सम्पादकीय

नौवें वर्ष में निरापद मोदी

Rani Sahu
29 May 2022 8:44 AM GMT
नौवें वर्ष में निरापद मोदी
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुसलसल हुकूमत का नौवां साल जहां उनके समर्थकों को जश्न मनाने का मौका दे रहा है

शशि शेखर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुसलसल हुकूमत का नौवां साल जहां उनके समर्थकों को जश्न मनाने का मौका दे रहा है, वहीं विपक्षी दल उनकी घेराबंदी के लिए कसमसा रहे हैं। क्या मोदी 2024 में लोकसभा चुनाव जीतकर जवाहरलाल नेहरू के कीर्तिमान की बराबरी करेंगे? या, विपक्ष उन्हें घेरने में कामयाब साबित होगा?
प्रधानमंत्री की जीत-हार को लेकर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि कार्यकाल के चौथे साल में ही चुनावी गुणा-भाग शुरू हो जाता है। इस साल के अंत तक चुनावी हलचल शुरू हो चुकी होगी, पर विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है। जिस कांगे्रस से सर्वाधिक उम्मीद की जा सकती थी, वह आए दिन टूट-फूट की शिकार हो रही है। नेहरू-गांधी परिवार 'ग्रैंड ओल्ड पार्टी' को बचाने और आगे बढ़ाने में चुनाव-दर-चुनाव नाकामयाब साबित हुआ है। 1984 से लेकर अब तक तीन चुनाव को छोड़कर कांग्रेस के 'वोट बैंक' में गिरावट का सिलसिला जारी है।
विपक्षी एकता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा भी यही है।
ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस 191 सीटों पर भाजपा से सीधी लड़ाई में थी। 2019 में उसे लगभग 12 करोड़ वोट हासिल हुए थे, जो कुल मतदान का करीब 20 प्रतिशत था। कोई अन्य दल अकेले इतनी सीटों पर चुनौती देने की क्षमता नहीं रखता।
यही वह मुकाम है, जहां से विपक्षी एकता के विरोधाभास आकार लेने लगते हैं। पिछले दो वर्ष के दौरान हुए बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। बंगाल में वह एक भी सीट जीतने में नाकामयाब रही, तो उत्तर प्रदेश में उसके पास महज दो विधानसभा सीटें हैं। बिहार में लालू और तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनता दल का मानना है कि हम बिहार का चुनाव सिर्फ इसलिए हार गए, क्योंकि हमने कांग्रेस को पुरानी सियासी दोस्ती के चलते 70 सीटें दे दीं। उनसे अच्छे तो 16 विधानसभा क्षेत्रों से जीतने वाले वामपंथी साबित हुए। यही वजह है कि विधान परिषद चुनावों में तेजस्वी ने कांग्रेस को दरकिनार कर दिया।
इस साल नवंबर-दिसंबर में गुजरात और हिमाचल में चुनाव होने हैं। यदि वहां कांग्रेस कोई कमाल न कर सकी, तो राजनीति के दंगल में उसकी शक्ति और क्षीण हो जाएगी। भारतीय जनता पार्टी ने इसीलिए अपनी समूची ताकत इन सूबों में झोंक दी है, पर कांग्रेस की ओर से अभी तक ऐसी कोई पहल सामने नहीं आई है, जो राष्ट्रव्यापी चर्चा का विषय बन सके।
हालांकि, कुछ रणनीतिकार ऐसे भी हैं, जो मानते हैं कि अगर अभी से सही मुद्दों पर आंदोलन किया जाए, तो नरेंद्र मोदी का करिश्मा फीका पड़ सकता है। राहुल गांधी शायद इसीलिए गांधी जयंती से 'भारत जोड़ो यात्रा' शुरू करने जा रहे हैं। वह इससे पहले भी किसानों और नौजवानों के पक्ष में संघर्ष करते दिखे हैं। पिछले चुनाव में राहुल ने राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था, जिसे जनता ने दरकिनार कर दिया।
