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अब न वो नैन रहे जो शर्माते थे, न वे होंठ जो मुस्कुराते थे और न ही वह देह रही जो प्रणाम भाव में किसी के आगे झुक जाती थी
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
अब न वो नैन रहे जो शर्माते थे, न वे होंठ जो मुस्कुराते थे और न ही वह देह रही जो प्रणाम भाव में किसी के आगे झुक जाती थी। अब तो लगता है आदमी बिजूका (परिंदों को डराने-भगाने के लिए खेत में खड़ा किया गया मनुष्य का पुतला) हो गया। हमारे शास्त्रों में सात फेरे के बारे में खूब लिखा गया है। जब भी सात फेरों की बात आती है, लोगों का ध्यान विवाह पर चला जाता है।
लेकिन, ऋषि-मुनि कह गए हैं सात फेरे हमें प्रतिदिन अपने भीतर भी लेने चाहिए। इसका मतलब है दिनभर में कम से कम एक बार अपनी ऊर्जा को अपने भीतर के सात चक्रों पर जरूर घुमाइए। संत-महात्मा हमें मार्ग बता सकते हैं, मंजिल कोई नहीं दे सकता। वहां तो अपने प्रयासों से हमें ही पहुंचना है। जब हम सात चक्रों पर फेरे लगाते हैं यानी अपनी ऊर्जा घुमाते हैं तो वासना ऊपर उठकर प्रार्थना बन जाती है।
प्रार्थना नीचे गिर जाए तो वासना हो जाती है। इसी वासना पर विजय पाने के लिए सूर्य नमस्कार की विधि निर्मित की गई है। यह एक ऐसी आसन पद्धति है जो केवल सूर्य की उपासना नहीं है। झुकना, ऊपर देखना, लचीला बनना और शीघ्र परिवर्तन में पूर्णता निकाल लेना, ये खूबियां हैं इसकी। बाहर इस तरह के आसन हों, भीतर चक्र-ऊर्जा के सात फेरे हों तो मनुष्य सचमुच मनुष्य हो जाएगा। वरना जीवन तो अपने तरीके से पशु भी गुजार लेते हैं।
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