सम्पादकीय

साधो, ये जग बीमाराना!

Gulabi
1 Sep 2021 4:32 AM GMT
साधो, ये जग बीमाराना!
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ऑफ लाइन दोस्त तो खैर अब बीते जमाने की बात हो गई है

दिव्याहिमाचल.

ऑफ लाइन दोस्त तो खैर अब बीते जमाने की बात हो गई है। आज का मॉडर्न जमाना फेसबुकिया, व्हाट्सैपिया दोस्तों का जमाना है। इसलिए इनकी उनकी तरह आजकल मेरे पास भी ढेर सारे फेसबुकिया दोस्त हैं। बहुत ढेर सारे। पर इन्हीं दोस्तों के बीच अब मैं बीमार सा रहने लगा हूं। आदमी भी अजीब है। फेसबुकिया दोस्त हों तो बीमार, न हों तो उससे भी अधिक बीमार। वैसे अब जो मैंने फील किया है सो यह कि जितने ज्यादा ऑनलाइन दोस्त, उतनी ज्यादा दोस्तों को संभालने की सिरदर्दी। आज की तारीख में बीमार होना आदमी की स्वाभाविक क्रिया है। आज जो गलती से बीमार नहीं होना चाहता, उसे भी जबरदस्ती तरह तरह की दवाएं खिला खिलाकर सिस्टम द्वारा बीमार कर दिया जाता है। कुल मिलाकर आज आदमी को न चाहते हुए भी कुछ होना पड़े या न, पर उसे समाज में शांति से जीने के लिए सबके सामने बीमार होना, रहना, दिखना जरूर पड़ता है। वैसे आज बीमारी तक खुद बीमार है।
वह अपना इलाज करवाने को हॉस्पिटल हॉस्पिटल भटक रही है। पर उसका इलाज नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा। मैं बंद आंखों से भी साफ -साफ देख रहा हूं कि मेरे आगे खड़े बीमार हैं, मेरे पीछे खड़े बीमार हैं। मेरे ऊपर खड़े बीमार हैं, मेरे नीचे पड़े बीमार हैं। और को तो छोडि़ए साहब! सोसाइटी में बीमारों का इलाज करने वाले खुद बीमार हैं। पर धन्य हैं वे कि उसके बाद भी बीमार बीमारों का इलाज कर अच्छा खासा पैसा ऐंठ रहे हैं। जिसके पास ये पैसा होता है, उसे भी वह चैन से सोने देता, और जिसके पास नहीं होता, वह तो बेचारा चैन से सोता ही नहीं। जीव जगत में किसी को पैसे की बीमारी है तो किसी को सदा गरीब बने रहने की। किसी को आशीर्वाद लेने की बीमारी है तो किसी को आशीर्वाद देने की। किसी को पांव धुलवाने की बीमारी है तो किसी को पांव धोने की। किसी को दूसरों पर हंसने की बीमारी है तो किसी को दूसरों को अपने पर हंसवाने की। बहुतों को अपने पास सब कुछ होने के बाद भी अपने को खाली दिखाने की बीमारी होती है तो बहुतों को पेट खाली होने के बाद भी भरी सभा में पूरा जोर लगा लगाकर पदियाने की। किसी को खरीदने की बीमारी है तो किसी को शान से बिकने की। किसी को जय जय जयकार करवाने की बीमारी है तो किसी को जय जयकार करने की। किसी को मठाधीश होने की बीमारी है तो किसी को मठाधीश बनाने की।
किसी को चमचा होने की बीमारी है तो किसी को चमचे रखने की। झूठ बोलना तो खैर है ही बीमारी, पर जो बीमारियों में बीमारी है तो वह है साहस के साथ सच बोलने की बीमारी। जो बदतमीज साहस ही नहीं, दुस्साहस के साथ कलात्मक ढंग से झूठ बोलते हैं, वे तो वे, उनके दुश्मन तक इस बीमारी से कभी ठीक नहीं होते। पैसा बुरी नहीं, बहुत बुरी बीमारी है। धर्म से भी बुरी। जिस तरह सच्ची को समझदार से समझदार जीव धर्म को बचाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है, उसी तरह जीव पैसा कमाने, बचाने, छिपाने को अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है, गनी की तरह। करने वाले चाहे कुछ बकवास करते रहें, पर सच यही है कि पैसा पैसा ही होता है। मुझ पर विश्वास नहीं तो पैसे के लिए जेल की रोटियां तोड़ते बाबाओं से पूछ लीजिए। पैसा खुदा से भी बड़ा होता है। आदमी खुदा के कहर से उतना नहीं डराता डरता, जितना पैसे की पावर से डरता डराता है। पैसे की पावर के आगे खुदा की पावर जीरो होती रही है। पैसे वाले समय समय पर खुदा तक को खरीदते रहे हैं। और फिर उसे अपने हिसाब से समाज के सामने पेश कर उससे भी मायायुक्त धंधा करवाते रहे हैं।
अशोक गौतम,
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