कमिश्नर को कुछ नहीं सूझा तो कहा कि संजय गांधी चाहते हैं कि शहर सुंदर लगे.
जब गुस्से में फट पड़ी इंदिरा गांधी
फिर कमिश्नर उन्हें कमच्छा की उस रोड पर ले गया, जहां बुलडोजर अपना काम खत्म करके खड़े हुए थे, कई लोगों के मकान 1920 के एक नक्शे के आधार पर तोड़ दिए गए थे। पुपुल ने चीफ सेक्रट्री को कहकर वो काम अगले आदेश तक रुकवा दिया और वहां मकान मालिकों ने जो उनको तस्वीरें दी थीं, उनको लेकर इंदिरा गांधी के पास दिल्ली आ गईं और उन्हें वो तोड़फोड़ के फोटो दिखाए।
पुपुल ने अपनी किताब में लिखा है-
मैंने इंदिरा को कभी इतना गुस्से में नहीं देखा था। उसके बाद इंदिरा गांधी ने नारायण दत्त तिवारी को फोन लगवाया और गुस्से में फट पड़ीं और फौरन दिल्ली आने को कहा।
फिर इधर फोन रखकर इंदिरा ने अपना चेहरा अपने हाथों में लेकर कहा-
''इस देश में क्या हो रहा है? कोई मुझे बताना भी नहीं चाहता?" विश्वनाथ गली में तोड़फोड़ को लेकर उनके अंदर बड़ा डर था, अमंगल का भी, लोगों के गुस्से का भी।
उसके बाद पुपुल एनडी तिवारी को भी मिली थीं, जो काफी डरे हुए थे, कह रहे थे कि मुझे नहीं पता था कि अधिकारी 1920 के नक्शे के हिसाब से तोड़फोड़ कर रहे थे. लेकिन बाद में ये जरूर हुआ कि वो काम वहीं रुक गया था। पुपुल को भी नहीं पता था कि संजय गांधी की क्या प्रतिक्रिया थी क्योंकि संजय गांधी कम बोलते थे और कोई आधिकारिक बयान देने के लिए भी मजबूर नहीं थे।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि जिस काम को मोदी ने इतनी आसानी से कर दिखाया, उसको लेकर इंदिरा गांधी क्यों डर गई थीं?
इंदिरा गांधी शायद जानती थीं कि इमरजेंसी की वजह से पब्लिक उनके साथ नहीं थी। दूसरे वो अलग तरह की धार्मिक थीं, उन्हें लगता था कि काशी विश्वनाथ के मंदिर में छेड़छाड़ से कोई अमंगल हो सकती है, संजय गांधी का अमंगल रोकने के लिए उन्होंने कई साल झांसी के काली मंदिर में लक्ष्य चंडी पाठ करवाया था।
हकीकत ये भी थी मोदी को ना केवल जनता का विश्वास प्राप्त है बल्कि वो केवल पर्यटन की दृष्टि या सौंदर्यीकरण के लिए ये कॉरीडोर नहीं बनवा रहे और ना ही ये काम जल्दबाजी में किया गया है, तो जिस काम का श्रेय इंदिरा गांधी ले सकती थीं, वो मौका उन्होंने उस वक्त खो दिया।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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