इस तर्क को धारदार बनाने के लिए विश्लेषक अक्सर जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिंह के सफल आंदोलनों के उदाहरण देते हैं। जयप्रकाश नारायण से बात शुरू करते हैं। उन्होंने 1974 में जब आंदोलन की शुरुआत की थी, तब देश का मानस कैसा था? हमें आजाद हुए कुल 27 साल हुए थे। उन दिनों बड़ी संख्या में ऐसे लोग सक्रिय थे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी या वे उससे सहानुभूति रखते थे। उनको लगता था कि आजादी अभी अधूरी है, हमें दूसरी आजादी की लड़ाई लड़नी चाहिए।
भारत की स्वतंत्रता अपने साथ शहरीकरण का विस्तार लाई थी। इससे नई दिक्कतें उठ खड़ी हुई थीं। रोटी, रोजगार और विस्थापन के मुद्दों ने देश का मानस मथ रखा था। नौजवानों का बड़ा तबका मानता था कि हमारे साथ छल हुआ है। समय के उस दौर में समूची दुनिया में युवा आंदोलित थे और भटके हुए नौजवान 'हिप्पी' बन रहे थे। भारत में भी चे-ग्वेरा और फिदेल कास्त्रो को उन दिनों हीरो माना जाता था। आप याद कर सकते हैं कि नक्सलबाड़ी से उपजा नक्सलवाद कई प्रदेशों में तेजी से पांव पसार रहा था। इन नौजवानों के नायक माओ-त्से-तुंग हुआ करते थे। विद्रोह के भावों का कोलाहल साहित्य और सिनेमा तक से सुना जा सकता था। इसी ने अमिताभ बच्चन को 'एंग्री यंगमैन' बना दिया था।
ऐसे में, जब जयप्रकाश नारायण ने 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान किया, तो उन्हें समर्थन मिलना अनिवार्य था। उस बदलाव का मोरारजी देसाई, चरण सिंह और उनके साथियों ने क्या हश्र बनाया, वह हम सबके सामने है।
इंदिरा गांधी इसी के चलते सत्ता में लौटीं, पर 31 अक्तूबर, 1984 को उनकी हत्या हो गई। इस हादसे से उमड़ी सहानुभूति की लहर पर सवार राजीव गांधी 414 सांसदों के अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता की चौहद्दियों में दाखिल हुए थे। तीन साल बीतते न बीतते वह भी 'बोफोर्स विवाद' में घिर गए। नतीजतन, 1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह एक महानायक के तौर पर उभरे और अगले बरस प्रधानमंत्री बनने में भी कामयाब हो गए। लोग उनकी तुलना गांधी से करने लगे थे, लेकिन वह अपनी खिचड़ी सरकार को दो साल भी नहीं खींच पाए।
यह भारतीय नौजवानों के सपनों की दूसरी भ्रूण हत्या थी।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुद्दों के आधार पर मोर्चेबंदी का मनसूबा पाले लोग शायद इस तथ्य को जान-बूझकर नजरअंदाज करते हैं कि 1974, 1988 और 2022 के हालात में जमीन-आसमान का अंतर है। विपक्ष के पास जयप्रकाश नारायण जैसा कोई नेता नहीं है। बेरोजगारी तब भी थी और आज भी है। महंगाई तब भी परेशान करती थी, आज भी करती है, मगर अपने ही कर्मों का मारा विपक्ष इस पर कोई सार्थक आंदोलन करने की स्थिति में नहीं दिखाई पड़ता। ऊपर से मोदी और उनके मंत्रियों पर अभी तक भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं है।
इसके बरक्स महाराष्ट्र और झारखंड की खिचड़ी सरकारों का हाल देख लीजिए। विपक्ष आरोप भले ही कितना भी लगाता रहे कि केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है, पर ये एजेंसियां तभी हरकत में आ पाती हैं, जब उनके हाथ कुछ ठोस सुबूत लगे। महाराष्ट्र के दो मंत्री इन्हीं आरोपों के चलते जेल में हैं और तीसरे पर कार्रवाई चल रही है। झारखंड में भी जिस तरह छापेमारी हो रही है, उसने तमाम तरह की खबरों को जन्म दे दिया है। ऐसे विपक्ष से भाजपा विरोधी भी सार्थक उम्मीद पालने में नाकामयाब रहते हैं।
यकीनन, इसीलिए अपनी हुकूमत के नौवें वर्ष में नरेंद्र मोदी को जैसा खुला मैदान मिल रहा है, वैसा अब तक नेहरू के अलावा किसी और को नहीं मिला। आप चाहें, तो इस तथ्य को भी उनके कीर्तिमानों की सूची में जोड़ सकते हैं।

सोर्स- Hindustan

Rani Sahu

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