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- क्षेत्रीय भाषाओं की...
आदित्य चोपड़ा; हिन्दी दिवस के अवसर पर गुजरात के सूरत शहर में आयोजित राजभाषा सम्मेलन के अवसर पर गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने जिस तरह हिन्दी भाषा की व्याख्या की है वह भारत के भाषाई सत्य को उजागर करती है। स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन में लोकमान्य तिलक से लेकर महात्मा गांधी व जवाहर लाल नेहरू तक ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि केवल हिन्दी भाषा ही भारत की सम्पर्क भाषा बनने की क्षमता रखती है। आज पूरी दुनिया में हिन्दी, अंग्रेजी व चीनी भाषा के बाद एेसी तीसरी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर जब प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं तो इसमें भाषाई भावुकता का पुट नहीं होता बल्कि भाषाई गौरव की महक होती है। परन्तु भारत में हिन्दी को लेकर अक्सर विवाद पैदा हो जाता है जो पूर्णतः निरर्थक है क्योंकि हिन्दी विश्व की सर्वाधिक सरल और वैज्ञानिक भाषा है। मगर भारत जैसे विविधता से भरे देश में अनेक प्रान्तीय भाषाएं हैं और सैकड़ों बोलियां हैं। कन्नड़ से लेकर तेलगू, तमिल, मलयालम, बांग्ला, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, असमी, मणिपुरी, कश्मीर डोगरी व उर्दू आदि। बहुत पहले साम्यवादी विचारों के पोषक विद्वान डा. रामविलास शर्मा ने एक पुस्तक लिखी थी 'भारत की भाषा समस्या' । इस पुस्तक में रामविलास जी ने सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिन्दी का मित्र भाव सिद्ध किया था और विभिन्न शब्दों के लेन-देन की प्रक्रिया को बताया था। यहां तक कि नगा व कोल बोलियों व भाषाओं के बीच भी आन्तरिक सम्बन्ध दिखाया था। डा. शर्मा द्वारा स्थापित यह अवधारणा तथ्यों पर आधारित थी और वस्तुपरक थी। हिन्दी की स्वीकार्यता किस प्रकार उत्तर से लेकर दक्षिण तक स्वतःस्फूर्त भाव से आम जनता में रची बसी है इसके उदाहरण भी हमें एक नहीं बल्कि हजारों मिल जायेंगे। मसलन दक्षिण के लोगों ने हिन्दी की स्वीकार्यता मुम्बइया फिल्मों के माध्यम से बढ़ी। तमिल भाषी लोगों के बीच यह भाषा परचूनिया या सब्जी बाजारों के माध्यम से कथित संभ्रान्त वर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में की जाती है। इसी प्रकार उत्तर पूर्व के अधिसंख्या राज्यों में असम से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक में हिन्दी का उपयोग खुल कर होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इसे समझने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि इसके शब्दाभाव व्यक्ति की सामान्य क्रिया से जुड़े रहते हैं तथा जैसे हम बोलते हैं वैसे ही इसे लिखते हैं। इसी वजह से गृहमन्त्री श्री शाह का यह कहना कि हिन्दी सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ 'सखी भाव' रखती है पूरी तरह वास्तविक व वैज्ञानिक है। दक्षिण भारत के राज्यों पर इसे थोपने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। यह दक्षिणी राज्यों या गैर हिन्दी भाषी लोगों के लिए लाभांश (बोनस) के रूप में कार्य करती है। भारत की प्रशासकीय व पुलिस तथा विदेश सेवाओं में सर्वाधिक प्रत्याशी दक्षिण भारत या गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों से ही चुने जाते थे। इन वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के लिए हिन्दी का ज्ञान होना इसलिए आवश्यक था कि भारत की विशालता को देखते हुए हिन्दी भाषी क्षेत्रों की ही अधिकता है। इन अफसरों को उत्तर व पश्चिम भारत में काम करने के लिए हिन्दी का ही सहारा लेना पड़ता था। इसीलिए हमारे पुरखों ने हिन्दी व अंग्रेजी दोनों को ही राजभाषा का दर्जा दिया। इसमें क्षेत्रीय भाषाओं की अवहेलना करने का कोई मन्तव्य नहीं था क्योंकि क्षेत्रीय सेवाओं के लिए (पीसीएस) पृथक परीक्षा होती थी। अखिल भारतीय सेवाओं के तन्त्र की स्थापना भारत के पहले गृहमन्त्री सरदार पटेल ने ही की थी और सुनिश्चित किया था कि दक्षिण के मदुरै जिले से बने आईएएस अफसर की उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में नियुक्ति हो जाने पर किसी प्रकार की दिक्कत न हो। इसी प्रकार मध्य प्रदेश के सीधी जिले के आईएएस अफसर की नियुक्ति यदि केरल के कोट्टायम जिले में होती है तो उसके लिए मलयालम भाषा की जानकारी आवश्यक हो। वस्तुतः इसी दृष्टि से 1966 के करीब भारत में त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया था परन्तु इसमें एक कमी हो गई कि उत्तर भारत के लोगों के लिए किसी दक्षिणी या गैर हिन्दी भाषा की पढ़ाई को आवश्यक नहीं बनाया गया और इन राज्यों में चल रहे अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन के तहत इस भाषा की पढ़ाई को कुछ राज्यों में ऐच्छिक (आप्शनल) बना दिया गया। बाद में इसमें सुधार भी किया गया। संपादकीय :समरकंद : कूटनीति की शतरंजजी-20 : भारत बनेगा बॉसगरीबों को आरक्षण पर विवादबदलते परिवेश मे बुजुर्गों की अवस्थायुद्ध से क्या हासिल हुआ?ज्ञानवापी वापस करोएक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब भारत की दो राजभाषाएं हिन्दी व अंग्रेजी हैं तो उच्च सरकारी पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों के लिए दोनों का ही ज्ञान जरूरी हो जाता है। मगर चुंकि हिन्दी भारत की आजादी की भी भाषा है जिसे सबसे अधिक कांग्रेस के महान अध्यक्ष स्व. कामराज ने ही पहचाना और हिन्दी का वह सम्मान किया जो आज तक संभवतः किसी अन्य राजनेता ने नहीं किया। वर्ष 1966 जनवरी में श्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद जब प्रधानमन्त्री पद को लेकर स्व. इदिरा गांधी व स्व. मोरारजी देसाई के बीच खींचतान शुरू हुई तो उससे पहले कांग्रेस कार्यसमिति के अधिसंख्या सदस्यों ने उन्हें सुझाव दिया कि वह स्वयं ही प्रधानमन्त्री बन जायें उनके नाम पर सर्वसम्मति बनने में देर नहीं लगेगी। श्री कामराज ने उत्तर दिया कि बन तो जाऊं मगर मुझे 'हिन्दी' नहीं आती और भारत का सफल प्रधानमन्त्री वही व्यक्ति बन सकता है जिसे हिन्दी आती हो। हिन्दी न जानने की वजह से उन्होंने प्रधानमन्त्री पद को अस्वीकार कर दिया। अतः हिन्दी की ताकत का अन्दाजा हमें इस ऐतिहासिक सत्य से लग जाना चाहिए।