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भगवान कृष्ण की इस भक्ति रचना को संगीत का हर विद्यार्थी अपनी संगीत शिक्षा के दौरान सीखता है
जाग उठे सब जन तुम जागो
गौवन के चरवाल चरैया।।
ग्वाल बाल सब गौवें चरावत
तुम्हरे कारन आवत धावत
सदारंग मन तुमसो लागो।।
जाग उठे सब…
भगवान कृष्ण की इस भक्ति रचना को संगीत का हर विद्यार्थी अपनी संगीत शिक्षा के दौरान सीखता है. ये भक्ति रचना दरअसल राग बिलावल की एक प्रमुख बंदिश है. राग बिलावल ऐसा राग है, जिसमें सातों स्वर अपने शुद्ध रूप में प्रयोग होते हैं और इसीलिए ये संगीत शिक्षा का एक प्रारंभिक राग माना जाता है.
भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी इस बंदिश के रचियता, "सदारंग" हैं. सदारंग को हिंदुस्तान में ख़्याल गायकी का जनक भी माना गया है. दरअसल, ख़्याल गायकी से पहले ध्रुपद और ध्रुपद से पहले प्रबंध गायकी का प्रचलन रहा है.
आज के आधुनिक युग में अगर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की बात करें तो इस में ध्रुपद से ज़्यादा ख़्याल का प्रचलन है. सदारंग ने, ख़्याल की उत्पति की और साथ ही इस गायकी में बंधी तमाम बंदिशे भी लिखी. इन बंदिशों में अक्सर उनका नाम "वाटरमार्क" की तरह आता है. जैसे ऊपर की दी हुई बंदिश में उनका नाम वाटरमार्क की तरह मौजूद है. सदारंग…
भारतीय शास्त्रीय संगीत सिर्फ़ स्वर, ताल, लय से ही नहीं, बल्कि भक्ति और श्रृंगार रस से भी परिपूर्ण है. मंदिरों के प्रांगण और महलों की संगीत सभाओं में ये सदा से ही फलता फूलता आया है. आज भी युवाओं में इसको सीखने की लगन हर तरफ़ देखी जा सकती है.
मोहम्मद शाह रंगीले और नियामत खान
मुगल बादशाह अकबर और उनके नौरतनों में से एक तानसेन का नाम तो आप ने सुना होगा, पर आज बात मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले और उनके दरबारी संगीतज्ञ, नियामत खान की जोड़ी की करूंगी.
मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के दरबार में नियामत खान ध्रुपद गायक और बीनकार थे. रंगीले, गजब के संगीत प्रेमी थे. अपनी मर्ज़ी के मालिक, बादशाह थे. एक रोज़ वो ध्रुपद सुन-सुन से के पक गए. रंगीले बादशाह, ध्रुपद से कुछ यूं ऊबे कि नियामत खान को ही दरबार से चलता कर दिया. नियामत खान ने भी ठान ली. जब तक बादशाह खुद नहीं बुलाएंगे, खुद इस्तकबाल नहीं करेंगे, वो फिर कभी दरबार में दोबारा नहीं जाएंगे. तो इस तरह शुरू हुई नियामत खान की एक नई पारी. एक अलग तरह की संगीत साधना. वो संगीत साधना, जिसने एक नई गायकी को जन्म दिया.
सदारंग
महल से निकाले जाने के कारण नियामत खान के लिए पहचान छुपाना ज़रूरी हो गया था. संगीत की इस नई दुनिया में, इस नई पारी में उन्होंने अपना नाम बदल लिया. नियामत खान ने खुद को सदारंग कर लिया.
आगे चल 'सदारंग' के नाम से ही नियामत खान ने ख़्याल गायकी को जन्म दिया. उसी नाम से उन्होंने बंदिशें लिखीं. लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. एक बार उनके शागिर्दों ने बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के सामने ख़्याल गाया. बादशाह बड़े खुश हुए. इतने खुश कि बादशाह ने कहा, वो उन गायकों के उस्ताद से मिलना चाहते हैं. और फिर बादशाह ने जब उनके उस्ताद 'सदारंग' यानि नियामत खान को देखा तो आश्चर्य चकित रह गए. बादशाह थे. बड़ा दिल था. उन्होंने सदारंग उर्फ़ नियामत खान का खुले दिल से इस्तकबाल किया. आदर सहित वापिस अपने दरबार में पुराने रुतबे के साथ स्थापित किया.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ख़्याल गायकी बस वहीं से शुरू हुई. और 'सदारंग' ने अपनी तमाम बंदिशें, ऊपर वाले और अपने बादशाह 'रंगीले' के नाम कीं. उनकी बहुत सी बंदिशें मोहम्मद शाह रंगीले, यानि उनके बादशाह को भी समर्पित हैं.
इतिहास बोध का भी करवाती है संगीत शिक्षा
मध्यकाल में एक तरह से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की पूरी की पूरी परंपरा, चाहे ध्रुपद हो या फिर ख़्याल गायकी, मुस्लिम शासकों के दरबारों में खूब फली फूली. आज, ख़्याल को गाते हुए संगीत का हर विद्यार्थी अपनी शिक्षा के दौरान "सदारंग" को अपनी बंदिशों में मोजूद पाता है. और हम आज 2021 में बैठ जब पीछे देखते हैं, पाते हैं…
"सदारंग" यूं तो नियामत खान हैं, पर "हरि/कृष्णप्रेम" की इनायत उन पर खूब है. उनके इस "हरि/कृष्णप्रेम" को मुग़ल शासक मोहम्मद शाह "रंगीले" के दरबार में पूरा प्रेम व सम्मान मिलता है.
सदारंग रूपी नियामत खान जब कहते हैं…
"हरी हरी नाम रटत मन मेरे
या को सुमरन (सुमिरन) पाप कटतल मेरे
ले ले नाम सब पार उध्दर गयेयही उपदेस कहत मन मेरे"
या
कैसे सुख सोवें नींदरिया
श्याम मूरत चित चढ़ी
सोच सोच सदारंग ओकलावें
लगता है "सदारंग" नियामत खान नहीं, "मीरा" हैं!
सदारंग की कृष्ण प्रेम और दूसरी भक्ति रस से परिपूर्ण रचनाएं आज भी खूब फल फूल और फैल रहीं हैं. पंडित भीमसेन जोशी और उस्ताद राशिद खान जब मिलकर राग शंकरा में निबद्ध सदारंग की ये शिव स्तुति/ बंदिश गाते हैं, लगता है आदि महादेव साक्षात बीन बजा रहे हैं.
आदि महादेव बीन बजाई
पाई नियामत खान पिया
सदारंग कर करम दिखाई
देखने वाली बात ये है कि…
एक मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के दरबार में, एक नियामत खान, शिव स्तुति लिखता है, उसे गाता है. और वही शिव स्तुति, तकरीबन तीन सौ साल बाद पंडित भीमसेन जोशी और उस्ताद राशिद खान मिल के जुगलबंदी में गाते हैं.
चलते–चलते
जी, हमारी भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा कोई ठहरी हुई, स्टेगनेट होती हुई परंपरा नहीं है. ये ठहरे हुए तालाब की तरह नहीं, बहती हुई नदी की तरह है. बिल्कुल हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब की तरह. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, हमारी बेहद खास गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है और इस प्रतीक पर हमको नाज़ है.
ज्योत्स्ना तिवारी।

Rani Sahu
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